श्रवण आदि का कथन
कार्योपाधिरयं जीवः कारणोपाधिरीश्वरः ।
कार्यकारणतां हित्वा पूर्णबोधोऽवशिष्यते ।।1।।
पूर्वगत अध्याय में विवेक आदि साधनचतुष्टय का कथन करा। अब इस सप्तमें अध्याय में ज्ञान के अतिअन्तरंग साधन रूप श्रवण आदि का कथन करते हैं।
जीव ब्रह्म की एकतारूप अद्वैतज्ञान के उपयोगी शुकरहस्योपनिषद् में जीव और ईश्वर के लक्षण कहे हैं। अनादि सान्त शुद्धसत्वगुणप्रधान सर्वज्ञता आदि ज्ञान का अप्रतिबंधक कारण मायारूप उपाधि वाले का नाम ईश्वर कहा है और अनादि सान्त मलिसत्वगुणप्रधान सर्वज्ञता आदि ज्ञान का निरोधक कार्य अविद्यारूप उपाधि वाले का नाम जीव कहा है। तिन जीव ईश्वर की कार्य कारण रूप दोनों उपाधियों का भागत्याग लक्षणा से परित्याग करके केवल ब्रह्मात्वस्वरूप पूर्ण चेतन परमानन्द शेष रह जाता है|
श्रवणं तु गुरोः पूर्व मननं तदनन्तरम् ।
निदिध्यासनमित्येतत्पूर्णबोधस्य कारणम् ||2||
तिस ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत परमानन्द के ज्ञान के लिये साधनचतुष्टय सम्पन्न शिष्य प्रथम गुरु से वेदान्त शास्त्र का श्रवण करे। तिससे पश्चात् श्रवण करे हुए अर्थ का युक्तियों से मनन करे तिससे पश्चात् मनन करे हुए अर्थ का अभ्यास रूप पुनः पुनः निदिध्यासन करे। ये श्रवण मनन और निदिध्यासन संशय विपर्यय की निवृत्तिपूर्वक ब्रह्मात्मस्वरूप पूर्ण ज्ञान के कारण है ||2||
श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः श्रृण्वन्तोऽपि बहवोयं न विद्युः ।
आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धाऽऽश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः ।।
न नरेणावरेण प्रोक्त एष सुविज्ञेयो बहुधा चिन्त्यमानः ||3||
कठोपनिषद् में कहा है कि उद्दालक पिता की आज्ञा पालने के लिये यमलोक में आये हुए नचिकेता को तीन दिन यम राजा के न मिलने से अन्न-जल ग्रहण न करने पर यमराजा ने तीन दिन अन्न-जल न करे हुए नचिकेता को तीन वरों के दान से संतुष्ट कर कहा कि अब आप मांगे जो कुछ मांगते हो। तब नचिकेता ने कहा कि जिस आत्मा को ब्रह्मस्वरूप जानकर पुरुष कृतकृत्य हो जाता है। उस ब्रह्मात्मस्वरूप का आप मेरे प्रति उपदेश करें।
तब यम राजा ने बहुत से पदार्थों के वरप्रदानों के लोभ से न लोभायमान् हुए नचिकेता से कहा है कि हे नचिकेता ! बहुत से पापात्मा पुरुषों को तो ब्रह्मात्मस्वरूप बोधक वाक्य श्रवण करने के लिये भी प्राप्त नहीं होते हैं और बहुत से अन्य पदार्थों में राग वाले पुरुष ब्रह्मात्मस्वरूप के बोधक वाक्यों को श्रवण करते हुए भी तिन के अर्थ को नहीं जानते हैं। और इस ब्रह्मात्मस्वरूप का यथार्थ वक्ता गुरु भी श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ प्राप्त होना अतिदुर्लभ है और श्रवण से ब्रह्मात्मस्वरूप का लब्धा ज्ञाता होकर भी तिस के कथन करने में कुशल (निपुण) होना अतिदुर्लभ है।
ब्रह्मवेत्ता कुशल गुरु से शिक्षित होकर ब्रह्मवेत्ता होना तो अति दुर्लभ है। क्योंकि ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत ज्ञान से हीन निकृष्ठ पुरुष से संसार के पदार्थों में राग वाले से कथन करा हुआ यह ब्रह्म स्वरूप आत्मा सम्यक् ज्ञात नहीं होता है। जिस कारण से भेदवादी अज्ञानियों करके आत्मा कर्ता-अकर्ता भोक्ता – अभोक्ता परिच्छिन्न- अपरिछिच्न शुद्ध-अशुद्ध भिन्न अभिन्न रूप नाना प्रकार से चिन्तन करा जाता है ||3||
नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः ।
नाशान्त मानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ।।4।।
हे नचिकेत ! कायक वाचिक मानसिक पापरूप दुराचरण से निवृत्त हुए बिना अशान्त पुरुष इस ब्रह्मात्मास्वरूप को प्राप्त नहीं हो सकता है। और समाहित चित्तवाला भी समाधि के फल अणिमा आदि से अनिवृत्त मनवाला आत्मस्वरूप ब्रह्म को प्राप्त नहीं हो सकता है। और सर्व पदार्थ-विषयों से विरक्त समाहित चित्तवाला भी शांति आदि साधन हीन अशान्त मन पुरुष आत्मा को जान नहीं सकता है गुरु से शिक्षित हुआ ज्ञान के साधन निदिध्यासन आदि करके प्रपक्वब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैतज्ञान से निजात्मस्वरूप को प्राप्त हो सकता है ||4||
