38. व्रज में विहार तथा गोवर्धनकी पूजा

 

 व्रज में विहार और ऋतु परिवर्तन

इस प्रकार उन राम और कृष्णके व्रजमें विहार करते-करते वर्षाकाल बीत गया और प्रफुल्लित कमलोंसे युक्त शरद् ऋतु आ गयी ॥ जैसे गृहस्थ पुरुष पुत्र और क्षेत्र आदिमें लगी हुई ममतासे सन्ताप पाते हैं, उसी प्रकार मछलियाँ गड्ढोंके जलमें अत्यन्त ताप पाने लगीं ॥  संसारकी असारताको जानकर जिस प्रकार योगिजन शान्त हो जाते हैं, उसी प्रकार मयूरगण मदहीन होकर मौन हो गये ॥ 

विज्ञानिगण [ सब प्रकारकी ममता छोड़कर] जैसे घरका त्याग कर देते हैं, वैसे ही निर्मल श्वेत मेघोंने अपना जलरूप सर्वस्व छोड़कर आकाशमण्डलका परित्याग कर दिया ॥ विविध पदार्थोंमें ममता करनेसे जैसे देहधारियोंके हृदय सारहीन हो जाते हैं। वैसे ही शरत्कालीन सूर्यके तापसे सरोवर सूख गये ॥  निर्मलचित्त पुरुषोंके मन जिस प्रकार ज्ञानद्वारा समता प्राप्त कर लेते हैं, उसी प्रकार शरत्कालीन जलोंको [ स्वच्छताके कारण] कुमुर्दोंसे योग्य सम्बन्ध प्राप्त हो गया ॥ जिस प्रकार साधु-कुलमें चरम- देहधारी योगी सुशोभित होता है, उसी प्रकार तारका-मण्डल मण्डित निर्मल आकाशमें पूर्णचन्द्र विराजमान हुआ ॥

जिस प्रकार क्षेत्र और पुत्र आदिमें बढ़ी हुई ममताको विवेकीजन शनैः-शनैः त्याग देते हैं, वैसे ही जलाशयोंका जल धीरे-धीरे अपने तटको छोड़ने लगा ॥  जिस प्रकार अन्तरायों* (विघ्नों) से विचलित हुए कुयोगियोंका क्लेशों से पुनः संयोग हो* जाता है उसी प्रकार पहले छोड़े हुए सरोवरके जलसे हंसका पुनः संयोग हो गया ॥  क्रमशः महायोग (सम्प्रज्ञातसमाधि) प्राप्त कर लेनेपर जैसे यति निश्चलात्मा हो जाता है, वैसे ही जलके स्थिर हो जानेसे समुद्र निश्चल हो गया ॥  जिस प्रकार सर्वगत भगवान् विष्णुको जान लेनेपर मेधावी पुरुषोंके चित्त शान्त हो जाते हैं वैसे ही समस्त जलाशयोंका जल स्वच्छ हो गया ॥ 

योगाग्निद्वारा क्लेशसमूहके नष्ट हो जानेपर जैसे योगियोंके चित्त स्वच्छ हो जाते हैं उसी प्रकार शीतके कारण मेघों लीन हो जानेसे आकाश निर्मल हो गया ॥  जिस प्रकार अहंकारजनित महान् दुःखको विवेक शान्त कर देता है, उसी प्रकार सूर्यकिरणोंसे उत्पन्न हुए तापको चन्द्रमाने शान्त कर दिया ॥  प्रत्याहार जैसे इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे खींच लेता है वैसे ही शरत्कालने आकाशसे मेघोंको, पृथिवीसे धूलिको और जलसे मलको दूर कर दिया ॥  [ पानीसे भर जानेके कारण] मानो तालाबोंके जल पूरक कर चुकनेपर अब [स्थिर रहने और सूखनेसे] रात-दिन कुम्भक एवं रेचक क्रियाद्वारा प्राणायामका अभ्यास कर रहे हैं ॥ 

