107. विष्णुभगवान्की विभूति और जगत्की व्यवस्थाका वर्णन

विष्णुभगवान्की विभूति और अधिपति नियुक्ति

महर्षियों द्वारा महाराज पृथु का राज्याभिषेक

 पूर्वकालमें महर्षियोंने जब महाराज पृथुको राज्यपदपर अभिषिक्त किया तो लोक – पितामह श्रीब्रह्माजीने भी क्रमसे राज्योंका बँटवारा किया ॥ ब्रह्माजीने नक्षत्र , ग्रह , ब्राह्मण , सम्पूर्ण वनस्पति और यज्ञ तथा तप आदिके राज्यपर चन्द्रमाको नियुक्त किया ॥ इसी प्रकार विश्रवाके पुत्र कुबेरजीको राजाओंका , वरुणको जलोंका , विष्णुको आदित्यका और अग्निको वसुगणोंका अधिपति बनाया ॥ दक्षको प्रजापतियोंका , इन्द्रको मरुद्गणका तथा प्रह्लादजीको दैत्य और दानवोंका आधिपत्य दिया ॥ पितृगणके राज्यपदपर धर्मराज यमको अभिषिक्त किया और सम्पूर्ण गजराजोंका स्वामित्व ऐरावतको दिया ॥

गरुडको पक्षियोंका , इन्द्रको देवताओंका , उच्चैः श्रवाको घोड़ोंका और वृषभको गौओंका अधिपति बनाया ॥ प्रभु ब्रह्माजीने समस्त मृगों ( वन्यपशुओं ) का राज्य सिंहको दिया और सर्पोंका स्वामी शेषनागको बनाया ॥ स्थावरोंका स्वामी हिमालयको , मुनिजनोंका कपिलदेवजीको और नख तथा दाढ़वाले मृगगणका राजा व्याघ्र ( बाघ ) को बनाया ॥ तथा प्लक्ष ( पाकर ) -को वनस्पतियोंका राजा किया । इसी प्रकार ब्रह्माजीने और और जातियोंके प्राधान्यकी भी व्यवस्था की ॥ इस प्रकार राज्योंका विभाग करनेके अनन्तर प्रजापतियोंके स्वामी ब्रह्माजीने सब ओर दिक्पालोंकी स्थापना की ॥

दिशाओं के दिक्पाल

उन्होंने पूर्व – दिशामें वैराज प्रजापतिके पुत्र राजा सुधन्वाको दिक्पालपदपर अभिषिक्त किया ॥ तथा दक्षिण दिशामें कर्दम प्रजापतिके पुत्र राजा शंखपदकी नियुक्ति की ॥ कभी च्युत न होनेवाले रजसपुत्र महात्मा केतुमान्‌को उन्होंने पश्चिम दिशामें स्थापित किया और पर्जन्य प्रजापतिके पुत्र अति दुर्द्धर्ष राजा हिरण्यरोमाको उत्तर दिशामें अभिषिक्त किया ॥ वे आजतक सात द्वीप और अनेकों नगरोंसे युक्त इस सम्पूर्ण पृथिवीका अपने अपने विभागानुसार धर्मपूर्वक पालन करते हैं ॥

विष्णु भगवान की विभूतियाँ

पूर्वकालीन और भविष्यकालीन भूताधिपति

 ये तथा अन्य भी जो सम्पूर्ण राजालोग हैं वे सभी विश्वके पालनमें प्रवृत्त परमात्मा श्री विष्णुभगवान्‌के विभूतिरूप हैं ॥  जो – जो भूताधिपति पहले हो गये हैं और जो – जो आगे होंगे वे सभी सर्वभूत भगवान् विष्णुके अंश हैं ॥ जो – जो भी देवताओं , दैत्यों , दानवों और मांसभोजियोंके अधिपति हैं , जो – जो पशुओं , पक्षियों , मनुष्यों , सर्पों और नागोंके अधिनायक हैं , जो – जो वृक्षों , पर्वतों और ग्रहोंके स्वामी हैं तथा और भी भूत , भविष्यत् एवं वर्तमानकालीन जितने भूतेश्वर हैं वे सभी सर्वभूत भगवान् विष्णुके अंशसे उत्पन्न हुए हैं ॥