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ||5||
यजुर्वेद संहिता में गुरु शिष्य संवाद रूप से ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैतज्ञान से ही मोक्ष की प्राप्ति मंत्र कहते हैं कि ब्रह्मवेत्ता के अनुभव सिद्ध इस सर्वव्यापी पुरुष को महान् सूर्य के समान प्रकाशरूप तम अज्ञान से रहित परमशुद्ध ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वितीय को हे शिष्य मैं जानता हूँ तिस आत्मस्वरूप शुद्ध परब्रह्म को निश्चित जान करके प्राणि इस संसार की कष्टगतिरूप मृत्यु को उल्लंघन कर अनर्थ की निवृति और परमानन्द की प्राप्तिरूप मोक्ष को प्राप्त होता है। इस ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैतज्ञान से बिना कैवल्य मोक्ष को प्राप्त करने के लिये संसार में और कोई दूसरा मार्ग विद्यमान नहीं है ||5||
पुरुषापराधमलिन धिषणा निरवद्यचक्षुरुदयाऽपि यथा ।
न फलाय भर्च्छविषया भवति श्रुतिसंभवापि तु तथात्मधीः ।।6।।
संक्षेपशारीरिक में कहा है कि वञ्चक पुरुष के विरुद्ध कथन रूप अपराध से पुरुष विपरीत ज्ञानवाला हो जाता है। जैसे किसी राजा को भच्छु नाम का मन्त्री अतिप्रिय था। तिस मन्त्री के साथ दूसरे मन्त्रियों ने ईर्षाकर राजा से झूठा ही कहा कि हे महाराज अमुक प्रान्त की प्रजा राजविरुद्ध हो गई है। तिस के शमन के लिये आप शीघ्र ही सेना के साथ भच्छु मन्त्री को भेजें। तब राजा ने भछु से कहा, भछु राजा-आज्ञा पालन के लिये शीघ्र ही चला गया। वहाँ की प्रजा ने भछु का अति मानकरा।
तब दूसरे मन्त्रियों ने भच्छु की अनुपस्थिति में राजा से झूठ ही कहा कि भछु तो मरकर प्रेत हो गया है। तिस के साथ जो बोलता है सोई मर जाता है। यह ईर्षाकारी मन्त्रियों की षड्यन्त्ररूप दुर्घटना की वार्ता भछु ने किसी से सुनकर तब सर्व राजसमाज के भोग पदार्थों में दोष दृष्टि होने पर। एक शुद्ध परब्रह्मस्वरूप आत्मा से भिन्न सर्व प्रपंच को निस्सार जानकर भच्छु सर्व से विरक्त होकर साधु हो गये। तब किसी काल में शिकार खेलने को वन में गये हुए राजा ने ईर्षा दोष से दूषित मनवाले मंत्रियों के वचनों से कि भच्छु मर कर प्रेत हो गया है।
जो तिस के साथ बोलता है सोई मर जाता है ऐसा सुनकर पुरुष अपराध से मलिन बुद्धि हुए राजा ने निर्दोष चक्षु का सम्बन्ध होने पर भी वीतराग महात्मारूप भच्छु को देखकर भी प्रेत जानकर भाषण नहीं करा है। जैसे राजा को भछु का यथार्थ दर्शन होने पर भी दुष्ट मंत्रियों के 5 पुरुष अपराध से मलिन बुद्धि होने से कि यह भछु है प्रेत नहीं है ऐसी फलीभूत बुद्धि नहीं हुई। तैसे ही नास्तिक अथवा भेदवादी अज्ञानियों के यह जीवात्मा ब्रह्म नहीं हो सकता है।
जैसे दास स्वामी नहीं हो सकता है ऐसे मोहकारी वचनों के पुरुष-अपराध से अल्पबुद्धिवाले जिज्ञासु को मलिन बुद्धि हुए को वेद के महा वाक्यों से बोधित भी जीवब्रह्म की एकता रूप अद्वैतबुद्धि निश्चित रूप से प्राप्त नहीं हो सकती है।।6।।
तत्तु समन्वयात् || 7 ||
ब्रह्मसूत्र शारीरकभाष्य में पूर्वपक्षी ने कहा है कि वेद के सर्व वाक्य कर्मों का विधान करते हैं। और ब्रह्मात्मस्वरूप क्रियारहित अद्वैत में कोई वेदशास्त्र का प्रमाण नहीं है तिस पूर्वपक्ष का समाधान ब्रह्मसूत्रकार वेदव्यासजी करते हैं कि सो ब्रह्म सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् जगत् की उत्पत्ति-स्थिति लयकर्ता वेदान्त शास्त्र से ही जाना जाता है। इस कारण से सर्व वेदवाक्यों का ब्रह्म में ही समन्वय है। और सर्व वेदान्त शास्त्रों में ये तत्त्वमसि अयमात्मा ब्रह्म आदि महावाक्य हैं वे सर्व आत्मस्वरूप अद्वितीय ब्रह्म के ही प्रतिपादक हैं ||7||
एकात्मके परे तत्त्वे भेदकर्ता कथं वसेत् ।
सुषुप्तौ सुखमात्रायां भेदः केनावलोकितः ||8||
अध्यात्मोपनिषद् में कहा है कि एक अद्वितीय आत्मस्वरूप तत्त्व पर ब्रह्म में भेदकर्ता पुरुष की बुद्धि कैसे प्रवेश हो सकती है अर्थात् नहीं हो सकती है। और कहो केवल आत्मा सुखस्वरूप विद्यमान होने पर सुषुप्तिकाल में यह भोग है और मैं भोक्ता हूँ ऐसा भेद किसने देखा है अर्थात् सुषुमि में भेद प्रतीत नहीं होता है ||8||
