वैराग्य
नित्यानित्यविवेकश्च इहामुत्र विरागता |
शमादिषट्कसंपत्तिर्मुमुक्षा तां समभ्यसेत् ||1||
पूर्वगत अध्यायों में विवेक वैराग्य आदि का समुच्चय रूप से कथन करा अब इस षष्ठे अध्याय में अन्तरंग साधनचतुष्ठय का अनुक्रम से कथन करते हैं।
वराहोपनिषद् में साधनचतुष्टय अनुक्रम से कहे हैं। नित्य और अनित्य वस्तु के विचार का नाम विवेक है। इस लोक और परलोक के विषयभोगों से वितृष्णा होने का नाम वैराग्य है। शम, दम, श्रद्धा, समाहितता, उपरति, तितिक्षा इनका नाम षट्संपत्ति है। मुक्त होने की इच्छा का नाम मुमुक्षुता है। इनके सम्पादन करने में सम्यक् अभ्यास करे ||1||
दुर्लभं प्राप्य मानुष्यं तत्रापि नरविग्रहम् ।
ब्राह्मण्यं च महा विष्र्णोर्वेदान्तश्रवणादिना ||2||
अतिवर्णाश्रमं रूपं सच्चिदानन्दलक्षणम् ।
यो न जानाति सोऽविद्वान् कदा मुक्तो भविष्यति ||3||
क्योंकि मनु की सन्तति स्त्री पुरुष रूप दुर्लभ मानुष्यता को प्राप्त होकर तिस में भी स्त्री की अपेक्षा से उत्तम पुरुष शरीर है। तिस में भी ब्रह्म की प्राप्ति के योग्य आरोग्य रूप ब्राह्मण शरीर को प्राप्त होकर जिसने वेदान्त शास्त्र के श्रवण आदि से सर्वव्यापी महाविष्णु के वर्णाश्रमों के सम्बन्ध से रहित, सर्व का आत्मा, सच्चिदानन्दस्वरूप को नहीं जाना है, सो विद्या से हीन पुरुष अज्ञान के कार्य इस संसारकारागृह से कब मुक्त होगा ||2||3||
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्येत्येवं रूपो विनिश्चयः ।
सोऽयं नित्यानित्यवस्तुविवेकः समुदाहृतः ।।4।।
विवेकचूड़ामणि में कहा है ब्रह्म त्रिकालाबाध्य रूप सत्य है और नाशवान् जगत् मिथ्या है। ऐसा जो निश्चय सो नित्य और अनित्य वस्तु का विचाररूप विवेक का लक्षण कहा है।।4।।
दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम् ।।5।।
योगदर्शन में पतञ्जलि भगवान् ने कहा है कि इस लोक के ये दृष्ट विषय हैं और शास्त्रों से श्रवण करने में जो आते हैं वे आनुश्रविक विषय कहे जाते हैं ! तिन सर्व विषयों की तृष्णा से रहित पुरुष का जो अनित्य दुःख रूप दोषदृष्टि से मन-इन्द्रियों को वश करना है जिसका नाम वशीकार संज्ञा वैराग्य है ||5||
तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम् ||6||
और सर्व प्राणियों में व्याप्त रूप जो पुरुष है तिसके ज्ञान से रहित यावत् त्रिगुणों का कार्य दुःखरूप प्रपञ्च है। तिससे तृष्णारहित हो जाने का नाम तीव्र रूप पर वैराग्य कहा जाता है ||6||
असङ्गो हायं पुरुषः ।।7।।
बृहदारण्यकोपनिषद् में पुरुष का लक्षण कहा है। सर्वं अविद्या आदि संगदोषों से रहित और सर्व का आत्मास्वरूप जो होवे उसका नाम पुरुष है! अथवा सर्व में पूर्ण होने से ब्रा का नाम पुरुष है तिसके ज्ञान से ही प्राणी पुरुष कहा जाता है। पुरुष के ज्ञान से ही प्राणी वैतृष्य होता है ||7||
हद्वैराग्यादपि दोषबीजक्षये कैवल्यम् ||8||
योगदर्शन में कहा है कि जिस काल में पुण्य आत्मा पुरुष को त्रिगुणात्मक विषय पदार्थों में तीव्र वैराग्य हो जाता है तिस तीव्र वैराग्य से राग रूप दोष के सहित अनर्थ के बीज अज्ञान के नाश होने पर पुरुष कैवल्य मोक्ष को प्राप्त होता है ।।8।।
शान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः समाहितो |
भूत्वाऽत्मन्येवात्मानं पश्येत् ||9||