सृष्टि की रचना, पालन और संहार

सृष्टिके पालन – कार्यमें प्रवृत्त सर्वेश्वर श्रीहरिको छोड़कर और किसीमें भी पालन करनेकी शक्ति नहीं है ॥ रजः और सत्त्वादि गुणोंके आश्रयसे वे सनातन प्रभु ही जगत्की रचनाके समय रचना करते हैं , स्थितिके समय पालन करते हैं और अन्तसमयमें कालरूपसे संहार करते हैं ॥ वे जनार्दन चार विभागसे सृष्टिके और चार विभागसे ही स्थितिके समय रहते हैं तथा चार रूप धारण करके ही अन्तमें प्रलय करते हैं ॥ एक अंशसे वे अव्यक्तस्वरूप ब्रह्मा होते हैं , दूसरे अंशसे मरीचि आदि प्रजापति होते हैं , उनका तीसरा अंश काल है और चौथा सम्पूर्ण प्राणी ।इस प्रकार वे रजोगुणविशिष्ट होकर चार प्रकारसे सृष्टिके समय स्थित होते हैं ॥

फिर वे पुरुषोत्तम सत्त्वगुणका आश्रय लेकर जगत्की स्थिति करते हैं । उस समय वे एक अंशसे विष्णु होकर पालन करते हैं , अंशसे मनु आदि होते हैं तथा तीसरे अंशसे काल और चौथेसे सर्वभूतोंमें स्थित होते हैं ॥ तथा अन्तकालमें वे अजन्मा भगवान् तमोगुणकी वृत्तिका आश्रय ले एक अंशसे रुद्ररूप , दूसरे भागसे अग्नि और अन्तकादि रूप , तीसरेसे कालरूप और चौथेसे सम्पूर्ण भूतस्वरूप हो जाते हैं ॥ विनाश करनेके लिये उन महात्माकी यह चार प्रकारकी सार्वकालिक विभागकल्पना कही जाती है ॥ ब्रह्मा , दक्ष आदि प्रजापतिगण , काल तथा समस्त प्राणी ये श्रीहरिकी विभूतियाँ जगत्की सृष्टिकी कारण हैं ॥

 विष्णु , मनु आदि , काल और समस्त भूतगण- ये जगत्की स्थितिके कारणरूप भगवान् विष्णुकी विभूतियाँ हैं ॥ तथा रुद्र , काल , अन्तकादि और सकल जीव- श्रीजनार्दनकी ये चार विभूतियाँ प्रलयकी कारणरूप हैं ॥ जगत्के आदि और मध्यमें तथा प्रलय पर्यन्त भी ब्रह्मा , मरीचि आदि तथा भिन्न – भिन्न जीवोंसे ही सृष्टि हुआ करती है ॥ सृष्टिके आरम्भ में पहले ब्रह्माजी रचना करते हैं , फिर मरीचि आदि प्रजापतिगण और तदनन्तर समस्त जीव क्षण – क्षणमें सन्तान उत्पन्न करते रहते हैं ॥ कालके बिना ब्रह्मा , प्रजापति एवं अन्य समस्त प्राणी भी सृष्टि रचना नहीं कर सकते [ अतः भगवान् कालरूप विष्णु ही सर्वदा सृष्टिके कारण हैं ] ॥ 

