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शिशुपाल का पूर्वजन्म – हिरण्यकशिपु
प्रथम जन्म में दैत्यराज हिरण्यकशिपु का वध करने के लिये सम्पूर्ण लोकों की उत्पत्ति , स्थिति और नाश करने वाले भगवान्ने शरीर ग्रहण करते समय नृसिंहरूप प्रकट किया था ॥ उस समय हिरण्यकशिपु के चित्त में यह भाव नहीं हुआ था कि ये विष्णुभगवान् हैं ॥ केवल इतना ही विचार हुआ कि यह कोई निरतिशय पुण्य – समूह से उत्पन्न हुआ प्राणी है ॥
शिशुपाल का पूर्वजन्म – रावण
रजोगुण के उत्कर्ष से प्रेरित हो उसकी मति दृढ़ हो गयी । अतः उसके भीतर ईश्वरीय भावना का योग न होने से भगवान्के द्वारा मारे जानेके कारण ही रावण का जन्म लेने पर उसने सम्पूर्ण त्रिलोकी में सर्वाधिक भोग – सम्पत्ति प्राप्त की ॥ उन अनादि – निधन , परब्रह्म स्वरूप , निराधार भगवान्में चित न लगाने के कारण वह उन्हीं में लीन नहीं हुआ ॥ इसी प्रकार रावण होने पर भी कामवश जानकी जी में चित्त लग जाने से भगवान् दशरथनन्दन रामके द्वारा मारे जाने पर केवल उनके रूप का ही दर्शन हुआ था ; ‘ ये अच्युत हैं ‘ ऐसी आसक्ति नहीं हुई , बल्कि मरते समय इसके अन्तःकरण में केवल मनुष्य बुद्धि ही रही ॥
शिशुपाल
फिर श्रीअच्युत के द्वारा मारे जानेके फलस्वरूप इसने सम्पूर्ण भूमण्डल में प्रशंसित चेदिराजके कुलमें शिशुपाल रूप से जन्म लेकर भी अक्षय ऐश्वर्य प्राप्त किया ॥ उस जन्म में वह भगवान्के प्रत्येक नामों में तुच्छता की भावना करने लगा ॥ उसका हृदय अनेक जन्मके द्वेषानुबन्ध से युक्त था , अतः वह उनकी निन्दा और तिरस्कार आदि करते हुए भगवान्के सम्पूर्ण समयानुसार लीलाकृत नामों का निरन्तर उच्चारण करता था ॥
खिले हुए कमलदल के समान जिसकी निर्मल आँखें हैं , जो उज्ज्वल पीताम्बर तथा निर्मल किरीट , केयूर , हार और कटकादि धारण किये हैं तथा जिसकी लम्बी – लम्बी चार भुजाएँ हैं और जो शंख , चक्र , गदा और पद्म धारण किये हुए हैं , भगवान्का वह दिव्य रूप अत्यन्त वैरानुबन्ध के कारण भ्रमण , भोजन , स्नान , आसन और शयन आदि सम्पूर्ण अवस्थाओं में कभी उसके चित्त से दूर न होता था ॥
‘ फिर गाली देते समय उन्हींका नामोच्चारण करते हुए और हृदयमें भी उन्हींका ध्यान धरते हुए जिस समय वह अपने वधके लिये हाथमें धारण किये चक्रके उज्ज्वल किरणजाल से सुशोभित , अक्षय तेजस्वरूप द्वेषादि सम्पूर्ण दोषोंसे रहित ब्रह्मभूत भगवान्को देख रहा था ॥ उसी समय तुरन्त भगवच्चक्र से मारा गया ; भगवत्स्मरण के कारण सम्पूर्ण पापराशि के दग्ध हो जानेसे भगवान्के द्वारा उसका अन्त हुआ और वह उन्हीं में लीन हो गया ॥