मायाविद्ये विहायैव उपाधी परजीवयोः |
अखण्डं सच्चिदानन्दं परं ब्रह्म विलक्ष्यते ||9||
ईश्वर की उपाधि सर्वज्ञतादि गुण वाली माया और जीव की उपाधि अल्पज्ञतादि गुणवाली अविद्या इन दोनों उपाधियों का परित्याग करके एक चेतनस्वरूप अखण्ड सच्चिदानन्द अद्वय परब्रह्मस्वरूप आत्मा को ऐसी भागत्याग लक्षणा के विचार से जाना जाता है||9||
इत्थं वाक्यैस्तथार्थानुसंधानं श्रवणं भवेत् ।
युक्त्या संभावितत्वानुसंधानं मननं भवेत् ।।10।।
इस प्रकार के वेदों के अद्वैतबोधक वाक्यों से तथा युक्तियों से जो ब्रह्मात्मस्वरूप अर्थ का निरन्तर विचार करना है तिस का नाम श्रवण कहा है। और भेद की बाधक और अभेद की साधक युक्तियों से जो श्रवण करे हुए ब्रह्मात्मस्वरूप निश्चित तत्त्व का निरन्तर चिन्तन करना है तिसका नाम मनन है ।।10।।
ताभ्यां निर्विचिकित्सेऽर्थे चेतसः स्थापितस्ययत् ।
एकतानत्वमेतद्धि निदिध्यासनमुच्यते ||11||
और तिन श्रवण मनन के अभ्यास से संशयरहित निश्चित ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत अर्थ में अनात्मप्रत्ययत्यागपूर्वक स्थापित चित्त की जो एकरसता रूप से स्थिति है। तिसका नाम निदिध्यासन कहा जाता है।।11।।
यत्परं ब्रह्म सर्वात्मा विश्वस्यायतनं महत् ।
सूक्ष्मात्सूक्ष्मतरं नित्यं स त्वमेव त्वमेव तत् ।।12।।
कैवल्योपनिषद् में कहा है कि जो वेदान्तशास्त्र उक्त प्रसिद्ध परब्रह्म सर्व प्राणियों का आत्मा और सर्व चराचर का आधारभूत विभु परमात्मा देश-काल-वस्तु परिच्छेद से रहित शुद्ध ब्रह्म साधनों से हीन पुरुष को अति सूक्ष्म से भी सूक्ष्म होने से अज्ञात है। और जो तत्पद का लक्ष्यार्थ नित्य सच्चिदानन्द शुद्ध ब्रह्म है सो त्वंपद का लक्ष्यार्थ कूटस्थ साक्षी शुद्ध आत्मा स्वरूप सो नित्य सच्चिदानन्द शुद्ध परब्रह्मस्वरूप है भिन्न नहीं है इस प्रकार के विचार का नाम तत् पद और त्वं पद का शोधन कहा जाता है। पूर्व उक्त विवेक वैराग्य षट् संपत्ति और मुमुक्षुता । और श्रवण, मनन, निदिध्यासन और तत् पद का और त्वं पद का शोधन यह सर्व मिलकर ज्ञान के आठ अन्तरंग साधन कहे जाते हैं ।।12।।
द्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः दिवीव चक्षुराततम् ||13||
यजुर्वेदसंहिता में कहा है कि तिस व्यापक विष्णु के सत्य ज्ञान आनन्द ब्रह्मात्मस्वरूप परम अद्वैत पद को वीतराग विद्वान् महात्मा सर्वदा ज्ञानचक्षु से देखते हैं। जैसे सर्वव्यापी प्रकाशमान सूर्य को आकाश में नेत्रों वाले देखते हैं। और नेत्रहीन नहीं देख सकते हैं ||13||
अस्ति भाति प्रियं रूपं नाम चेत्यंशपञ्चकम् ।
आद्यत्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपं ततो द्वयम् ।।14।।
सरस्वतीरहस्योपनिषद् में कहा है कि अस्ति नाम सत्य और प्रतीत होना यह ज्ञान और प्रिय है यह आनन्द और नील पीत आदि रूप और विष्णुदत्त, शिवदत्त आदि यह नाम, इन पाञ्च भाग रूप से संसार देखने में आता है। इनमें से आदि के सत्य ज्ञान आनन्द यह तीन तो ब्रह्म का स्वरूप हैं। और नील पीतादिरूप और विष्णुदत्त वा शिवदत्त आदि नाम यह दो कष्टकारी संसार का रूप है ।।14।।
पादोऽस्य विश्वाभूतानि त्रिपादऽस्यामृतं दिवि ||15||
यजुर्वेदसंहिता में कहा है कि इस सत्य ज्ञान आनन्द स्वरूप ब्रह्म के एक चतुर्थे भाग में माया से आदि लेकर चराचर सर्व भूतप्राणि स्थित है। और तीन भाग इस ब्रह्म के अमृत प्रकाश स्वरूप है ||15||
तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः संभूतः ।। आकाशाद्वायुः वायोरग्निः । अनेरापः । अद्भ्यः पृथिवी ||16||
तैत्तिरीयोपनिषद् में कहा है कि तिस वेदोक्त ब्रह्म से और विद्वानों के अनुभव प्रसिद्ध इस प्रत्यक् आत्मस्वरूप ब्रह्म से शब्द गुण वाला आकाश उत्पन्न हुआ। और आकाश युक्त ब्रह्म से शब्द स्पर्श दो गुण वाला वायु हुआ और वायु युक्त ब्रह्म से शब्द स्पर्श रूप तीन गुण वाला अग्नि हुआ । अग्नि युक्त ब्रह्म से शब्द स्पर्श रूप रस चार गुण वाले जल हुए। जल युक्त ब्रह्म से शब्द स्पर्श रूप रस गन्ध इन पांच गुण वाली पृथ्वी उत्पन्न हुई। इन पाँच भूतों से सर्व चराचर सृष्टि हुई ।।16।।