इसी प्रकार जगत्की स्थिति और प्रलयमें भी उन देवदेवके चार चार विभाग बताये जाते हैं ॥ जिस किसी जीवद्वारा जो कुछ भी रचना की जाती है उस उत्पन्न हुए जीवकी उत्पत्तिमें सर्वथा श्रीहरिका शरीर ही कारण है ॥  इसी प्रकार जो कोई स्थावर जंगम भूतों में से किसीको नष्ट करता है , वह नाश करनेवाला भी श्रीजनार्दनका अन्तकारक रौद्ररूप ही है ॥ इस प्रकार वे जनार्दनदेव ही समस्त संसारके रचयिता , पालनकर्ता और संहारक हैं तथा वे ही स्वयं जगत् रूप भी हैं ॥ जगत्की उत्पत्ति , स्थिति और अन्तके समय वे इसी प्रकार तीनों गुणोंकी प्रेरणासे प्रवृत्त होते तथापि उनका परमपद महान् निर्गुण है ॥

परमात्माका वह स्वरूप ज्ञानमय , व्यापक , स्वसंवेद्य ( स्वयं – प्रकाश ) और अनुपम है तथा वह भी चार प्रकारका ही है ॥ आपने जो भगवान्का परम पद कहा , वह चार प्रकारका कैसे है ? यह आप मुझसे विधिपूर्वक कहिये ॥ सब वस्तुओंका जो कारण होता है वही उनका साधन भी होता है । और जिस अपनी अभिमत वस्तुकी सिद्धि की जाती है वही साध्य कहलाती है ॥ मुक्तिकी इच्छावाले योगिजनोंके लिये प्राणायाम आदि साधन हैं और परब्रह्म ही साध्य है , जहाँसे फिर लौटना नहीं पड़ता ॥

ज्ञान और मोक्ष

योगी और साधना

 जो योगीकी मुक्तिका कारण है , वह ‘ साधनालम्बन – ज्ञान ‘ ही उस ब्रह्मभूत परमपदका प्रथम भेद है ॥ क्लेश – बन्धनसे मुक्त होनेके लिये योगाभ्यासी योगीका साध्यरूप जो ब्रह्म है ,  उसका ज्ञान ही ‘ आलम्बन – विज्ञान ‘ नामक दूसरा भेद है ॥ इन दोनों साध्य – साधनोंका अभेदपूर्वक जो ‘ अद्वैतमय ज्ञान ‘ है उसीको मैं तीसरा भेद कहता हूँ ॥ और  उक्त तीनों प्रकारके ज्ञानकी विशेषताका निराकरण करनेपर अनुभव हुए आत्मस्वरूपके समान ज्ञानस्वरूप भगवान् विष्णुका जो निर्व्यापार अनिर्वचनीय , व्याप्तिमात्र , अनुपम , आत्मबोधस्वरूप , सत्तामात्र , अलक्षण , शान्त , अभय , शुद्ध , भावनातीत और आश्रयहीन रूप है , वह ‘ ब्रह्म ‘ नामक ज्ञान [ उसका चौथा भेद ] है ॥ 

जो योगिजन अन्य ज्ञानोंका निरोधकर इस ( चौथे भेद ) -में ही लीन हो जाते हैं वे इस संसार – क्षेत्रके भीतर बीजारोपणरूप कर्म करनेमें निर्बीज वासनारहित ) होते हैं । [ अर्थात् वे लोकसंग्रहके लिये कर्म करते भी रहते हैं तो भी उन्हें उन कर्मोंका कोई पाप – पुण्यरूप फल प्राप्त नहीं होता ] ॥ इस प्रकारका वह निर्मल , नत्य , व्यापक , अक्षय और समस्त हेय गुणोंसे रहित विष्णु नामक परमपद है ॥ पुण्य – पापका क्षय और क्लेशोंकी नवृत्ति होनेपर जो अत्यन्त निर्मल हो जाता है वही योगी उस रब्रह्मका आश्रय लेता है जहाँसे वह फिर नहीं लौटता ॥ उस ब्रह्मके मूर्त और अमूर्त दो रूप हैं , जो क्षर और अक्षररूपसे समस्त प्राणियोंमें स्थित हैं ॥