बृहदारण्यकोपनिषद् में षट्संपत्ति का वर्णन इस प्रकार है कि शम, दम, उपरति, तितिक्षा, समाहितता, श्रद्धा, इस षट्संपत्ति साधनरूप विभूति से युक्त होकर के ही पुरुष यथार्थ शुद्ध आत्मबुद्धि निश्चित करके परमानन्द निजात्मस्वरूप को देख सकता है ||9||
सदैव वासनात्यागः शमोऽयमिति शब्दितः ।।
निग्रहो बाह्मवृत्तीनां दम इत्यभिधीयते ||10||
शंकर भगवान् षट्संपत्ति को अपरोक्षानुभूति में कहते हैं कि सर्वदा जो भोगपदार्थ विषयों की सूक्ष्म इच्छारूप वासनाओं का परित्याग है इसको मन का निरोध रूप शम कहा है। और इन्द्रियों की बाहर प्रवर्तनशील वृतियों का जो विषयों से निरोध रूप दमन करना है तिसका नाम दम कहा है ||10||
विषयेभ्यः परावृत्तिः परमोपरतिर्हि सा ।।
सहनं सर्वदुःखानां तितिक्षा सा शुभा मता ।।11।।
विषयों से अति उपराम होने का नाम उपरति है। और क्षुधा पिपासा शीत उष्ण आदि सर्व दुःखों का जो सहन करना है तिसका नाम शोभन तितिक्षा कहा है। आत्म विचारपूर्वक धन आदि की इच्छा से रहित होकर, जो सर्व दुःखों का सहना है तिसको शुभतितिक्षा कहा है ।।11।।
निगमाचार्यवाक्येषु भक्तिः श्रद्धेति विश्रुता ।।
चित्तैकाग्रयन्तु सल्लक्ष्ये समाधानमिति स्मृतम् ।।12।।
वेदशास्त्रों में और आचार्य के कल्याणकारी वाक्यों में जो विश्वास रूप भक्ति है। तिसका नाम श्रद्धा कहा है। और सत्यज्ञान आनन्द रूप तत् पद और त्वं पद के लक्ष्य आत्मस्वरूप ब्रह्म में जो चित्त की एकाग्रता रूप समाहितता है तिसका नाम शास्त्रों में समाधान कथन करा है ।।12।।
अहंकारादिदेहान्तान्बन्धानज्ञानकल्पितान् ।
स्वस्वरूपावबोधेन मोक्तुमिच्छा मुमुक्षुता ।।13।।
विवेकचूड़ामणि में कहा है कि अहंकार से आदि लेकर देहपर्यन्त अज्ञान से कल्पित जन्म मरण रूप संसार के बन्धनों को जीव ब्रह्म की एकता रूप आत्मस्वरूप ब्रह्म के अद्वैतज्ञान से नाश कर मुक्त होने की इच्छा का नाम मुमुक्षुता कहा है ।।13।।
अथातो ब्रह्मजिज्ञासेति च ।।14।।
उक्त विवेक सीतोपनिषद् की श्रुति का शारीरक भाष्य में यह अर्थ करा है कि पूर्व- वैराग्य षट् संपत्ति मुमुक्षुता रूप साधनचतुष्टय के विद्यमान होने पर तिससे पश्चात् ब्रह्मज्ञान की जिज्ञासा हो सकती है अन्यथा नहीं। ऐसा साधनचतुष्टय के अनन्तर अथ शब्द का अर्थ है। और अतः शब्द का अर्थ रूप यह है कि जिस हेतु से वेद अग्निहोत्रादि कर्मरूप साधनों के फलों की अनित्यता कहता है और आत्मस्वरूप ब्रह्म के अद्वैतज्ञान से ही नित्य परमानन्द परम पुरुषार्थ की प्राप्ति वेद कहता है तिस कारण से उक्त साधनचतुष्टय संपत्ति से अनन्तर जिज्ञासु को आत्म स्वरूप ब्रह्म ज्ञान की जिज्ञासा पूर्वक वेदान्त शास्त्रोक्त प्रकार से सच्चिदानन्द परब्रह्म का विचार अवश्य ही कर्त्तव्य है ||14||
जन्माद्यस्य यतः ।।15।।
ब्रह्मसूत्र में वेद व्यासजी ने ब्रह्म का लक्षण कहा है कि जिस सत्य ज्ञान आनन्द स्वरूप परमात्मा से इस त्रिगुणात्मिक प्रपञ्च का उदय स्थिति संहार होता है। सो उदय स्थिति भंग कैसा है जैसे समुद्र से ही तरंग आदि उत्पन्न होते हैं और समुद्र में ही स्थित रहते हैं तिस समुद्र में ही लय होते हैं। क्योंकि समुद्ररूप जल से भिन्न तरंग आदि कोई वस्तु सिद्ध नहीं हो सकती है।