वैशेष्यात्तु तद्वादस्तद्वादः ।।17।।
ब्रह्मसूत्र शारीरकभाष्य में पूर्व पक्षी ने कहा है कि अपंचीकृत पंचभूतों के पंचीकरण करने पर आकाश-वायु आदि नाम भिन्न-भिन्न कैसे कहे जाते हैं तिसका समाधान सूत्रकार कहते हैं। आकाशादि पंचभूतों के अपने अपने अंश अधिक होने से आकाश वायु आदि नाम से भिन्न-भिन्न कहे जाते हैं ।।17।।
सोऽकामयत । बहुस्यां प्रजायेयेति । स तपोऽतप्यत ।
ईद् सर्वमसृजत। तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत् ।।18।।
तैत्तिरीयोपनिषद् में कहा है कि सो सर्वशक्तिमान् ईश्वर इच्छा करता है कि मैं भूतप्राणि रूप से उत्पन्न होकर बहुत रूप से प्रगट होऊं । ऐसी इच्छा कर सो ईश्वर विचाररूप तप करते हैं। विचार करके इस दृश्यमान् चराचर सर्व प्रपंच को कर्मों के अनुसार रचते हैं। फिर ईश्वर तिस रचे हुए प्रपंचरूप प्राणीसमूह में मस्तक रूप के पालरन्ध्र द्वारा आत्मरूप से प्रवेश करते हैं ।।18।।
प्रियात्मजननवर्धन परिणामक्षयनाशाः षड्भावाः ।। अशनायापिपासा शोकमोहजरामरणानीति षडूर्मयः ।। एवद्योगेन परमपुरुषो जीवो भवति नान्यः ।।19।।
मुद्रलोपनिषद् में कहा है कि प्रिय रूप से अस्ति और उत्पत्ति वृद्धि और कृश स्थूल रूप परिणाम और अङ्ग भंग रूप क्षय और नाश यह षट् विकार कहे जाते हैं और क्षुधा- पिपासा – शोक-मोह-जरा-मरण यह षट् ऊर्मि कहे जाते हैं। इन सर्व अविद्यारूप उपाधि के संयोग से सर्वव्यापी परमपुरुष परमात्मा ही जीवभाव को प्राप्त होता है। और कोई दूसरा नहीं ।।19।।
स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः ||20||
तैत्तिरीयोपनिषद में कहा है कि चन्द्रशाखा न्याय से जैसे मन्ददृष्टि पुरुष को चन्द्रमा दिखाने के लिये प्रथम वृक्ष दिखाया जाता है। फिर शाखा फिर उससे छोटी शाखा ऐसे अनुक्रम से चन्द्रमा दिखाया जाता है। तैसे ही बुद्धिवाले पुरुष को वेद भगवान् स्थूल देहादि अन्नमयादि पंच कोशों के अनुक्रम से ब्रह्मस्वरूप आत्मा को दिखाता है। अतिमन्दबुद्धि वाले देहात्मवादी चार्वाक तो अन्न आदि से उत्पन्न हुआ जो स्थूल देह इस अन्न के विकाररूप को ही पुरुष रूप आत्मा मानते हैं ||20||
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ||21||
गीता में श्री कृष्णचन्द्र भगवान् कहते हैं कि हे अर्जुन शरीर वाले अविनाशी नित्यात्मा के यह जो देखने में शरीर आते हैं, यह सर्व स्वप्न के शरीर के समान नाश वाले होने से शास्त्रों में अनित्य कहे हैं। इस प्रकार से कृष्ण भगवान् देह में आत्मबुद्धि का निषेध करते ||21||
शिरआक्रम्य पादेन भर्त्सयत्यपरान् शुनः ।
दृष्ट्वा साधारणं देहं कस्मात्सत्तोऽसितत्र भोः ||22||
नैष्कर्म्यसिद्धि में देहात्मवादी से सुरेश्वराचार्य कहते हैं कि जिस देह को अञ्जन भूषणों सेभूषित करते हैं उसी देह के मृत्यु होने पर वन में फैंके हुए के शिर को खाने के लिये श्वान अपने पाद से नीचे दबाकर अपना अधिकार जमाकर खाने के लिये आये हुए दूसरे श्वानों को क्रोध से तर्जनाकर पास नहीं आने देता है। हे देहात्मवादी ऐसे ही सर्वदेहों की समान दशा देखकर के भी आप किस कारण से तिस नाशवान देह में रागकर सक्त हो रहे हो ।।22।।
ब्राह्मण्यं कुलगोत्रे च नामसौन्दर्यजातयः ।
स्थूलदेहगता स्थूलाद्भिन्नस्य मे न हि ।।23।।
आत्मप्रबोधोपनिषद् में कहा है कि कुलीनता अकुलीनता और गोत्रपना और विष्णुदत्त आदि नाम सुन्दररूपता और कुरूपता और ब्राह्मणत्व आदि जातियाँ यह सर्व अन्नमय कोश रूप स्थूल शरीर के धर्म कहे हैं। और अन्नमय कोश रूप स्थूल देह से भिन्न आत्मा को जानने वाला कहता है कि ब्राह्मत्व आदि जातियाँ स्थूल देह के धर्म हैं मेरे शुद्धस्वरूप आत्मा के धर्म नहीं है ||23||
अन्योऽन्तर आत्मा प्राणमयः ||24||
तैत्तिरीयोपनिषद् में कहा है पूर्व उक्त अन्नमय कोशरूप स्थूल देह से भिन्न और स्थूल देह के भीतर दूसरा वायु का विकार प्राणरूप आत्मा है। ऐसा प्राणत्मवादी प्राणमयकोश को ही आत्मा मानते हैं ।। 24।।
हृदिप्राणः स्थितो नित्यमपानो गुदमण्डले ।
समानो नाभि देशे तु उदानः कण्ठमध्यगः ||25||