अक्षर ही वह परब्रह्म है और क्षर सम्पूर्ण जगत् है । जिस प्रकार एकदेशीय अग्निका प्रकाश सर्वत्र फैला रहता है उसी प्रकार यह सम्पूर्ण जगत् परब्रह्मकी ही शक्ति है ॥  अग्निकी निकटता और दूरताके भेदसे जिस प्रकार उसके प्रकाशमें भी अधिकता और न्यूनताका भेद रहता है उसी प्रकार ब्रह्मकी शक्तिमें भी तारतम्य है ॥

हे ब्रह्मन् ! ब्रह्मा , विष्णु और शिव ब्रह्मकी प्रधान शक्तियाँ हैं , उनसे न्यून देवगण हैं तथा उनके अनन्तर दक्ष आदि प्रजापतिगण हैं ॥ उनसे भी न्यून मनुष्य , पशु , पक्षी , मृग और सरीसृपादि हैं तथा उनसे भी अत्यन्त न्यून वृक्ष , गुल्म और लता आदि हैं ॥ अत : हे मुनिवर ! आविर्भाव ( उत्पन्न होना ) , तिरोभाव ( छिप जाना ) , जन्म और नाश आदि विकल्पयुक्त भी यह सम्पूर्ण जगत् वास्तवमें नित्य और अक्षय ही है ॥

विष्णु और जगत

भगवान् विष्णु का रूप और स्वरूप

सर्वशक्तिमय विष्णु ही ब्रह्मके पर स्वरूप तथा मूर्तरूप हैं जिनका योगिजन योगारम्भके पूर्व चिन्तन करते हैं ।।  जिनमें मनको सम्यक् प्रकारसे निरन्तर एकाग्र करनेवालोंको आलम्बनयुक्त सबीज ( सम्प्रजात ) महायोगकी प्राप्ति होती है ,  श्रीविष्णु भगवान् समस्त परा शक्तियोंमें प्रधान और ब्रह्मके अत्यन्त निकटवर्ती मूर्त – ब्रह्मस्वरूप हैं ॥ उन्हींमें यह सम्पूर्ण जगत् ओतप्रोत है , उन्हींसे उत्पन्न हुआ है , उन्होंमें स्थित है और स्वयं वे ही समस्त जगत् हैं ॥ क्षराक्षरमय ( कार्य – कारण – रूप ) ईश्वर विष्णु ही इस पुरुष – प्रकृतिमय सम्पूर्ण जगत्को अपने आभूषण और आयुधरूपसे धारण करते हैं ॥

भगवान् विष्णु इस संसारको भूषण और आयुधरूपसे किस प्रकार धारण करते है ?  जगत्का पालन करनेवाले अप्रमेय श्रीविष्णुभगवान्को नमस्कार कर अब मैं , जिस प्रकार वसिष्ठजीने मुझसे कहा था वह तुम्हें सुनाता हूँ ॥ इस जगत्के निर्लेप तथा निर्गुण और निर्मल आत्माको अर्थात् शुद्ध क्षेत्रज्ञ – स्वरूपको श्रीहरि कौस्तुभमणिरूपसे धारण करते हैं ॥ श्रीअनन्तने प्रधानको श्रीवत्सरूपसे आश्रय दिया है और बुद्धि श्रीमाधवकी गदारूपसे स्थित है ॥ भूतोंके कारण तामस अहंकार और इन्द्रियोंके कारण राजस अहंकार इन दोनोंको वे शंख और शार्ङ्ग धनुषरूपसे धारण करते हैं ॥ अपने वेगसे पवनको भी पराजित करनेवाला अत्यन्त चंचल , सात्त्विक अहंकाररूप मन श्रीविष्णुभगवान्के कर – कमलोंमें स्थित चक्रका रूप धारण करता है ॥ 

