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14. शास्त्रों की महत्ता

शास्त्रों की महत्ता

शास्त्रों की महत्ता

अध्यारोपथवाद और आत्मा-अनात्मा का निर्णय

जैसे श्रुतियों में अध्यारोपथवाद के विचार से आत्मा अनात्मा का निर्णय किया है वैसे ही गरुड़ पुराण में कहा है कि मिथ्या वस्तु का सत्य वस्तु में आरोप करने का नाम अध्यारोप है। और मिथ्या वस्तु का सत्य वस्तु में से निषेध करने का नाम अपवाद है और पुरुष पूर्व जन्मकृत पुण्य पुन्ज प्रभाव से आत्मा क्या वस्तु और अनात्म क्या वस्तु है इसका निश्चय करने के लिए नित्य यत्न करने में तत्पर होता है|

फिर अध्यारोपण अपवाद से आत्मा ब्रह्म स्वरूप है इस अद्वैत चिन्तन को करता है। विचार रहित पुरुष अद्वैत का चिन्तन नहीं कर सकता और अद्वैत चिन्तन के बिना मोक्ष को प्राप्त नहीं हो सकता, इस कारण से पुरुष को विचार ही कर्त्तव्य है। विचार बोधक मन्त्र यह है ।

विचारशीलता और मोक्ष

पैङ्गल उपनिषद् में कहा है कि अविचारशील पुरुष को बन्धन होता है और विचारशील का मोक्ष होता है, इसलिये पुरुष को विचार सदा कर्त्तव्य है। पुरुष अध्यारोपापवाद के विचार से ही आत्मा के स्वरूप का निश्चय कर सकता है।

आत्म विचार शास्त्र विचार के बिना नहीं हो सकता। इस कारण से पुरुष को शास्त्र का विचार अवश्य ही कर्तव्य है। मुक्तिकोपनिषद् में कहा है कि पुरुष का प्रयत्न दो प्रकार का है। एक अनुसार और दूसरा शास्त्र के विरुद्ध । शास्त्र से विरुद्ध प्रयत्न- अनर्थ का देने वाला है और शास्त्र के अनुसार प्रयत्न से परम अर्थ मोक्ष की प्राप्ति होती है।

देवी भागवत में कहा है कि पुरुष जिस किसी भी प्रयत्न से काल को व्यतीत करते हैं। मूर्ख पुरुष वो हैं जो शास्त्र विरुद्ध विषय सेवन अप व्यसनों में लगे हुए काल को व्यतीत करते हैं, और विचारशील बुद्धिमान जो पुरुष हैं वे आत्मज्ञान संपादक शास्त्र चिन्तन करते हुए काल को व्यतीत करते हैं।

शास्त्र और धर्म पालन

महाभारत में कहा है कि शोक रहित और शोक नाश के लिये इस लोक में शान्तिप्रद और परलोक में कल्याणकारक शास्त्र ही है। उस शास्त्र को श्रवण करके पुरुष ऐसी शुद्ध बुद्धि को प्राप्त करता है जिसकी प्राप्ति से संसार में सदा परम सुख को भोगता है।

गीता में भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, जो पुरुष शास्त्र की विधि को छोड़कर अपनी इच्छा के अनुसार धर्म सम्बन्धी कार्य करता है वह पुरुष किसी भी कार्य की सिद्धि को प्राप्त नहीं करता है व इस लोक में यश रूपी सुख से और परलोक की गति रूप मोक्ष से वंचित रहता है।

देवी भागवत में कहा है कि जो पुरुष वेद के विधान करे हुए धर्म को छोड़कर अपनी कपोल कल्पना के अनुसार कार्य करने को ही धर्म कहता है और श्रुति, स्मृति, पुराणों से विरुद्ध कार्य को धर्म मानता है उस पुरुष को शिक्षा देने के लिये यमलोक में बहुत से नरक कुण्ड बने हुए हैं।

महाभारत में कहा है कि विद्या के समान संसार में कोई नेत्र नहीं है (क्योंकि विद्वान् पुरुष ही अधर्मरूपी खड्डे को और धर्म रूपी अच्छे रास्ते को देख सकता है) और सत्य भाषण के समान कोई तप नहीं है। पदार्थों में राग के समान और कोई दुःख नहीं है (देखो मांस में राग वाले काक, कुत्ता, गीध आदि की कलह होती है। बिना राग वालों की कलह नहीं होती)। इस कारण से पदार्थों में राग त्याग के समान और कोई सुख नहीं है।