इन्द्र यज्ञ की तैयारी

इस प्रकार व्रजमण्डलमें निर्मल आकाश और नक्षत्रमय शरत्कालके आनेपर श्रीकृष्णचन्द्रने समस्त व्रजवासियोंको इन्द्रका उत्सव मनानेके लिये तैयारी करते देखा ॥ 

महामति कृष्णने उन गोपको उत्सवकी उमंगसे अत्यन्त उत्साहपूर्ण देखकर कुतूहलवश अपने बड़े-बूढ़ोंसे पूछा- ॥ ” आपलोग जिसके लिये फूले नहीं समाते वह इन्द्रयज्ञ क्या है ?” इस प्रकार अत्यन्त आदरपूर्वक पूछनेपर उनसे नन्दगोपने कहा- ॥ 

नन्दगोप का उत्तर

नन्दगोप बोले- मेघ और जलका स्वामी देवराज इन्द्र है। उसकी प्रेरणासे ही मेघगण जलरूप रसकी वर्षा करते हैं ॥  हम और अन्य समस्त देहधारी उस वर्षासे उत्पन्न हुए अन्नको ही बर्तते हैं तथा उसीको उपयोगमें लाते हुए देवताओंको भी तृप्त करते हैं ॥  उस (वर्षा)- से बढ़े हुए अन्नसे ही तृप्त होकर ये गौएँ तुष्ट और पुष्ट होकर वत्सवती एवं दूध देनेवाली होती हैं ॥

जिस भूमिपर बरसनेवाले मेघ दिखायी देते हैं, उसपर कभी अन्न और तृणका अभाव नहीं होता और न कभी वहाँके लोग भूखे रहते ही देखे जाते हैं॥  यह पर्जन्यदेव (इन्द्र) पृथिवीके जलको सूर्यकिरणद्वारा खींचकर सम्पूर्ण प्राणियोंकी वृद्धिके लिये उसे मेघद्वारा पृथिवीपर बरसा देते हैं। इसलिये वर्षा ऋतुमें समस्त राजालोग, हम और अन्य मनुष्यगण देवराज इन्द्रकी यज्ञोंद्वारा प्रसन्नतापूर्वक पूजा किया करते हैं ।। 

श्रीकृष्ण का विरोध और सुझाव

 इन्द्रकी पूजाके विषयमें नन्दजीके ऐसे वचन सुनकर श्रीदामोदर देवराजको कुपित करनेके लिये ही इस प्रकार कहने लगे- ॥  ” हे तात! हम न तो कृषक हैं और न व्यापारी, हमारे देवता तो गौएँ ही हैं; क्योंकि हमलोग वनचर हैं ॥ आन्वीक्षिकी (तर्कशास्त्र), त्रयी (कर्मकाण्ड), दण्डनीति और वार्ता – ये चार विद्याएँ हैं, इनमेंसे केवल वार्ताका विवरण ॥ वार्ता नामकी विद्या कृषि, वाणिज्य और पशुपालन इन तीन वृत्तियोंकी आश्रयभूता है ॥  वार्ताके इन तीनों भेदोंमेंसे कृषि किसानोंकी, वाणिज्य व्यापारियोंकी और गोपालन हमलोगोंकी उत्तम वृत्ति है ॥

  जो व्यक्ति जिस विद्यासे युक्त है उसकी वही इष्टदेवता है, वही पूजा-अर्चाके योग्य है और वही परम उपकारिणी है ॥ जो पुरुष एक व्यक्तिसे फल-लाभ करके अन्यकी पूजा करता है, उसका इहलोक अथवा परलोकमें कहीं भी शुभ नहीं होता ॥ ३१ ॥ खेतोंके अन्तमें सीमा है तथा सीमाके अन्तमें वन हैं और वनोंके अन्तमें समस्त पर्वत हैं; वे पर्वत ही हमारी परमगति हैं ॥  हमलोग न तो किंवाड़ें तथा भित्तिके अन्दर रहनेवाले हैं और न निश्चित गृह अथवा खेतवाले किसान ही हैं, बल्कि [वन-पर्वतादिमें स्वच्छन्द विचरनेवाले] हमलोग चक्रचारी * मुनियोंकी भाँति समस्त जनसमुदायमें सुखी हैं [ अतः गृहस्थ किसानोंकी भाँति हमें इन्द्रकी पूजा करनेका कोई काम नहीं ] ” ॥ 