तैसे ही यह प्रपञ्च ब्रह्म से ही उत्पन्न होता है, ब्रह्म में ही स्थित रहता है और तिस ब्रह्म में ही लय हो जाता है। तिस ब्रह्म से भिन्न प्रपञ्च की कोई सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती है तिस का नाम ब्रह्म है। कर्म और ध्यान करना न करना वा अन्यथा करना रूप होने से पुरुष के आधीन है। और ज्ञान वेदशास्त्र आदि प्रमाणों द्वारा वस्तु के अधीन है ||15||
नावेदविन्मनुते तं बृहन्तं नाब्रह्मवित्परमं प्रेति धामम् ।।16।।
शाट्यायनीयोपनिषद् में कहा है कि वेदशास्त्र के ज्ञान से बिना पुरुष तिस व्यापक ब्रह्म को नहीं जान सकता है। और तिस विभु आत्मस्वरूप अद्वितीय ब्रह्म के ज्ञान से बिना अनुपरावृत्ति परमधाम रूप कैवल्य मोक्ष को प्राप्त नहीं हो सकता है। और चक्षु आदि अन्य प्रमाणों से अज्ञात वस्तु का शास्त्र प्रमाण ही ज्ञापक है। इस कारण से ब्रह्मज्ञान में वेदान्त शास्र ही प्रमाण है।।16।।
परीक्ष्य लोकान्कर्मचितान्ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन ।
तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ।।17।।
मुण्डकोपनिषद् में कहा है कि ब्रह्मप्राप्ति की इच्छा वाला त्रैवर्णिक पुरुष यज्ञादि कर्मों से सम्पादित फलरूप स्वर्ग आदि लोकों को शास्त्र और अनुमान आदि से नाशवान् जानकर तिन कर्मरचित नाशवान् लोकों से वैराग्य को प्राप्त होवे। क्योंकि नित्य अक्रियरूप मोक्ष कृतरूप कर्मों से प्राप्त नहीं हो सकता है। तिस परमानन्द आत्मस्वरूप अद्वय ब्रह्मज्ञान के लिये सो जिज्ञासु पुरुष फल, फूल, दन्त धावन आदि कुछ भेंट हाथ में लेकर अर्थ सहित वेद-अधीत और ब्रह्म में निष्ठा वाला जो श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ गुरु तिस गुरु की शरण को श्रद्धाभक्तिपूर्वक से प्राप्त होवे ।।17।।
आदौ शमदमप्रायैर्गुणैः शिष्यं विशोधयेत् ।
पश्चात्सर्वमिदं ब्रह्म शुद्धस्त्वमिति बोधयेतद् ।।18।।
महोपनिषद् में कहा है कि प्रथम गुरु शरण में आये हुए शिष्य को युक्त साधन चतुष्टय को भी शम दम आदि शुभ गुणों से शिक्षा देकर शोधन करे। पश्चात् अधिकारी जानकर पांच कोश और त्रिविध शरीर का विवेचन कराकर कहे कि हे शिष्य यह जो सर्व प्रथम देखने में आता है सो सर्व ब्रह्म रूप है और तुम भी शुद्ध ब्रह्म स्वरूप हो ऐसा बोधन करे ।।18।।
तस्मै स विद्वानुपसन्नाय सम्यक्प्रशान्तचित्ताय शमान्विताय ।
येनाक्षरं पुरुषं वेद सत्यं प्रोवाच ता तत्त्वतो ब्रह्म विद्याम् ||19||
मुण्डकोपनिषद् में कहा है कि ब्रह्मवित् गुरु शास्त्रोक्त विधि से समीप आये हुये तिस शिष्य के प्रति दर्प आदि दोषों से रहित प्रशान्तचित्त, सर्व भोग पदार्थों से विरक्त के प्रति तिम वेदान्तरूप ब्रह्मविद्या का उपदेश करे जिस अद्वैतबोधक ब्रह्मविद्या से नाशरहित अक्षर रूप ब्रह्म को सर्व प्राणीरूप पुरों में व्यापक रूप से स्थित पुरुष परमात्मा त्रिकालाबाध्य से रहित सच्चिदानन्द ब्रह्मात्मस्वरूप वास्तव तत्व को शिष्य जान ले, तिसी रीति से उपदेश करे ।।19।।
विरक्तस्य तु संसाराज्ज्ञानं कैवल्यसाधनम् ।
तेन पापहानिः स्याज्ज्ञात्वा देवं सदाशिवम् ।।20।।
