82. भगवान विष्णु आराधना और चातुर्वर्ण्य – धर्मका वर्णन

भगवान विष्णु की आराधना और उसके फल

विष्णु की आराधना से प्राप्त फल

भगवान् विष्णुकी आराधना करनेसे मनुष्य भूमण्डल – सम्बन्धी समस्त मनोरथ , स्वर्ग , स्वर्गसे भी श्रेष्ठ ब्रह्मपद और परम निर्वाण – पद भी प्राप्त कर लेता है ॥ वह जिस – जिस फलकी जितनी जितनी इच्छा करता है , अल्प हो या अधिक , श्रीअच्युतकी आराधनासे निश्चय ही वह सब प्राप्त कर लेता है ॥ जो पुरुष वर्णाश्रम – धर्मका पालन करनेवाला है वही परमपुरुष विष्णुकी आराधना कर सकता है ; उनको सन्तुष्ट करनेका और कोई मार्ग नहीं है ॥ यज्ञोंका यजन करनेवाला पुरुष उन ( विष्णु ) ही का यजन करता है , जप करनेवाला उन्हींका जप करता है और दूसरोंकी हिंसा करनेवाला उन्हींकी हिंसा करता है ; क्योंकि भगवान् हरि सर्वभूतमय हैं ॥

धर्म का पालन और विष्णु की आराधना

अतः सदाचारयुक्त पुरुष अपने वर्णके लिये विहित धर्मका आचरण करते हुए श्रीजनार्दनहीकी उपासना करता है ॥ ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और अपने – अपने धर्मका पालन करते हुए ही विष्णुकी आराधना करते हैं , अन्य प्रकारसे नहीं ॥ केशव प्रसन्न रहते जो पुरुष दूसरोंकी निन्दा , चुगली अथवा मिथ्याभाषण नहीं करता तथा ऐसा वचन भी नहीं बोलता जिससे दूसरोंको खेद हो , उससे निश्चय ही भगवान् हैं ॥

जो पुरुष दूसरोंकी स्त्री , धन और हिंसा में रुचि नहीं करता उससे सर्वदा ही भगवान् केशव सन्तुष्ट रहते हैं ॥ जो मनुष्य किसी प्राणी अथवा [ वृक्षादि ] अन्य देहधारियोंको पीड़ित अथवा नष्ट नहीं करता उससे श्रीकेशव सन्तुष्ट रहते हैं ॥ जो पुरुष देवता , ब्राह्मण और गुरुजनोंकी सेवामें सदा तत्पर रहता है , उससे गोविन्द सदा प्रसन्न रहते हैं ॥

जो व्यक्ति स्वयं अपने और अपने पुत्रोंके समान ही समस्त प्राणियोंका भो हित – चिन्तक होता है वह सुगमतासे ही श्रीहरिको प्रसन्न कर लेता है ॥ जिसका चित्त रागादि दोषोंसे दूषित नहीं है उस विशुद्ध – चित्त पुरुषसे भगवान् विष्णु सदा सन्तुष्ट रहते हैं ॥ शास्त्रोंमें जो – जो वर्णाश्रम धर्म कहे हैं उन – उनका ही आचरण करके पुरुष विष्णुको आराधना कर सकता है ; और किसी प्रकार नहीं ॥

वर्णाश्रम धर्म का पालन

ब्राह्मण का कर्तव्य

ब्राह्मणका कर्तव्य है कि दान दे , यज्ञोंद्वारा देवताओंका यजन करे , स्वाध्यायशील हो , नित्य स्नान – तर्पण करे और अग्न्याधान आदि कर्म करता रहे ॥ ब्राह्मणको उचित है कि वृत्तिके लिये दूसरोंसे यज्ञ करावे , औरोंको पढ़ावे और न्यायोपार्जित शुद्ध धनमेंसे न्यायानुकूल द्रव्य संग्रह करे ॥ ब्राह्मणको कभी किसीका अहित नहीं करना चाहिये और सर्वदा समस्त प्राणियों के हितमें तत्पर रहना चाहिये । सम्पूर्ण प्राणियोंमें मैत्री रखना ही ब्राह्मणका परम धन है ॥ पत्थरमें और पराये रत्नमें ब्राह्मणको समान – बुद्धि रखनी चाहिये ।पत्नीके विषयमें ऋतुगामी होना ही ब्राह्मणके लिये प्रशंसनीय कर्म है ॥