“सुना जाता है कि इस वनके पर्वतगण कामरूपी (इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले) हैं। वे मनोवांछित रूप धारण करके अपने अपने शिखरोंपर विहार किया करते हैं ॥ 

जब कभी वनवासीगण इन गिरिदेवोंको किसी तरहकी बाधा पहुँचाते हैं तो वे सिंहादि रूप धारणकर उन्हें मार डालते हैं॥  अतः आजसे [इस इन्द्रयज्ञके स्थानमें] गिरियज्ञ अथवा गोयज्ञका प्रचार होना चाहिये। हमें इन्द्रसे क्या प्रयोजन है? हमारे देवता तो गौएँ और पर्वत ही हैं ॥  ब्राह्मणलोग मन्त्र यज्ञ तथा कृषकगण सीरयज्ञ (हलका पूजन) करते हैं, अतः पर्वत और वनोंमें रहनेवाले हमलोगोंको गिरियज्ञ और गोयज्ञ करने चाहिये ॥

‘अतएव आपलोग विधिपूर्वक मेध्य पशुओंकी बलि  देकर विविध सामग्रियोंसे गोवर्धनपर्वतकी अर्चा पूजा करें ॥  आज सम्पूर्ण व्रजका दूध एकत्रित कर लो और उससे ब्राह्मणों तथा अन्यान्य याचकोंको भोजन कराओ; इस विषयमें और अधिक सोच-विचार मत करो ॥ गोवर्धनकी पूजा, होम और ब्राह्मण-भोजन समाप्त होनेपर शरद् ऋतुके पुष्पोंसे सजे हुए मस्तकवाली गौएँ गिरिराजकी प्रदक्षिणा करें ॥  हे गोपगण! आपलोग यदि प्रीतिपूर्वक मेरी इस सम्मतिके अनुसार कार्य करेंगे तो इससे गौओंको, गिरिराज और मुझको अत्यन्त प्रसन्नता होगी ” ॥ 

गोवर्धन पूजा और श्रीकृष्ण का प्रकट होना

 कृष्णचन्द्रके इन वाक्योंको सुनकर नन्द आदि व्रजवासी गोपोंने प्रसन्नतासे खिले हुए मुखसे ‘साधु, साधु’ कहा ॥  और बोले-हे वत्स! तुमने अपना जो विचार प्रकट किया है वह बड़ा ही सुन्दर है; हम सब ऐसा ही करेंगे; आज गिरियज्ञ किया जाय ॥ 

तदनन्तर उन व्रजवासियोंने गिरियज्ञका अनुष्ठान किया तथा दही, खीर और मांस आदिसे पर्वतराजको बलि दी ॥ 

सैकड़ों, हजारों ब्राह्मणोंको भोजन कराया तथा पुष्पार्चित गौओं और सजल जलधरके समान गर्जनेवाले साँड़ोंने गोवर्धनकी परिक्रमा की ॥ उस समय कृष्णचन्द्रने पर्वतके शिखरपर अन्यरूपसे प्रकट होकर यह दिखलाते हुए कि मैं मूर्तिमान् गिरिराज हूँ, उन गोपश्रेष्ठोंके चढ़ाये हुए विविध व्यंजनोंको ग्रहण किया ॥  कृष्णचन्द्रने अपने निजरूपसे गोपोंके साथ पर्वतराजके शिखरपर चढ़कर अपने ही दूसरे स्वरूपका पूजन किया ॥  उनके अन्तर्धान होनेपर गोपगण अपने अभीष्ट वर पाकर गिरियज्ञ समाप्त करके फिर अपने-अपने गोष्ठोंमें चले आये ॥ 

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