जाबालदर्शनोपनिषद् में कहा है कि वेदांत रूप अद्वैत ब्रह्मविद्या में विरक्त का ही अधिकार है और सांसारिक विषयों से विरक्त महात्मा को ही ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैतज्ञान कैवल्य मोक्ष का साधन है, दूसरे को नहीं । तिस ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत ज्ञान से सदा एकरस प्रकाशरूप ब्रह्म को जानकर अज्ञान रूप सर्व पाप का नाश हो जाता है ||20||
यदा विवेकी पुरुषो भोगान्संत्यज्य तिष्ठति ।
तदा पलायतेऽज्ञानं छिन्ने वृक्षे पिशाचवत् ।।21।।
योगवासिष्ठ में कहा है कि जिस काल में विवेकी पुरुष सांसारिक विषयभोगों को सर्वप्रकार से त्यागकर ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैतचिन्तन में स्थित होता है तिस काल में उसका अज्ञान ऐसे भाग जाता है जैसे वृक्ष के छेदन करने पर वृक्ष पर रहने वाला पिशाच भाग जाता है ||21||
न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानुशः ।।22।।
कैवल्योपनिषद् में कहा है कि न श्रौत स्मार्त कर्मों से न पुत्र से और न लौकिक पारलौकिक धन से पुरुष अमृतत्वरूप मोक्ष को प्राप्त होता है। केवल विषयभोगों के त्याग पूर्वक श्रौत स्मार्त निखल कर्मों के त्याग से ही पुरुष अमृतत्व मोक्ष को प्राप्त होता है ||22||
एतद्ध स्म वै तत्पूर्वे विद्वांसः प्रजां न कामयन्ते किं ।
प्रजया करिष्यामो येषां नोऽयमात्माऽयं लोकः ||23||
वृहदारण्यकोपनिषद् में कहा है कि पूर्वकाल के प्रसिद्ध विद्वान् आत्मवेत्ता पुत्र और संसारिक फल देने वाले कर्म और धन आदि की कामना नहीं करा करते थे। क्योंकि जिन परमार्थदर्शियों का हमारा नित्यसमीपवर्ती ब्रह्मस्वरूप आत्मा ही परम पुरुषार्थरूप लोक है, तो हमारे को दुःखरूप पुत्र आदि से क्या करना है ।। 23।।
वीतरागजन्मादर्शनात् ||24||
न्यायदर्शन में कहा है कि त्रिगुणात्मक संसार के विषयों से वीतराग पुरुष का जन्म कहीं शास्त्र में न देखा जाने से सराग का ही जन्म होता है वीतराग का पुनः जन्म नहीं होता ||24||
समासक्तं यथाचित्तं जन्तविषयगोचरे ।
यद्येवं ब्रह्माणि स्यात्तत्को न मुचेत बन्धनात् ||25||
मैत्रायन्युपनिषद् में कहा है कि जैसे प्राणी का चित्त संसार के विषयों में सर्व प्रकार से आसक्त रहता है। ऐसा यदि आत्मस्वरूप ब्रह्म में पुरुष का चित्त आसक्त हो जाये तब कहो कौन प्राणी संसार के बन्धनों से मुक्त न होए अर्थात् अवश्य ही मुक्त हो जाता है ||25||
देहात्मज्ञानवज्ज्ञानं देहात्मज्ञानबाधकम् ।
आत्मन्येव भवेद्यस्य स नेच्छन्नपि मुच्यते ||26||
वराहोपनिषद् में कहा है कि अज्ञानियों का देह में निश्चित देहात्मबुद्धि के समान यदि ऐसा ही देहात्मबुद्धि का बाधक निजात्मा में ब्रह्मात्मस्वरूप निश्चित ज्ञान हो गया है। जिसको सो ब्रह्मात्मस्वरूप निश्चित ज्ञानवाला पुरुष न इच्छा करने पर भी कार्य प्रपंच के सहित अज्ञानरूप बन्धन से अवश्य ही मुक्त हो जाता है ||26||
तदेतत्सत्यं यथा सुदीप्तात्पावकाद्विस्फुलिङ्गाः सहस्रशः प्रभवन्ते सरूपाः ।
तथाक्षराद्विविधाः सोम्यभावाः प्रजायन्ते तत्र चैवापियन्ति ।।27।।
मुण्डकोपनिषद् में कहा है कि सो सर्व का आत्मा श्रुति-शास्त्र- उक्त और आत्मवेत्ताओं के अनुभवसिद्ध त्रिकालाबाधित सत्यस्वरूप ब्रह्म है सो ऐसे निज आत्मरूप से जाना जाता है कि जैसे प्रचण्ड प्रज्ज्वलित अग्नि से हजारों ही अग्नि के समान प्रकाश रूपवाले चिनगारे उत्पन्न होते हैं। तैसे ही हे सौम्य प्रिय ! नाशरहित अक्षर परमात्मा रूप ब्रह्म से माया द्वारा भिन्न नानादेह उपाधियों के भेद से भिन्न-भिन्न देव असुर मनुष्य रूप से शरीर उत्पन्न होते हैं। और तिस अविनाशी अक्षररूप ब्रह्म में ही ब्रह्म स्वरूप जीवात्मा ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वयज्ञान से अविद्या उपाधि के नाश होने पर एकता रूप को प्राप्त होते हैं ।।27।।