व्यानः सर्वशरीरे तु प्रधानाः पञ्चवायवः । उद्गारे नाग आख्यातः कूर्म उन्मीलने तथा ||26||
कृकरः क्षुत्करे ज्ञेयो देवदत्तो विजृम्भणे । न जहाति मृतं वापि सर्वव्यापी धनंजयः ||27||
योगचूड़ामण्युपनिषद् में कहा है कि हृदय में प्राण वायु रहता है और गुदाचक्र में अपान वायु रहता है। नाभि में समान वायु रहता है, कण्ठ में उदान वायु रहता है और सर्व शरीर में व्यान वायु रहता है।
यह पाँच वायु प्रधान कहे जाते हैं डकार लेने में नाग नाम का वायु प्रकट होता है नेत्रों के खोलने में कूर्मवायु होता है और छींक आने पर कृकर नाम का वायु कहा है, जम्भाई लेने में देवदत्त नाम का वायु कहा जाता है, और जो मृत्यु के होने पर भी शरीर को न त्याग कर देह को वजनदार कर देता है सो सर्वशरीर व्यापी वायु धनंजय नाम से कहा जाता है। यह उपर्युक्त डकार आदि गुणों से प्रगट होने से नागादि पांच वायु गौण कहे जाते हैं ||25-26-27||
द्विसप्तति सहस्राणि नाडीमार्गेषु वर्तते ।
अष्टाविंशति कोटीषु रोमकूपेषु संस्थिता ||28||
ध्यानबिन्दुपनिषद् में कहा है कि बहत्तर हजार नाड़ियों के छिद्रों में बर्तने वाला और अठाइस करोड़ रोमकूपों में बर्तने वाला वायु नाड़ी रोमादियों में संचार के भेद से नाना प्रकार का है ||28||
आहारस्य च भागौ द्वौ तृतीयमुदकस्य च ।
वायोः संचरणार्थाय चतुर्थमवशेषयेत् ।।29।।
सन्यासोपनिषद् में कहा है कि अभ्यासी पुरुष उदर के दो भागों को तो अन्न से पूर्ण करे और तीसरे भाग को जल से पूर्ण करे और चतुर्थ भाग को श्वास रूप वायु के संचार के लिये शेष रक्खे क्योंकि सुखपूर्वक श्वास रूप वायु के संचार से बिना अभ्यास नहीं हो सकता ||29||
अन्योऽन्तर आत्मा मनोमय : ||30||
तैत्तिरीयोपनिषद् में कहा है कि वायु के विकाररूप प्राणमय कोश से भिन्न प्राण के अन्तर में अति सूक्ष्म संकल्पविकल्प रूप मन को ही मनात्मवादी आत्मा मानते हैं ||30||
अन्योऽन्तर आत्मा विज्ञानः ।। 31 ।।
संकल्प-विकल्प – संशयात्मक मनोमय कोश से भिन्न और मनोमय के अन्तर में सार – असार ग्राही निश्चयात्मिका बुद्धि रूप विज्ञानमय कोश को ही विज्ञानात्मवादी आत्मा मानते हैं। प्राणमय कोश और मनोमय कोश और विज्ञानमय कोश यह तीनों कोश सूक्ष्म शरीर रूप कहे जाते हैं ||31||
क्षुत्पिपासान्ध्यबाधियं कामक्रोधादयोऽखिलाः ।
लिङ्गदेहगता एते ह्यलिङ्गस्य न सन्ति हि ।।32।।
आत्मप्रबोधोनिषद् में कहा है कि क्षुधा पिपासा प्राणों के धर्म हैं और अन्धा, बहिरा आदि चक्षु श्रोत्र आदि इन्द्रियों के धर्म हैं। और काम, क्रोध, लोभादि मन, बुद्धि के धर्म हैं। यह सर्व पूर्व-उक्त सूक्ष्म देह के धर्म कहे जाते हैं। और सूक्ष्म देह से रहित शुद्धात्मा के यह धर्म नहीं है ||32||
अन्योऽन्तर आत्मानन्दमयः ||33||
तैत्तिरीयोपनिषद् में कहा है कि कर्मकर्त्ता रूप बुद्धि विज्ञानमय कोश से भित्र अन्तर में शुभकर्म के फलभोगकाल में अन्तर्मुखी बुद्धि की वृत्ति में अति गूढ निद्रा के वश से आत्मानन्द के प्रतिबिम्ब रूप आनन्द को ही बहुत से आनन्दमयात्मवादी आत्मा मानते हैं ||33||
मनोबुद्धिरहंकारः खानिलाग्निजलानि भूः ।
एताः प्रकृतयस्त्वष्टौ विकाराः षोडशापरे ||34||
शरीरकोपनिषद् में कहा है कि मनरूप मूलप्रकृति और बुद्धिरूप महतत्व और सूक्ष्म अहंकार और आकाश-वायु-अग्नि-जल-भूमि यह आठ प्रकृतियाँ कहीं हैं। और श्रोत्र- त्वक् चक्षु- रसना घ्राण और गुदा उपस्थ- हाथ-पाद-वाणी और शब्द-स्पर्श रूप- रस- गन्ध और शरीर यह षोडश विकार कहे जाते हैं। पुरुष इन चौबीस तत्वों से पररूप पच्चीसवां तत्व है ||34||
मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त |
षोडशकश्चविकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः ||35||
सांख्यकारिका में कहा है कि मूलप्रकृति केवल कारण है और महतत्व आदि सात कारण और कार्य दोनों रूप कहीं हैं। और षोडशविकार केवल कार्य रूप ही हैं। और पुरुष कारण-कार्यता दोनों से रहित है। सांख्यमत में पुरुष को असंग मानना वेदान्त के अनुकूल है। और पुरुष को नाना मानना वेदान्त से विरुद्ध है ||35||
जडत्वप्रियमोहदत्वधर्माः कारणदेहगाः ।
