व्रजवासियों के साथ श्री कृष्ण लीलामृत
एक दिन छकड़े के नीचे सोये हुए मधुसूदन ने दूध के लिये रोते रोते ऊपर को लात मारी ॥ उनकी लात लगते ही वह छकड़ा लोट गया, उसमें रखे हुए कुम्भ और भाण्ड आदि फूट गये और वह उलटा जा पड़ा ॥ हे द्विज ! उस समय हाहाकार मच गया, समस्त गोप-गोपीगण वहाँ आ पहुँचे और उस बालक को उतान सोये हुए देखा ॥ तब गोपगण पूछने लगे कि ‘इस छकड़े को किसने उलट दिया, किसने उलट दिया?’ तो वहाँ पर खेलते हुए बालकों ने कहा – ” इस कृष्ण ने ही गिराया है ॥ हमने अपनी आँखों से देखा है कि रोते-रोते इसकी लात लगने से ही यह छकड़ा गिरकर उलट गया है। यह और किसीका काम नहीं है ” ॥
यह सुनकर गोपगण के चित्त में अत्यन्त विस्मय हुआ तथा नन्दगोप ने अत्यन्त चकित होकर बालक को उठा लिया ॥ फिर यशोदा ने भी छकड़े में रखे हुए फूटे भाण्डों के टुकड़ों की और उस छकड़ेकी दही, पुष्प, अक्षत और फल आदि से पूजा की ॥
इसी समय वसुदेव जी के कहने से गर्गाचार्यने गोपों से छिपे-छिपे गोकुल में आकर उन दोनों बालकों के [द्विजोचित] संस्कार किये ॥ उन दोनोंके नामकरण-संस्कार करते हुए महामति गर्ग जी ने बड़े का नाम राम और छोटे का कृष्ण बतलाया ॥
कृष्ण बालक
हे विप्र ! वे दोनों बालक थोड़े ही दिनों में गौओं के गोष्ठ में रेंगते-रेंगते हाथ और घुटनोंके बल चलनेवाले हो गये ॥ गोबर और राख-भरे शरीरसे इधर-उधर घूमते हुए उन बालकों को यशोदा और रोहिणी रोक नहीं सकती थीं ॥ कभी वे गौओंके घोषमें खेलते और कभी बछड़ों के मध्यमें चले जाते तथा कभी उसी दिन जन्मे हुए बछड़ोंकी पूँछ पकड़कर खींचने लगते ॥
एक दिन जब यशोदा, सदा एक ही स्थानपर साथ- साथ खेलने वाले उन दोनों अत्यन्त चंचल बालकों को न रोक सकी तो उसने अनायास ही सब कर्म करनेवाले कृष्ण को रस्सी से कटिभाग में कसकर ऊखल में बाँध दिया और रोषपूर्वक इस प्रकार कहने लगी ॥ “ अरे चंचल ! अब तुझमें सामर्थ्य हो तो चला जा।” ऐसा कहकर कुटुम्बिनी यशोदा अपने घरके धन्धे में लग गयी ॥
यमलार्जुन वृक्ष उखाड़ना
उसके गृहकार्य में व्यग्र हो जाने पर कमलनयन कृष्ण ऊखलको खींचते-खींचते यमलार्जुन के बीच में गये ॥ उन दोनों वृक्षों के बीच में तिरछी पड़ी हुई ऊखल को खींचते हुए उन्होंने ऊँची शाखाओं वाले यमलार्जुन वृक्ष को उखाड़ डाला ॥ तब उनके उखड़ने का कट-कट शब्द सुनकर वहाँ व्रजवासी लोग दौड़ आये और उन दोनों महावृक्षों को तथा उनके बीच में कमर में रस्सी से कसकर बँधे हुए बालक को नन्हें-नन्हें अल्प दाँतों की श्वेत किरणोंसे शुभ्र हास करते देखा। तभीसे रस्सीसे बँधनेके कारण उनका नाम दामोदर पड़ा ॥
तब नन्दगोप आदि समस्त वृद्ध गोपोंने महान् उत्पातों के कारण अत्यन्त भयभीत होकर आपस में यह सलाह की॥
‘अब इस स्थानपर रहनेका हमारा कोई प्रयोजन नहीं है, हमें किसी और महावनको चलना चाहिये, क्योंकि यहाँ नाशके कारणस्वरूप, पूतना वध, छकड़ेका लोट जाना तथा आँधी आदि किसी दोष के बिना ही वृक्षों का गिर पड़ना इत्यादि बहुत-से उत्पात दिखायी देने लगे हैं ॥ अतः जबतक कोई भूमिसम्बन्धी महान् उत्पात व्रजको नष्ट न करे तबतक शीघ्र ही हमलोग इस स्थान से वृन्दावन को चल दें’ ॥
व्रज भूमि अवतरण
इस प्रकार वे समस्त व्रजवासी चलनेका विचारकर अपने-अपने कुटुम्बके लोगोंसे कहने लगे – ‘ शीघ्र ही चलो, देरी मत करो’ ॥
तब वे व्रजवासी वत्सपाल दल बाँधकर एक क्षणमें ही छकड़ों और गौओंके साथ उन्हें हाँकते हुए चल दिये ॥ हे द्विज ! वस्तुओंके अवशिष्टांशोंसे युक्त वह व्रजभूमि क्षणभर में ही काक तथा भास आदि पक्षियोंसे व्याप्त हो गयी ॥