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दष्टे परावरे ||28||
मुण्डकोपनिषद् में कहा है कि पर नाम वाले ये ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि भी निकृष्ट हैं जिस शुद्ध ब्रह्म से तिस विभु ब्रह्म के आत्मास्वरूप से साक्षात् होने पर इस विद्वान् पुरुष के जन्म आदि देने वाले संचित् आगामी सर्व कर्म नाश हो जाते हैं। और चेतन के साथ अहंकार की परस्पर तादात्म्याध्यास रूप हृदय की ग्रन्थि भी भेदन हो जाती है और ज्ञेयरूप आत्मा में नाना प्रकार के संशय भी नाश हो जाते हैं ।।28।।
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।
बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं मनः ||29||
ब्रह्मबिन्दूपनिषद् में कहा है कि मन ही निश्चय रूप से पुरुषों को बन्ध और कैवल्य मोक्ष का कारण है । संसार के भोग पदार्थ विषयों में दृढ़ राग वाला मन पुरुषों को बन्धन का कारण है और विषयों से विरक्त मन, पुरुषों को मुक्ति का कारण है ।।29।।
मन एव मनुष्यस्य पूर्वरूपाणि शंसति ।
भविष्यतश्च भद्रं ते तथैव न भविष्यतः ||30||
भागवत् में कहा है कि शुद्ध-अशुद्ध मन ही पुरुष के पूर्व जन्म के शुभ-अशुभ भावों को सूचित कर देता है। यहाँ शास्त्र चिन्तन आदि शुभकार्यों से सूचित हो जाता है कि यह पुरुष पूर्वजन्म में भी शास्त्रविचार आदि शुभविचार वाला था, ऐसा जाना जाता है और भविष्यत्काल के शुभ कल्याण के होने को भी सदाचारी ज्ञान के साधनयुक्त मन ही सूचित करता है तैसे ही दुर्गति नरक आदि की प्राप्ति को भी शास्त्रविरुद्ध दुराचरण में राग वाला हुआ मन ही सूचित कर देता है ||30||
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ।।31।।
गीता में कहा है कि हे कृष्ण ! मन अति चंचल है तिस का रोकना वायु के समान दुर्घट है। ऐसे अर्जुन के प्रश्न करने पर कृष्णचन्द्र भगवान् उत्तर कहते हैं कि हे महाबाहो कुन्ती पुत्र ! जो आपने कहा कि चंचल मन का निरोध करना दुर्घट है इसमें कोई संशय नहीं। परन्तु संसारी विषयों में नाशवान् दुःखकारी दोषदृष्टि रूप वैराग्य से और ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत के पुनः पुनः चिन्तन रूप अभ्यास से मन ऐसे वश में हो जाता है जैसे दो अङ्कुश के परिहार से हस्ती वश में आ जाता है ।।31।।
शुभाशुभाभ्यां मार्गाभ्यां वहन्ती वासनासरित् ।
पौरुषेणा प्रयत्नेन योजनीया शुभे पथि ||32||
मुक्तिकोपनिषद् में श्री रामचन्द्रजी ने हनुमानजी से कहा है कि पुरुष की वासना रूप नदी शास्त्रनुसाराचरण रूप शुभ मार्ग और शास्त्रनिषिद्ध दुराचरण रूप अशुभ मार्ग इन दो मार्गों से बहती है। तिस वासना रूपी नदी के शास्त्रनिषिद्ध मार्ग को पुरुष शास्त्रभ्यास रूप प्रयत्न से रोककर ब्रह्मात्मस्वरूप चिन्तन शुभ मार्ग में वासना रूप नदी के प्रवाह को जोड़े ||32||
जन्मान्तरशताभ्यस्ता मिथ्यासंसारवासना ।
सा चिराभ्यासयोगेन विना न क्षीयते क्वचित् ||33||