भगवान् गदाधरकी जो [ मुक्ता , माणिक्य , मरकत , इन्द्रनील और हीरकमयी ] पंचरूपा वैजयन्ती माला है वह पंचतन्मात्राओं और पंचभूतोंका ही संघात है ॥ जो ज्ञान और कर्ममयी इन्द्रियाँ हैं उन सबको श्रीजनार्दन भगवान् बाणरूपसे धारण करते हैं ॥ भगवान् अच्युत जो अत्यन्त निर्मल खड्ग धारण करते हैं वह अविद्यामय कोशसे आच्छादित विद्यामय ज्ञान ही है ॥  इस प्रकार पुरुष , प्रधान , बुद्धि , अहंकार , पंचभूत , मन , इन्द्रियाँ तथा विद्या और अविद्या सभी श्रीहृषीकेशमें आश्रित हैं ॥

विष्णु भगवान के आयुध और भूषण

अस्त्र और भूषण

श्रीहरि रूपरहित होकर भी मायामयरूपसे प्राणियोंके कल्याणके लिये इन सबको अस्त्र और भूषणरूपसे धारण करते हैं ॥ इस प्रकार वे कमलनयन परमेश्वर सविकार प्रधान [ निर्विकार ] , पुरुष तथा सम्पूर्ण जगत्को धारण  करते हैं ॥ जो कुछ भी विद्या – अविद्या , सत् – असत् तथा अव्ययरूप है , वह सब सर्वभूतेश्वर श्रीमधुसूदनमें ही स्थित है ॥ कला , काष्ठा , निमेष , दिन , ऋतु , अयन और वर्षरूपसे वे कालस्वरूप निष्पाप अव्यय श्रीहरि ही विराजमान हैं ॥

 भूर्लोक , भुवर्लोक और स्वर्लोक तथा मह , जन , तप और सत्य आदि सातों लोक भी सर्वव्यापक भगवान् ही हैं ॥ सभी पूर्वजोंके पूर्वज तथा समस्त विद्याओंके आधार श्रीहरि ही स्वयं लोकमयस्वरूपसे स्थित हैं ॥ निराकार और सर्वेश्वर श्रीअनन्त ही भूतस्वरूप होकर देव , मनुष्य और पशु आदि नानारूपोंसे स्थित हैं ॥ ऋक् , यजुः , साम और अथर्ववेद , इतिहास ( महाभारतादि ) , उपवेद ( आयुर्वेदादि ) , वेदान्तवाक्य , समस्त वेदांग , मनु आदि कथित समस्त धर्मशास्त्र , पुराणादि सकल शास्त्र , आख्यान , अनुवाक ( कल्पसूत्र ) तथा समस्त काव्य – चर्चा और राग – रागिनी आदि जो कुछ भी हैं वे सब शब्दमूर्तिधारी परमात्मा विष्णुका ही शरीर हैं ॥ इस लोकमें अथवा कहीं और भी जितने मूर्त , अमूर्त पदार्थ हैं , वे सब उन्हींका शरीर हैं ॥

‘ मैं तथा यह सम्पूर्ण जगत् जनार्दन श्रीहरि ही हैं ; उनसे भिन्न और कुछ भी कार्य – कारणादि नहीं है ‘ — जिसके चित्तमें ऐसी भावना है उसे फिर देहजन्य राग – द्वेषादि द्वन्द्वरूप रोगकी प्राप्ति नहीं होती ॥ हे द्विज ! इस प्रकार तुमसे इस पुराणके पहले अंशका यथावत् वर्णन किया । इसका श्रवण करनेसे मनुष्य समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ हे मैत्रेय ! बारह वर्षतक कार्तिक मासमें पुष्करक्षेत्रमें स्नान करनेसे जो फल होता है ; वह सब मनुष्यको इसके श्रवणमात्रसे मिल जाता है ॥ देव , ऋषि , गन्धर्व , पितृ और यक्ष आदिकी उत्पत्तिका श्रवण करनेवाले पुरुषको वे देवादि वरदायक हो जाते हैं ॥

 

MEGHA PATIDAR
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