गौवंश रक्षा
तब लीलाविहारी भगवान् कृष्णने गौओंकी अभिवृद्धिकी इच्छासे अपने शुद्धचित्तसे वृन्दावन (नित्य- वृन्दावनधाम ) का चिन्तन किया॥ इससे, हे द्विजोत्तम! अत्यन्त रूक्ष ग्रीष्मकाल में भी वहाँ वर्षाऋतुके समान सब ओर नवीन दूब उत्पन्न हो गयी ॥ तब चारों ओर अर्द्धचन्द्राकार से छकड़ों की बाड़ लगाकर वे समस्त व्रजवासी वृन्दावन में रहने लगे ॥
तदनन्तर राम और कृष्ण भी बछड़ों के रक्षक हो गये और एक स्थानपर रहकर गोष्ठ में बाललीला करते हुए विचरने लगे ॥ वे काकपक्षधारी दोनों बालक सिरपर मयूरपिच्छका मुकुट धारणकर तथा वन्यपुष्पोंके कर्णभूषण पहन ग्वालोचित वंशी आदिसे सब प्रकारके बाजोंकी ध्वनि करते तथा पत्तोंके बाजेसे ही नाना प्रकारकी ध्वनि निकालते, स्कन्दके अंशभूत शाख- विशाख कुमारोंके समान हँसते और खेलते हुए उस महावनमें विचरने लगे ॥ कभी एक-दूसरेको अपने पीठपर ले जाते तथा कभी अन्य ग्वाल-बालोंके साथ खेलते हुए वे बछड़ोंको चराते साथ-साथ घूमते रहते ॥ इस प्रकार उस महाव्रज में रहते-रहते कुछ समय बीतनेपर वे निखिललोकपालक वत्सपाल सात वर्षके हो गये ।
बचपन की रसभरी लीला
तब मेघसमूह से आकाश को आच्छादित करता हुआ तथा अतिशय वारिधाराओं से दिशाओं को एकरूप करता हुआ वर्षाकाल आया ॥ उस समय नवीन दूर्वाके बढ़ जाने और वीरबहूटियों से व्याप्त हो जाने के कारण पृथिवी पद्मरागविभूषिता मरकतमयी-सी जान पड़ने लगी ॥ जिस प्रकार नया धन पाकर दुष्ट पुरुषोंका चित्त उच्छृंखल हो जाता है, उसी प्रकार नदियोंका जल सब ओर अपना निर्दिष्ट मार्ग छोड़कर बहने लगा ॥ जैसे मूर्ख मनुष्यों की धृष्टतापूर्ण उक्तियोंसे अच्छे वक्ताकी वाणी भी मलिन पड़ जाती है वैसे ही मलिन मेघोंसे आच्छादित रहने के कारण निर्मल चन्द्रमा भी शोभाहीन हो गया ॥
जिस प्रकार विवेक हीन राजा के संग में गुणहीन मनुष्य भी प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेता है, उसी प्रकार आकाशमण्डल में गुणरहित इन्द्र-धनुष स्थित हो गया ॥ दुराचारी पुरुषमें कुलीन पुरुष की निष्कपट शुभ चेष्टाके समान मेघमण्डलमें बगुलोंकी निर्मल पंक्ति सुशोभित होने लगी ॥ श्रेष्ठ पुरुषके साथ दुर्जनकी मित्रता के समान अत्यन्त चंचला विद्युत् आकाशमें स्थिर न रह सकी ॥ महामूर्ख मनुष्योंकी अन्यार्थिका उक्तियों के समान मार्ग तृण और दूबसमूह से आच्छादित होकर अस्पष्ट हो गये ॥
उस समय उन्मत्त मयूर और चातकगणसे सुशोभित महावनमें कृष्ण और राम प्रसन्नतापूर्वक गोपकुमारोंके साथ विचरने लगे ॥ वे दोनों कभी गौओंके साथ मनोहर गान और तान छेड़ते तथा कभी अत्यन्त शीतल वृक्षतलका आश्रय लेते हुए विचरते रहते थे ॥ वे कभी तो कदम्बपुष्पोंके हारसे विचित्र वेष बना लेते, कभी मयूरपिच्छकी मालासे सुशोभित होते और कभी नाना प्रकारकी पर्वतीय धातुओंसे अपने शरीरको लिप्त कर लेते ॥ कभी कुछ झपकी लेनेकी इच्छासे पत्तोंकी शय्यापर लेट जाते और कभी मेघ गर्जनेपर ‘हा-हा’ करके कोलाहल मचाने लगते ॥ कभी दूसरे गोपके गानेपर आप दोनों उसकी प्रशंसा करते और कभी ग्वालोंकी-सी बाँसुरी बजाते हुए मयूरकी बोलीका अनुकरण करने लगते ॥
इस प्रकार वे दोनों अत्यन्त प्रीतिके साथ नाना प्रकारके भावोंसे परस्पर खेलते हुए प्रसन्नचित्तसे उस वनमें विचरने लगे ।
सायंकालके समय वे महाबली बालक वनमें यथायोग्य विहार करनेके अनन्तर गौ और ग्वाल-बालोंके साथ व्रजमें लौट आते थे ॥ इस तरह अपने समवयस्क गोपगणके साथ देवताओंके समान क्रीडा करते हुए वे महातेजस्वी राम और कृष्ण वहाँ रहने लगे ॥