हनुमानजी ने श्री रामचन्द्रजी से कहा भो भगवन् श्री रामचन्द्रजी ! ये लोक शास्त्रश्रवण आदि को पुनः पुनः किस प्रयोजन से करते हैं। श्री रामचन्द्रजी ने कहा हे हनुमन् ! प्राणी के पूर्व असंख्यात जन्मों के धन पुत्र स्त्री देह आदि मिथ्या प्रपंच में ममता अहंता बुद्धि से पुनः पुनः अभ्यास करके अन्तःकरण में पूर्ण रूप से स्थित ये वासना रूप संस्कार हैं। वे वासना रूप संस्कार चिरकाल तक एक रस ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत के अभ्यास और दुःखकारी द्वैत रूप प्रपंच से चित्तवृत्ति के निरोधरूप योग से बिना नाश नहीं होते हैं। इस हेतु से बुद्धिमान् जिज्ञासु संसार से मुक्त होने की इच्छा वाले पुरुष पुनः पुनः शास्त्रश्रवण आदि करते हैं ||33||
संत्यक्तवासनान्मौनादृते नास्त्युत्तमं पदम् ।।34।।
संसारी विषयों की सर्व वासना त्यागे बिना और सत्य प्रिय परिमित भाषण रूप मौन से बिना ब्रह्मात्मस्वरूप उत्तम पद की प्राप्ति नहीं होती है ||34||
अव्युत्पन्नमनो यावद्भवानज्ञाततत्पदः ।
गुरुशास्त्रप्रमाणैस्तु निर्णीतं तावदाचर ||35||
श्री रामचंद्रजी कहते हैं कि हे हनुमन् । जब तक आप वेदान्तशास्त्र के बोधयुक्त मनन होने से ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वय पद को नहीं जानते हो । तब तक श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ गुरु के मुख द्वारा वेदान्त शास्त्रों के प्रमाणों द्वारा ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत का पुनः पुनः अभ्यास करो ||35||
यावच्छीरादिषु माययाऽऽत्मधीस्तावद्विधेयो विधिवादकर्मणाम् |
नेतीति वाक्यैरखिलं निषिध्य तज्ज्ञात्वा परात्मानमथ त्यजेत्क्रियाः ||36||
रामगीता में श्री रामचन्द्र परमानन्द लक्ष्मण से कहते हैं हे रघुवंश मणि लक्ष्मण ! जब तक अन्नमय शरीरादि पंचकोशों में अज्ञान करके पुरुष की आत्मबुद्धि है तावत्काल पर्यन्त ही पुरुष के प्रति वेद अर्थवाद रूप विधिवाक्य कर्मों के करने का रुचिपूर्वक विधान करते हैं जब नेति नेति ऐसे वेद के वाक्यों से अन्नमय शरीर आदि पंचकोशों में आत्मत्व का निषेध पुरुष निश्चित कर ले और अद्वैतबोधक वेद के महावाक्यों से तिस परमानन्द परमात्मा परब्रह्म को निजात्मरूप जानकर विद्वान् पश्चात् कर्मक्रियाजाल का परित्याग कर दे ||36||
वासनायास्तथा वह्नेर्ऋणव्याधिद्विषामपि ।
स्नेहवैरविषाणां च शेषः स्वल्पोऽपि बाधते ।।37।।
अन्नपूर्णोपनिषद् में कहा है कि वासना का तथा अग्नि का और ऋण का, व्याधि का और शत्रुओं का, राग का, बैर का और विष का इन सर्व का अति अल्प भाग भी शेष रहा हुआ महान् बाधा करने वाला हो जाता है इस कारण से इन वासना आदि सर्व का मूल से ही नाश करना उचित है ||37||
मोक्षद्वारे द्वारपालाश्चत्वारः परिकीर्तिताः ।
शमो विचारः संतोषश्चतुर्थः साधुसंगमः ||38||
महोपनिषद् में कहा है कि प्राणी को मोक्षप्राप्ति के द्वार रूप ब्रह्मत्मस्वरूप अद्वैत ज्ञान के संपादन करने में साधन रूप चार द्वारपाल कथन करे हैं। एक तो इन्द्रियों के सहित मन का विषयों से निरोध रूप शम 1 । दूसरा ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत का विचार 2। तीसरा यथालाभ वस्तु में संतोष 3। चतुर्थ शास्त्रवेता वीतराग साधु महात्माओं का संग 4। यह मोक्ष के साधन रूप चार द्वारपाल हैं ||38||
