व्यासजी और उनके शिष्य
व्यासजीके शिष्य वैशम्पायनने यजुर्वेदरूपी वृक्षकी सत्ताईस शाखाओंकी रचना की ; और उन्हें अपने शिष्योंको पढ़ाया तथा शिष्योंने भी क्रमशः ग्रहण किया ॥ उनका एक परम धार्मिक और सदैव गुरुसेवामें तत्पर रहनेवाला शिष्य ब्रह्मरातका पुत्र याज्ञवल्क्य था ॥
महामेरु पर मुनियों की सभा और ब्रह्महत्या व्रत
[ एक समय समस्त ऋषिगणने मिलकर यह नियम किया कि ] जो कोई महामेरुपर स्थित हमारे इस समाजमें सम्मिलित न होगा उसको सात रात्रियोंके भीतर ही ब्रह्महत्या लगेगी ॥ इस प्रकार मुनियोंने पहले जिस समयको नियत किया था उसका केवल एक वैशम्पायनने ही अतिक्रमण कर दिया ॥ इसके पश्चात् उन्होंने [ प्रमादवश ] पैरसे छूए हुए अपने भानजेकी हत्या कर डाली ; तब उन्होंने अपने शिष्योंसे कहा – ‘ हे शिष्यगण ! तुम सब लोग किसी प्रकारका विचार न करके मेरे लिये ब्रह्महत्याको दूर करनेवाला व्रत करो ॥
याज्ञवल्क्य का विद्रोह और नई शाखाओं का सृजन
इससे गुरु वैशम्पायनजीने क्रोधित होकर महामुनि याज्ञवल्क्यसे कहा- ” अरे ब्राह्मणोंका अपमान करनेवाले ! तूने मुझसे जो कुछ पढ़ा है , वह सब त्याग दे ॥ तू इन समस्त द्विजश्रेष्ठोंको निस्तेज बताता है , मुझे तुझ – जैसे आज्ञा भंगकारी शिष्यसे कोई प्रयोजन नहीं है ” ॥ याज्ञवल्क्यने कहा— मैंने तो भक्तिवश आपसे ऐसा कहा था , मुझे भी आपसे कोई प्रयोजन नहीं है ; लीजिये , मैंने आपसे जो कुछ पढ़ा है वह यह मौजूद है ” ॥ ऐसा कह महामुनि याज्ञवल्क्यजीने रुधिरसे भरा हुआ मूर्तिमान् यजुर्वेद वमन करके उन्हें दे दिया ; और स्वेच्छानुसार चले गये ॥ याज्ञवल्क्यद्वारा वमन की हुई उन यजुः श्रुतियोंको अन्य शिष्योंने तित्तिर ( तीतर ) होकर ग्रहण कर लिया , इसलिये वे सब तैत्तिरीय कहलाये ॥
याज्ञवल्क्य का तप और सूर्यदेव की कृपा
जिन विप्रगणने गुरुकी प्रेरणासे ब्रह्महत्या विनाशकव्रतका अनुष्ठान किया था , वे सब व्रताचरणके कारण यजुःशाखाध्यायी चरकाध्वर्यु हुए ॥ तदनन्तर याज्ञवल्क्यने भी यजुर्वेदकी प्राप्तिकी इच्छासे प्राणोंका संयम कर संयतचित्तसे सूर्यभगवान्की स्तुति की ॥ याज्ञवल्क्यजी बोले- अतुलित तेजस्वी , मुक्तिके द्वारस्वरूप तथा वेदत्रयरूप तेजसे सम्पन्न एवं ऋक् , यजुः तथा सामस्वरूप सवितादेवको नमस्कार है ॥
जो अग्निऔर चन्द्रमारूप , जगत्के कारण और सुषुम्न नामक परमतेजको धारण करनेवाले हैं , उन भगवान् भास्करको नमस्कार है ॥ कला , काष्ठा , निमेष आदि कालज्ञानके कारण तथा ध्यान करनेयोग्य परब्रह्मस्वरूप विष्णुमय श्रीसूर्यदेवको नमस्कार है ॥ जो अपनी किरणोंसे चन्द्रमाको पोषित करते हुए देवताओंको तथा स्वधारूप अमृतसे पितृगणको तृप्त करते हैं , उन तृप्तिरूप सूर्यदेवको नमस्कार है ॥
जो हिम , जल और उष्णताके कर्ता [ अर्थात् शीत , वर्षा और ग्रीष्म आदि ऋतुओंके कारण ] हैं और [ जगत्का ] पोषण करनेवाले हैं , उन त्रिकालमूर्ति विधाता भगवान् सूर्यको नमस्कार है ॥ जो जगत्पति इस सम्पूर्ण जगत्के अन्धकारको दूर करते हैं , उन सत्त्वमूर्तिधारी विवस्वान्को नमस्कार है ॥ जिनके उदित हुए बिना मनुष्य सत्कर्ममें प्रवृत्त नहीं हो सकते और जल शुद्धिका कारण नहीं हो सकता , उन भास्वान्देवको नमस्कार है ॥
जिनके किरण – समूहका स्पर्श होनेपर लोक कर्मानुष्ठानके योग्य होता है , उन पवित्रताके कारण , शुद्धस्वरूप सूर्यदेवको नमस्कार है ॥ भगवान् सविता , सूर्य , भास्कर और विवस्वान्को नमस्कार है ; देवता आदि समस्त भूतोंके आदिभूत आदित्यदेवको बारम्बार नमस्कार है ॥ जिनका तेजोमय रथ है , [ प्रज्ञारूप ] ध्वजाएँ हैं , जिन्हें [ छन्दोमय ] अमर अश्वगण वहन करते हैं तथा जो त्रिभुवनको प्रकाशित करनेवाले नेत्ररूप हैं , उन सूर्यदेवको मैं नमस्कार करता हूँ ॥
उनके इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवान् सूर्य अश्वरूपसे प्रकट होकर बोले- ‘ तुम अपना अभीष्ट वर माँगो ‘ ॥ तब याज्ञवल्क्यजीने उन्हें प्रणाम करके कहा— “ आप मुझे उन यजुः श्रुतियोंका उपदेश कीजिये जिन्हें मेरे गुरुजी भी न जानते हों ‘ ‘ ॥ उनके ऐसा कहनेपर भगवान् सूर्यने उन्हें अयातयाम नामक यजुः श्रुतियोंका उपदेश दिया जिन्हें उनके गुरु वैशम्पायनजी भी नहीं जानते थे ॥
वाजिश्रुतियों की शाखाएँ
उन श्रुतियोंको जिन ब्राह्मणोंने पढ़ा था वे वाजी नामसे विख्यात हुए क्योंकि उनका उपदेश करते समय सूर्य भी अश्वरूप हो गये थे ॥ उन वाजिश्रुतियोंकी काण्व आदि पन्द्रह शाखाएँ हैं ; वे सब शाखाएँ महर्षि याज्ञवल्क्यकी प्रवृत्त की हुई कही जाती हैं ॥