न सन्ति मम नित्यस्य निर्विकारस्वरूपिणः ||36||
उल्लू आत्मप्रबोधोपनिषद् में कहा है कि जड़ता और वस्तु की प्राप्ति से प्रियता और भोगने से मोदता आदि धर्म अविद्या रूप कारण शरीर के कहे हैं। यह सच्चिदानन्द नित्य शुद्ध बुद्ध निर्विकार स्वरूप मुझ आत्मा के नहीं हैं। ऐसे ब्रह्मवेत्ता कहता है ||36||
उलूकस्य यथा भानुरन्धकारः प्रतीयते ।
स्वप्रकाशे परानन्दे तमो मूढस्य जायते ||37||
जैसे उल्लू को नित्य प्रकाशस्वरूप सूर्य अन्धकार रूप से प्रतीत होता है। तैसे ही मूढ अज्ञानी पुरुष को स्वप्रकाश परमानन्द आत्मस्वरूपब्रह्म में मरण-जन्म कर्त्ता भोक्ता रूप अज्ञान ही दृढ़ हो रहा है ||37||
राजपुत्रवत्तत्वोपदेशात् ।। 38।।
सांख्यदर्शन में कहा है कि जैसे किसी राजा का पुत्र दैववश से भील जाति वालों से पालन पोषण किया हुआ जवान होने पर अपने को भील मानता था। परन्तु जब राजमंत्रियों ने खोजकर कहा कि आप भील नहीं हो, आप राजपुत्र हो चलकर राज्यपालन करें, तब भील जाति का अभिमान त्यागकर उसने अपने को राजपुत्र मान लिया। तैसे ही पुरुष अज्ञान से ब्रह्मस्वरूप आत्मा को कर्ता-भोक्ता रूप जीव मानता है। परन्तु जब ब्रह्मवेता गुरु से अपने ब्रह्मात्मस्वरूप को जान लेता है। तब अपने को ब्रह्मात्मस्वरूप मानता है ||38||
ब्रह्म पुच्छं प्रतिष्ठा ||39।।
तैत्तिरीयोपनिषद् में कहा है कि अन्नमयादि पांच कोशों से और तीन शरीरों से भिन्न सर्व के अन्तर प्रकाशमान् सर्व का अधिष्ठान अद्वय आत्मस्वरूप पर ब्रह्म है। वेदान्तविचार से ऐसा जानकर प्राणि कृतकृत्य हो जाता है ।। 39 ।।
मनोबुद्धयहंकारचित्तानि नाहं न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे ।
नच व्योम भूमिर्न तेजो न वायुश्चिदानन्द रूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ||40||
निर्वाणाषट्रक में गोविन्द नाथजी ने शंकर भगवान् से पूछा कि आप कौन हो शंकराचार्य ने कहा मन बुद्धि अहंकार चित्त रूप चतुष्टय अन्तःकरण मैं नहीं हूँ। और श्रोत्र, त्वक्, चक्षु, रसना, घ्राण यह पाँच इन्द्रिय भी मैं नहीं हूँ और आकाश-वायु-अग्नि-जल-भूमि यह पाँच ‘भूत भी मैं नहीं हूँ। निश्चित सच्चिदानन्द कल्याणस्वरूप शिव मैं हूँ ||40||
भृगुवै वारूणिः । वरुणं पितरमुपससार ।।
अधीहि भगवो ब्रह्मेति तूं होवाच ।।
यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते ।।
येन जातानि जीवन्ति यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति ।।
तद्विजिज्ञासस्य ।। तद्ब्रह्मेति ।।41।।
तैत्तिरीयोपनिषद् में कहा है वरुण के पुत्र भृगु ऋषि अपने पिता वरुण के पास गये। और जाकर पिता से कहा कि भो भगवन् ! मेरे को आत्मस्वरूप ब्रह्म का उपदेश करो। तब तिस भृगु को वरुणजी आत्मस्वरूप ब्रह्म का स्वरूप कहते हैं। कि जिस ब्रह्म से यह दृश्य मान भूत प्राणी उत्पन्न होते हैं और जिस ब्रह्म से उत्पन्न हुए प्राणी रक्षित होते है. और जिस ब्रह्म में प्राणी मरकर प्रवेश करते हैं तिसको आत्मस्वरूप ब्रह्म जान सो ब्रह्म है ||41||
एष सर्वेषु भूतेषु गूढोऽऽत्मा न प्रकाशते ।
दृश्यते त्वग्रयया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शीभिः ||42||
कठोपनिषद् में यमराजा नचिकेता से कहते हैं कि जो यह सर्व भूतप्राणीयों में गूढ रूप से ब्रह्मस्वरूप आत्मा छिपा हुआ है। सो साधन हीन अशुद्ध मनवाले पुरुष को प्रकाशित नहीं होता है। अद्वैतबोधक वेदान्तशास्त्र का विचार करके अति सूक्ष्म शुद्धबुद्धि के अग्र भाग से साधनयुक्त सूक्ष्मदर्शी पुरुषों से ही ब्रह्मात्मस्वरूप देखा जाता है ।।42।। (आत्मप्रबोधो. मं. 17)
विषं दृष्ट्वाऽमृतं दृष्टवा विषं त्यजति बुद्धिमान् ।
आत्मानमपि दृष्ट्वाहमनात्मानं त्यजाम्यहम् ||43||
आत्मप्रबोधोपनिषद् में कहा है कि जैसे विष को देखकर और अमृत को देखकर बुद्धिमान् पुरुष विष को प्राणघाती जानकर त्याग देता है और अमृत को सुखकारी जानकर ग्रहण कर लेता है तैसे ही आत्मवेत्ता कहता है कि ब्रह्मस्वरूप आत्मा परमानन्द को जानकर अब मैं दुख रूप अनात्मरूप प्रपंच को त्यागता हूँ ||43||
यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय ।