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ||39||
योगदर्शन में कहा है कि चित्त की वृत्तियों का विषयों में दोषदृष्टि पूर्वक निरोध का नाम योग है। तिसको ही वेदान्त शास्र में शम कहा है ||39||
ययाऽचिरात्सर्वपापं व्यपोह्य ब्रह्मविद्यां लब्ध्वैश्वर्यवान्भवति ||40||
हयग्रीवोपनिषद् में कहा है कि जिस चित्तवृत्ति के निरोध से शीघ्र ही सर्व पापों का नाशकर ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत ज्ञान रूप ब्रह्मविद्या को प्राप्त करके पुरुष जीवन्मुक्ति के आनन्द रूप महान ऐश्वर्य वाला हो जाता है तिस विद्या को अवश्य ही संपादन करना चाहिए ||40||
निषेधनं प्रपञ्चस्य रेचकाख्यः समीरितः ।
ब्रह्मैवास्मीति या वृतिः पूरको वायुरुच्यते ।।41।।
तेजो बिन्दूपनिषद् में विद्वान विवेकी पुरुषों का प्राणायाम ऐसा कहा है कि शुद्ध आत्मस्वरूप ब्रह्म में से कल्पित प्रपञ्च का निषेध करना रूप रेचक कहा है और ब्रह्म मैं हूँ ऐसी जो निश्चयात्मक चित्त की वृत्ति है उसका नाम पूरक वायु कहा जाता है ।। 41।।
ततस्तद्वृत्तिनैश्चल्यं ‘कुम्भकः प्राणसंयमः ।
अयं चापि प्रबुद्धानामज्ञानां घ्राणपीडनम् ||42||
तिस रेचक पूरक के अभ्यास से जो चित्तवृत्ति का ब्रह्मात्मस्वरूप से निश्चलीभाव है उसका नाम कुम्भक है। यह प्राणायाम तो बुद्धिमान विवेकियों का है। और इससे अतिरिक्त विचारहीन अज्ञानियों का प्राणायाम नाक को पीडन करना रूप है ||42||
देहेन्द्रयेषु वैराग्यं यम इत्युच्यते बुधैः ।
अनुरक्ति: परे तत्त्वे सततं नियमस्मृतः ||43||
त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद् में विद्वान् विवेकी पुरुषों के करने का अष्टांग योग ऐसे कहा है कि अति अपवित्र देहेन्द्रयों में भी घृणारूप जो वैराग्य है इसका नाम बुद्धिमान् ऋषियों ने यम कहा है। ब्रह्मात्मस्वरूप परमतत्त्व में सदा जो एकरस प्रीति इस का नाम नियम कहा है ।।43।।
सर्ववस्तुन्युदासीनभावमासनमुत्तमम् |
जगत्सर्वमिदं मिथ्याप्रतीतिः प्राणसंयमः ||44||
सर्ववस्तुओं में जो पुरुष का उदासीन भाव है उसका नाम ही उत्तम आसन कहा है और जो सर्व यह दृश्यमान प्रपंच है सो मिथ्या ऐसे निश्चय ज्ञान का नाम प्राणायाम है ||44||
चित्तस्यान्तर्मुखीभावः प्रत्याहारस्तु सत्तम ।
चित्तस्य निश्चलीभावधारणा धारणं विदुः ||45||
चित्त का जो प्रत्यक् आत्माकार अन्तर्मुखी करना है तिसका नाम श्रेष्ठ प्रत्याहार है और ब्रह्मात्मस्वरूप में चित्त की निश्चलीभाव से जो धारणा है तिसको धारणा कहते हैं ||45||
सोऽहं चिन्मात्रमेवेति चिन्तनं ध्यानमुच्यते ।
ध्यानस्थ विस्मृतिः सम्यक्समाधिरभिधीयते ||46||
सो जो परमानन्द परब्रह्म है सो चेतन रूप मैं हूँ इस प्रकार के चिन्तन का नाम ध्यान कहा है और ऐसे ध्यान की विस्मृति करके केवल ब्रह्मात्मस्वरूप से सम्यक् जो स्थिति है तिस का नाम ऋषियों ने समाधि विधान करा है ||46||
सलिले सैंधवं यद्वत्साम्यं भवति योगतः ।
तथात्ममनसोरैक्यं समाधिरभिधीयते ।।47।।
सौभाग्यलक्ष्म्युपनिषद् में कहा है कि जैसे जल में डाला हुआ सैन्धव (नमक) का ढेला जल के साथ योग होने से जल रूप ही हो जाता है तैसे ही विषयों से निरोध कर एक ब्रह्मात्मस्वरूप के योग से आत्मा और मन की जो एक रूपता है तिसका नाम समाधि कहा है। यह विद्वान ज्ञानियों का अष्टांग योग है ।।47।।
