36. शक्र-कृष्ण-संवाद, कृष्ण-स्तुति

शक्र-कृष्ण-संवाद (इन्द्रदेव और कृष्ण का संवाद )

इस प्रकार गोवर्धनपर्वतका धारण और गोकुलकी रक्षा हो जानेपर देवराज इन्द्रको श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन करनेकी इच्छा हुई ॥ अतः शत्रुजित् देवराज गजराज ऐरावतपर चढ़कर गोवर्धन पर्वतपर आये और वहाँ सम्पूर्ण जगत्के रक्षक गोपवेषधारी महाबलवान् श्रीकृष्णचन्द्रको ग्वालबालोंके साथ गौएँ चराते देखा ॥  उन्होंने यह भी देखा कि पक्षिश्रेष्ठ गरुड अदृश्यभावसे उनके ऊपर रहकर अपने पंखोंसे उनकी छाया कर रहे हैं ॥ तब वे ऐरावतसे उतर पड़े और एकान्तमें श्रीमधुसूदनकी ओर प्रीतिपूर्वक दृष्टि फैलाते हुए मुसकाकर बोले ॥

गोवर्धन पर्वत का उठाना

इन्द्रने कहा— हे श्रीकृष्णचन्द्र ! मैं जिसलिये आपके पास आया हूँ, वह सुनिये – हे महाबाहो ! आप इसे अन्यथा न समझें ॥  हे अखिलाधार परमेश्वर ! आपने पृथिवीका भार उतारनेके लिये ही पृथिवीपर अवतार लिया है ॥ यज्ञभंगसे विरोध मानकर ही मैंने गोकुलको नष्ट करनेके लिये महामेघोंको आज्ञा दी थी, उन्होंने यह संहार मचाया था ॥ किन्तु आपने पर्वतको उखाड़कर गौओंको बचा लिया। हे वीर! आपके इस अद्भुत कर्मसे मैं अति प्रसन्न हूँ ॥

हे कृष्ण ! आपने जो अपने एक हाथपर गोवर्धन धारण किया है, इससे मैं देवताओंका प्रयोजन [आपके द्वारा] सिद्ध हुआ ही समझता हूँ ॥  [ गोवंशकी रक्षाद्वारा] आपसे रक्षित [कामधेनु आदि] गौओंसे प्रेरित होकर ही मैं आपका विशेष सत्कार करनेके लिये यहाँ आपके पास आया हूँ ॥  हे कृष्ण ! अब मैं गौओंके वाक्यानुसार ही आपका उपेन्द्र- पदपर अभिषेक करूँगा तथा आप गौओंके इन्द्र (स्वामी) हैं इसलिये आपका नाम ‘गोविन्द’ भी होगा ॥ 

 इन्द्रने अपने वाहन गजराज ऐरावत का घण्टा लिया और उसमें पवित्र जल भरकर उससे कृष्णचन्द्रका अभिषेक किया ॥  श्रीकृष्णचन्द्रका अभिषेक होते समय गौओंने तुरन्त ही अपने स्तनोंसे टपकते हुए दुग्धसे पृथिवीको भिगो दिया ॥ 

इस प्रकार गौओंके कथनानुसार श्रीजनार्दनको उपेन्द्र-पदपर अभिषिक्त कर शचीपति इन्द्रने पुनः प्रीति और विनयपूर्वक कहा- ॥ ” यह तो मैंने गौओंका वचन पूरा किया, अब पृथिवीके भार उतारनेकी इच्छासे मैं आपसे जो कुछ और निवेदन करता हूँ वह भी सुनिये ॥  हे पृथिवीधर ! हे पुरुषसिंह ! अर्जुन नामक मेरे अंशने पृथिवीपर अवतार लिया है; आप कृपा करके उसकी सर्वदा रक्षा करें ॥  हे मधुसूदन ! वह वीर पृथिवीका भार उतारनेमें आपका साथ देगा, अतः आप उसकी अपने शरीरके समान ही रक्षा करें” ॥ 

इन्द्रदेव का प्रसाद

श्रीभगवान् बोले— भरतवंशमें पृथाके पुत्र अर्जुनने तुम्हारे अंशसे अवतार लिया है—यह मैं जानता हूँ। मैं जबतक पृथिवीपर रहूँगा, उसकी रक्षा करूँगा ॥ हे शत्रुसूदन देवेन्द्र! मैं जबतक महीतलपर रहूँगा तबतक अर्जुनको युद्धमें कोई भी न जीत सकेगा ॥  हे देवेन्द्र! विशाल भुजाओंवाला कंस नामक दैत्य, अरिष्टासुर, केशी, कुवलयापीड और नरकासुर आदि अन्यान्य दैत्योंका नाश होनेपर यहाँ महाभारत-युद्ध होगा। हे सहस्राक्ष ! उसी समय पृथिवीका भार उतरा हुआ समझना ॥ 

अब तुम प्रसन्नतापूर्वक जाओ, अपने पुत्र अर्जुनके लिये तुम किसी प्रकारकी चिन्ता मत करो; मेरे रहते हुए अर्जुनका कोई भी शत्रु सफल न हो सकेगा ॥ अर्जुनके लिये ही मैं महाभारतके अन्तमें युधिष्ठिर आदि समस्त पाण्डवोंको अक्षत-शरीरसे कुन्तीको दूँगा ॥ 

 कृष्णचन्द्रके ऐसा कहनेपर देवराज इन्द्र उनका आलिंगन कर ऐरावत हाथीपर आरूढ हो स्वर्गको चले गये॥  तदनन्तर कृष्णचन्द्र भी गोपियोंके दृष्टिपातसे पवित्र हुए मार्गद्वारा गोपकुमारों और गौओंके साथ व्रजको लौट आये ॥ 

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