तथा विद्वान्नामरूपाद्विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ||44||
मुण्डकोपनिषद् में कहा है कि जैसे गङ्गायमुनादि नदियां बहती हुई गंगा यमुनादि नाम को और श्वेत नीलादिरूप को त्यागकर समुद्र के साथ मिलकर एकरूपता को प्राप्त हो जाती हैं। तैसे ही विद्वान् ब्रह्मवेता मनुष्य-देव-असुर आदि नाम रूप से रहित होकर ब्रह्मा विष्णु आदि से भी उत्कृष्ट प्रकाशमान ब्रह्मात्मस्वरूप परम पुरुष को प्राप्त हो जाता है ।।44।।
नित्यबोधपरिपीडितं जगद्विभ्रमं नुदति वाक्यजा मतिः ।
वासुदेवनिहतं धनंजयो हन्ति कौरवकुलं यथा पुनः ||45||
संक्षेपशारीरक में कहा है कृष्णचन्द्र परमानन्द की दृष्टि से अन्यायकारी दुर्योधन आदि कौरवकुल को नष्ट हुए को जैसे पुनः अर्जुन हनन करता है। तैसे ही सत्यज्ञान आनन्दरूप आत्मबोध से बाधित हुए भ्रांतिजन्य संसार को तत्त्वमसि आदि महावाक्यों से उत्पन्न ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत बुद्धि पुनः नाश करती है ||45||
ब्रह्मविदाप्नोति परम्।। सत्यं ज्ञानमनन्तंब्रह्म ।।
यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन् ।। सोऽश्नुते सर्वान्कामान् सह ।।46।।
ब्रह्मात्मा के स्वरूपबोधक अवान्तर वाक्य और जीवं ब्रह्म की एकता रूप अद्वैतबोधक महावाक्य तैत्तिरीयोपनिषद् में ऐसे कहे हैं कि आत्मस्वरूप ब्रह्म का वेत्ता ही परममोक्ष को प्राप्त होता है। सो ब्रह्म कैसा है ? सत्यज्ञान अनन्त स्वरूप है। जो पुरुष परमनिर्मल आकाश के समान निर्मल बुद्धिरूप गुफा में स्थित ब्रह्मात्म स्वरूप को जानता है। सो पुरुष ब्रह्मानन्द को प्राप्त होने से सर्व कामनाओं को प्राप्त हुआ पूर्णकाम हो जाता ||46||
चार वेदों के चार महावाक्य
तत्त्वमसि ।।47।।
सामवेदगत छान्दोग्योपनिषद् का महावाक्य मंत्र ‘तत्त्वमसि’ है। अर्थ यह है उद्दालकने श्वेतकेतु पुत्र से कहा है कि तत्पद का लक्ष्य जो ब्रह्म सो त्वंपद का लक्ष्य साक्षी आत्मा तुम हो ।।47।।
प्रज्ञानं ब्रह्म ||48||
ऋग्वेदगत ऐतरेयोपनिषद् का महावाक्य मंत्र ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ है। इसका अर्थ यह है कि ज्ञानप्रकाशरूप आत्मा अद्वय विभु ब्रह्मरूप है || 48 ||
अयमात्मा ब्रह्म ||49||
अथर्ववेदगत माण्डूक्योपनिषद् का महावाक्य मंत्र ‘अयमात्मा ब्रह्म’ है। अर्थ यह है कि यह बुद्धि का साक्षी आत्मा परब्रह्म स्वरूप है ।।49।।
अहं ब्रह्मास्मि ||50||
यजुर्वेदगत बृहदारण्यकोपनिषद् का महावाक्य मंत्र- ‘अहं ब्रह्मास्मि’ है। अर्थ यह है कि मैं बुद्धि का साक्षी कूटस्थ आत्मा सच्चिदानन्द पर ब्रह्मस्वरूप हूँ। इन वेदों के महावाक्यों से उत्पन्न हुई ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत को निश्चय करने वाली बुद्धि कार्य प्रपञ्च के सहित अज्ञान की नाशक है ||50||
सूर्यो यथा सर्वलोकस्य चक्षुर्न लिप्यते चाक्षुषैर्बाह्मदोषैः ।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा न लिप्यते लोकदुखेन बाह्यः ||51||
कठोपनिषद् में कहा है कि जैसे सूर्य सर्व लोकों का प्रकाशक रूप चक्षु है। सो सूर्य नेत्रों के विषय रूप आदि के बाहर के दोषों में लिपायमान नहीं होता है। तैसे ही सर्व भूत प्राणियों के अन्तर में स्थित हुआ एक अद्वैतस्वरूप शुद्ध आत्मा बाहर के अनात्मदुःखों से लिपायमान नहीं होता है ||51||
न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्र तारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः ।।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ||52||
तिस शुद्ध आत्मास्वरूप ब्रह्म में सूर्य चन्द्रमा और तारागण प्रकाश नहीं कर सकते हैं। और न यह विद्युत प्रकाश कर सकती है तो यह लौकिक अग्नि तो क्या ही प्रकाश कर सकता है। तिस प्रकाशमान आत्मस्वरूप ब्रह्म के प्रकाश को लेकर पश्चात् सूर्य आदि सर्व प्रकाशित होते हैं तिस आत्मस्वरूप ब्रह्म के प्रकाश से ही यह दृश्यमान् सर्व प्रपश्च प्रकाशित होता है ||52||
भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्य: ।
भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः ||53||
