34. वृषभासुर-वध

अरिष्टासुर का आगमन 

एक दिन सायंकाल के समय जब श्रीकृष्णचन्द्र रासक्रीडा में आसक्त थे, अरिष्ट नामक एक मदोन्मत्त असुर [वृषभरूप धारणकर] सबको भयभीत करता व्रज में आया ॥ 

अरिष्टासुर का वर्णन

इस अरिष्टासुर की कान्ति सजल जलधर के समान कृष्ण वर्ण थी, सींग अत्यन्त तीक्ष्ण थे, नेत्र सूर्य के समान तेजस्वी थे और अपने खुरों की चोट से वह मानो पृथिवी को फाड़े डालता था ॥

अरिष्टासुर का क्रोध और आचरण

वह दाँत पीसता हुआ पुनः-पुनः अपनी जिह्वासे ओठोंको चाट रहा था, उसने क्रोधवश अपनी पूँछ उठा रखी थी तथा उसके स्कन्धबन्धन कठोर थे ॥ 

उसके ककुद (कुहान) और शरीरका प्रमाण अत्यन्त ऊँचा एवं दुर्लङ्घ्य था, पृष्ठभाग गोबर और मूत्रसे लिथड़ा हुआ था। 

अरिष्टासुर का आतंक

वह समस्त गौओंको भयभीत कर रहा था ॥ उसकी ग्रीवा अत्यन्त लम्बी और मुख वृक्षके खोखलेके समान अति गम्भीर था। वह वृषभरूपधारी दैत्य गौओंके गर्भोको गिराता हुआ और तपस्वियोंको मारता हुआ सदा वनमें विचरा करता था ॥

गोप और गोपांगनाओं का भय

तब उस अति भयानक नेत्रोंवाले दैत्यको देखकर गोप और गोपांगनाएँ भयभीत होकर ‘कृष्ण, कृष्ण’ पुकारने लगीं ॥ 

श्रीकृष्ण का सामना

उनका शब्द सुनकर श्रीकेशवने घोर सिंहनाद किया और ताली बजायी। उसे सुनते ही वह श्रीदामोदर की ओर फिरा ॥

श्रीकृष्ण का वृषभासुर से युद्ध

दुरात्मा वृषभासुर आगे को सींग करके तथा कृष्णचन्द्र की कुक्षि में दृष्टि लगाकर उनकी ओर दौड़ा ॥ किन्तु महाबली कृष्ण वृषभासुरको अपनी ओर आता देख अवहेलनासे लीलापूर्वक मुसकराते हुए उस स्थानसे विचलित न हुए ॥  निकट आनेपर श्रीमधुसूदन ने उसे इस प्रकार पकड़ लिया जैसे ग्राह किसी क्षुद्र जीवको पकड़ लेता है; तथा सींग पकड़नेसे अचल हुए उस दैत्यकी कोखमें घुटनेसे प्रहार किया ॥ 

अरिष्टासुर का वध

इस प्रकार सींग पकड़े हुए उस दैत्यका दर्प भंगकर भगवान्ने अरिष्टासुर की ग्रीवाको गीले वस्त्रके समान मरोड़ दिया ॥  तदनन्तर उसका एक सींग उखाड़कर उसीसे उसपर आघात किया, जिससे वह महादैत्य मुखसे रक्त वमन करता हुआ मर गया ॥ 

गोपगण की प्रशंसा

जम्भ के मरनेपर जैसे देवताओंने इन्द्रकी स्तुति की थी उसी प्रकार अरिष्टासुरके मरनेपर गोपगण श्रीजनार्दनकी प्रशंसा करने लगे ॥ 

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