क्षत्रिय का कर्तव्य

क्षत्रियको उचित है कि ब्राह्मणोंको यथेच्छ दान दे , विविध यज्ञोंका अनुष्ठान करे और अध्ययन करे ॥ शस्त्र धारण करना और पृथिवीकी रक्षा करना ही क्षत्रियकी उत्तम आजीविका है ; इनमें भी पृथिवी पालन ही उत्कृष्टतर है ॥ पृथिवी पालनसे ही राजालोग कृतकृत्य हो जाते हैं , क्योंकि पृथिवीमें होनेवाले यज्ञादि कर्मोका अंश राजाको मिलता है ॥ जो राजा अपने वर्णधर्मको स्थिर रखता है वह दुष्टोंको दण्ड देने और साधुजनोंका पालन करनेसे अपने अभीष्ट लोकोंको प्राप्त कर लेता है ॥

वैश्यों का कर्तव्य

लोकपितामह ब्रह्माजीने वैश्योंको पशु – पालन , वाणिज्य और कृषि – ये जीविकारूपसे दिये हैं ॥ अध्ययन , यज्ञ , दान और नित्य नैमित्तिकादि कर्मोंका अनुष्ठान – ये कर्म उसके लिये भी विहित हैं ॥

शूद्र का कर्तव्य

शूद्रका कर्तव्य यही है कि द्विजातियोंकी प्रयोजन सिद्धिके लिये कर्म करे और उसीसे अपना पालन पोषण करे , अथवा [ आपत्कालमें , जब उक्त उपायसे जीविका निर्वाह न हो सके तो ] वस्तुओंके लेने – बेचने अथवा कारीगरीके कामोंसे निर्वाह करे ॥ अति नम्रता , शौच , निष्कपट स्वामि – सेवा , मन्त्रहीन यज्ञ , अस्तेय , सत्संग और ब्राह्मणकी रक्षा करना- ये शूद्रके प्रधान कर्म हैं ॥

समस्त वर्णों के सामान्य गुण

शूद्रको भी उचित है कि दान दे , बलिवैश्वदेव अथवा नमस्कार आदि अल्प यज्ञोंका अनुष्ठान करे , पितृश्राद्ध आदि कर्म करे , अपने आश्रित कुटुम्बियोंके भरण – पोषणके लिये सकल वर्णोंसे द्रव्य संग्रह करे और ऋतुकालमें अपनी ही स्त्रीसे प्रसंग करे ॥ इनके अतिरिक्त समस्त प्राणियोंपर दया , सहनशीलता , अमानिता , सत्य , शौच , अधिक परिश्रम न करना , मंगलाचरण , प्रियवादिता , मैत्री , निष्कामता , अकृपणता और किसीके दोष न देखना- ये समस्त वर्णोंके सामान्य गुण हैं ॥ सब वर्णोंके सामान्य लक्षण इसी प्रकार हैं ।

आपद्धर्म और वर्णों के गुण

अब इन ब्राह्मणादि चारों वर्णोंके आपद्धर्म और गुणोंका श्रवण करो |आपत्तिके समय ब्राह्मणको क्षत्रिय और वैश्य वर्णोंकी वृत्तिका अवलम्बन करना चाहिये तथा क्षत्रियको केवल वैश्यवृत्तिका ही आश्रय लेना चाहिये । ये दोनों शूद्रका कर्म ( सेवा आदि ) कभी न करें ॥

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