कठोपनिषद् में कहा है कि इस सर्वप्रकाशक ब्रह्म के भय से अग्नि दाह और प्रकाश करता है। और तिस ब्रह्म के भय से ही सूर्य ताप और प्रकाश करता है। और तिस ब्रह्म के भय से ही इन्द्र वर्षा करने को भागता है। और वायु शोषण करने को भागता है। और पाँचवाँ यमराज प्राणियों के प्राण हरने कोभागता है ||53||
यथा पुष्करपलाशा आपो नश्लिष्यन्त ।
एवमेवंविदि पापं कर्म न श्लिष्यते ||54||
छांदोग्योपनिषद् मैं कहा है कि जैसे कमल के पत्र को जल में रहते हुए को भी जलों के दोष स्पर्श नहीं कर सकते हैं। तैसे हो एक अद्वैत आत्मस्वरूप शुद्ध ब्रह्मवित् पुरुष में पापकर्म स्पर्श नहीं कर सकते हैं ||54||
न साक्षिणं साक्ष्यधर्माः संस्पर्शन्ति विलक्षणम् ।
अविकारमुदासीनं गृहधर्माः प्रदीपवत् ||55||
कुण्डिकोपनिषद् में कहा है कि जैसे सर्व गृह के पदार्थों के प्रकाशक दीपक को गृह के शुभ अशुभ कर्मरूप धर्म स्पर्श नहीं कर सकते हैं। तैसे ही सर्व विकारों से रहित उत्कृष्ट सच्चिदानन्दरूप से स्थित उदासीन को दुःखरूप संसार से विलक्षण सुखरूप बुद्धि के प्रकाशक साक्षी को देहादि साक्ष्यरूप दृश्य के जन्ममरणादि धर्म स्पर्श नहीं कर सकते हैं ||55||
बुद्धेरेव गुणावेतौ नतु नित्यस्य वस्तुनः ।
अतस्ती मायया क्लृप्तौ बन्धमोक्षौ न चात्मनि ||56 ||
आत्मोपनिषद् में कहा है कि बन्ध और मोक्ष भी यह दोनों बुद्धि के ही धर्म हैं। नित्य शुद्धबुद्ध ब्रह्मात्मस्वरूप वस्तु के धर्म बन्ध और मोक्ष नहीं हैं। इस कारण माया से ही बन्ध मोक्ष दोनों कल्पित हैं। शुद्ध स्वरूप आत्मा में वास्तव से बन्ध और मोक्ष दोनों ही नहीं ||56||
(पशुपतब्रह्मो. मं. 46)
ब्रह्मज्ञानसम्पन्नः प्रतीतमखिलं जगत् ।
पश्यन्नपि सदा नैव पश्यति स्वात्मनः पृथक् ||57||
पशुपतब्रह्मोपनिषद् में कहा है कि एक अद्वैत आत्मस्वरूप ब्रह्मज्ञान सम्पन्न विद्वान ब्रह्मनिष्ठ इस दृश्यमान सर्व प्रपंच को सर्वदा इन्द्रजाल के समान देखता हुआ भी एक अद्वैत ब्रह्म स्वरूप निजात्मा से भिन्न सत्ता वाले किसी पदार्थ को नहीं देखता है। सर्व चराचर को ब्रह्मवेत्ता अपना आत्मस्वरूप ही देखता है ||57||
वासनानुदयो भोग्ये वैराग्यस्य तदावधिः ।
अहंभावोदयाभावो बोधस्य परमावधिः ||58||
लीनवृत्तेरनुत्पत्तिर्मर्यादोपरतेस्तु सा |
स्थितप्रज्ञो यतिरयं यः सदानन्दमश्नुते ||59||
अहं ब्रह्मेति विज्ञानात्कल्पकोटिशतार्जितम् ।
संचितं विलयं याति प्रबोधात्स्वप्नकर्मवत् ||60||
अध्यात्मोपनिषद् में वैराग्य, ज्ञान, उपरति इन तीनों की सीमा ऐसे कही हैं कि ब्रह्मलोक पर्यन्त सांसारिक भोग पदार्थों में भोगने की वासना इच्छा पुनः न उदय होना इसका नाम वैराग्य की सीमा कही है। और अहं कर्त्ता, अहं भोक्ता, अहं मम भाव का उदय न होने का नाम ज्ञान की परमावधि कही है ||58||
ब्रह्मात्मस्वरूप में लीन हुई मन की वृत्ति की पुनः उत्पत्ति न होना यह उपरति की सीमा कही है। ऐसा जो विरक्त यति ब्रह्मात्मस्वरूप में स्थित बुद्धि वाला है। सो सर्वदा परमानन्द को अनुभव करता है ||59||
सच्चिदानन्द परब्रह्म मैं हूँ ऐसे अपरोक्ष दृढ़ ज्ञान से सौ कोटि कल्पों में उपार्जित किये शुभाशुभ कर्म समस्त लय हो जाते हैं। जैसे स्वप्न में किये हुए पुरुष के हजारों ब्रह्महत्या, गो हत्यादि जागृत होने से सर्व लय हो जाते हैं। स्वप्न में किये हुए कोटि हिंसा चोरी आदि कर्मों का राजादि दण्ड नहीं होता। न परलोक में तिन कर्मों का फल शास्त्रों ने कहा है ||60||
विषयों में दोष दृष्टि होना वैराग्य का हेतु है ।।1।।
ब्रह्मलोक पर्यन्त भोगों के त्यागने की इच्छा वैराग्य का स्वरूप है ||2||
पुनः भोगों में दीन न होना यह वैराग्य का कार्य है ||3||
विवेक श्रवणादि ज्ञान के हेतु हैं ।।1।।
आत्म-अनात्म का विवेचन ही ज्ञान का स्वरूप है ।।2।।
जड़ चेतन के अध्यास रूप ग्रन्थि का उदय नहीं होना यह ज्ञान का कार्य है ||3||
यम-नियमादि उपरति के हेतु हैं ।।1।।
बुद्धि की वृत्ति का निरोध करना उपरति का स्वरूप है ।।2।।
संसारी व्यवहारों का अभाव होना यह उपरति का कार्य है ||3||
बुद्धिमान को इतने अवश्य जानने चाहिये ।