अद्वैत ब्रह्मज्ञान और मोक्ष

नरसिंह पुराण में कहा है कि भोग पदार्थों में राग वाला पुरुष पशु के समान है। खाना, पीना, सोना, भय, स्त्री भोगना यह सर्व पुरुषों में और पशुओं में समान है। आत्मा का अद्वैत रूप से ज्ञान होना ही पुरुषों में पशुओं से अधिकता है। ज्ञान से हीन, सर्व पशु समान है।

महोपनिषद् में उन पुरुषों का ही संसार में उत्पन्न होना सफल कहा है, जो पुरुष श्रेष्ठ कर्म करते हुए जीवन व्यतीत करते हैं और शास्त्रोक्त साधनों से अद्वैत ब्रह्मज्ञान का सम्पादन कर पुनः संसार में वे पुरुष उत्पन्न नहीं होते और जो पुरुष अद्वैत ब्रह्मज्ञान से रहित हैं वे बूढ़े गर्दभ के समान हैं। जैसे बूढ़े गर्दभ के ऊपर बोझा पूरा लादते हैं और खाने को पास आदि पूरा देते नहीं ऐसी ही अज्ञानी की दशा होती है।

केनोपनिषद् में कहा है कि इस मनुष्य शरीर में जिसने आत्म ब्रह्मस्वरूप को जान लिया है वह जन्म मरण से रहित ब्रह्म स्वरूप हो जाता है और आत्मा को न जानकर पुरुष ससार चक्र में घटी यन्त्र के समान चौरासी लाख योनियों में भटकता है।

योगवासिष्ठ में कहा है कि जिस पुरुष ने इस मनुष्य देह में अज्ञान रूपी नरक व्याधि की आत्मज्ञान रूपी चिकित्सा नहीं की वह पुरुष आयु के व्यतीत हो जाने के पीछे आत्मज्ञान रूपी औषधि से रहित और आत्मबोध कराने वाले गुरु रूपी वैद्य से रहित स्थान जो लक्ष चौरासी योनि है, उसके चक्र में पड़कर अज्ञान रूपी रोग के सहित फिर क्या कर सकेगा ? क्योंकि पशु आदि योनियों में यह जीव कुछ भी कल्याणकारी कार्य नहीं कर सकता है।

निष्काम कर्म और ब्रह्मविद्या

देवी भागवत में कहा है कि कर्म वही है जिससे बन्धन की प्राप्ति न हो और विद्या वही है जिससे मोक्ष की प्राप्ति हो। निष्काम कर्म के अतिरिक्त जो कर्म है सो जन्म मरण रूपी परिश्रम को देने वाले हैं और मुक्ति को देने वाली ब्रह्म विद्या है, इसके अतिरिक्त जो विद्या है, वह केवल शिल्प विद्यादि जीविका के ही निमित्त हैं।

ब्रह्मविद्या से अतिरिक्त अन्य विद्या का फल अवश्य ही नाशवान होता है और अद्वैत बोधक जो ब्रह्मविद्या है उसका फल सचिदानन्द ब्रह्म की प्राप्ति है, यह वार्ता शुकरहस्योपनिषद् में कही गई है।

महाभारत में व्यासजी शुकदेवजी से कहते हैं कि हे | स्वर्ग को प्राप्त करने के लिये सीढ़ी रूपी दुर्लभ मनुष्य शरीर पाकर आत्मा और ब्रह्म का अभेदरूप से ऐसे विचार करना चाहिये कि ! शुक जिससे फिर संसार चक्र में पतित नहीं होना पड़े।

अक्ष्युपनिषद् में कहा गया है कि श्रेष्ठ ब्रह्मनिष्ठ विद्वानों की मन वाणी, शरीर से सेवा करना चाहिये और जहाँ-तहाँ से विद्वानों को प्रार्थनापूर्वक लाकर अद्वैत बोधक वेदान्त शास्त्रों का चिन्तन करना और नित्य वेदान्त शास्त्रों का चिन्तन करते हुए काम क्रोधादि को अवकाश नहीं देना चाहिये।

कलियुग में कल्याण का मार्ग

पद्म पुराण में जैमिनी व्यासजी से पूछते हैं कि हे भगवन् कलियुगी पुरुषों के कल्याण का रास्ता कौन सा है, तब व्यासजी कहते हैं कि हे विप्र! साधु महात्माओं के सत्संग से वेदान्त का श्रवण होता है जिससे पापों के हरने वाले “हरि परमात्मा” में भक्ति होती है और भक्ति से अद्वैत ब्रह्म ज्ञान होता है, जिस ज्ञान से परमानंद की प्राप्ति और अनर्थ की निवृत्ति रूपी मोक्ष की प्राप्ति होती है यही कल्याण का रास्ता है।

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