नित्याभ्यसनशीलस्य सुसंवेद्यं तु तद्भवेत् ।
तत्सूक्ष्मत्वादनिर्देश्यं परं ब्रह्म सनातनम् ।।48।।
दक्षस्मृति में कहा है कि सदा एकरस ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत के अभ्यासशील पुरुष को अतिसूक्ष्म होने से मन वाणी का अविषय हुआ भी सनातन पर आत्मरूप से सुखपूर्वक ही साक्षात् हो जाता है ||48||
उदासीनस्ततो भूत्वा सदाभ्यासेन संयमी ।
उन्मनीकारकं सद्यो नादमेवावधारयेत् ।।49।।
नादबिन्दूपनिषद् में कहा है कि उत्कृष्ठ ब्रह्मात्मस्वरूप में स्थिति वाला उदासीन तिन विषयों से उपराम होकर सदा आत्माभ्यास से संयमी पुरुष मन को स्थिरीभाव कर शीघ्र ही अनात्म प्रत्ययों से रहित ब्रह्मात्मस्वरूप नाद को निश्चित ही धारण करे ||49||
उदासीना वयं नूनं न स्त्र्यपत्यार्थकामुकाः ।
आत्मलब्ध्याऽऽस्महे पूर्णा गेहयोज्योंतिरक्रियाः ।।50।।
भागवत में कृष्णचन्द्र परमानन्द ने पादपद्मों की सेवा करती हुई रूक्मणी से कहा कि हे भद्रेरुक्मणि ! ये तुम्हारी अति कामना वाले शिशुपाल आदि राजे हैं तिनके पास में जाओ क्योंकि हम तो निश्चित ही सर्व अनात्मरूप देह गेह में उदासीन हैं। स्त्रियों और पुत्र धन आदियों की कामना वाले हम नहीं हैं। क्योंकि उत्कृष्ट आत्मा में स्थिति होने के कारण से हम निजात्मलाभ से ही पूर्ण हैं। प्रकाशमान दीपक के समान साक्षी रूप से क्रिया रहित हुए स्थित हैं। आत्मलाभ से पूर्ण रूप हैं इस प्रकार से श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दजी ब्रह्मवेत्ता उदासीनों की स्थिति को बोधन करते हैं ||50||
निमिषार्धं न तिष्ठन्ति वृत्तिं ब्रह्ममयीं विना ।
यथा तिष्ठन्ति ब्रह्माद्याः सनकद्याः शुकादयः ||51||
तेजोबिन्दूपनिषद् में कहा है कि ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत के ज्ञाता पुरुष ब्रह्मस्वरूप आकार वृत्ति से बिना अर्ध निमिष भी स्थित नहीं होते हैं जैसे ब्रह्मलोक वासी ब्रह्मा आदि सर्वदा शुद्ध ब्रह्मस्वरूप में स्थित रहते हैं और जैसे ब्रह्मा के पुत्र सनत्कुमार और सनकसनन्दन आदि सदा एक रस शुद्ध ब्रह्मस्वरूप में स्थित होते हैं और जैसे वेदव्यास के पुत्र परमहंस वीतराग शुकदेव आदि सर्वदा ही ब्रह्मात्मस्वरूप में स्थित रहते हैं। ऐसी अद्वैतवादी ब्रह्मवेत्ताओं की स्थिति कही है ।।51।।
अज्ञानज्वरमुक्तस्य बोधशीतलितात्मनः ।
एतदेव भवेच्चिह्नं यद्भोगाम्बु न रोचते ||52||
योगवासिष्ठ में वसिष्ठजी ने कहा है हे राम! जैसे ज्वरयुक्त प्राणी को जल की प्यास बनी ही रहती है। यदि निपुण वैद्य की औषधि से ज्वर निवृत्त हो जाए तो रोगी को शान्ति आ जाती है। तैसे ही अज्ञानयुक्त प्राणी को अज्ञानज्वररूप दाह के कारण से भोगों के भोगने की आशारूपी प्यास सर्वदा बनी ही रहती है। श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ गुरु के ब्रह्मात्म- ऐक्य रूप बोधामृत-औषधि के उपदेश से शीतलचित्त का अनर्थप्रद अज्ञानरूप ज्वर से मुक्त ब्रह्मवेत्ता का यह ही एक चिह्न है कि भोगपदार्थ रूप जल फिर ब्रह्मवेत्ता को रुचता नहीं। क्योंकि बाजीगर के बनाए हुए मिथ्या मिष्ठान्नादि पदार्थ बुद्धिहीन बालक के बिना किसी भी मनुष्य को खाने के लिये रुचि जनक नहीं होते हैं ||52||