श्राद्धकर्म में तृप्तिदायक पदार्थ
हवि , मत्स्य , शशक ( खरगोश ) , नकुल , शूकर , छाग , कस्तूरिया मृग , कृष्ण मृग , गवय ( वनगाय ) और मेषके मांसोंसे तथा गव्य ( गौके दूध – घी आदि ) -से पितृगण क्रमशः एक – एक मास अधिक तृप्ति लाभ करते हैं और वार्धीणस पक्षी के मांस से सदा तृप्त रहते हैं ॥ हे नरेश्वर ! श्राद्धकर्म में गेंडे का मांस , कालशाक और मधु अत्यन्त प्रशस्त और अत्यन्त तृप्तिदायक हैं॥
गया में श्राद्ध का महत्व
जो पुरुष गया में जाकर श्राद्ध करता उसका पितृगणको तृप्ति देनेवाला वह जन्म सफल हो जाता है ॥
श्राद्ध के उपयुक्त द्रव्य
नीवार और श्याम तथा श्वेत वर्णके श्यामाक ( सावाँ ) एवं प्रधान – प्रधान वनौषधियाँ श्राद्ध के उपयुक्त द्रव्य हैं ॥ जौ , काँगनी , मूँग , गेहूँ , धान , तिल , मटर , कचनार और सरसों – इन सबका श्राद्धमें होना अच्छा है ॥
श्राद्ध में त्याज्य वस्तुएँ
जिस अन्न से नवान्न यज्ञ न किया गया हो तथा बड़े उड़द , छोटे उड़द , मसूर , कद्दू , गाजर , प्याज , शलजम , गान्धारक ( शालिविशेष ) बिना तुष के गिरे हु हुए धान्य का आटा , ऊसर भूमि में उत्पन्न हुआ लवण , हींग आदि कुछ – कुछ लाल रंग की वस्तुएँ , प्रत्यक्ष लवण और कुछ अन्य वस्तुएँ जिनका शास्त्रमें विधान नहीं है , श्राद्धकर्म में त्याज्य हैं ॥ हे राजन् ! जो रात्रिके समय लाया गया हो , अप्रतिष्ठित जलाशयका हो , जिसमें गौ तृप्त न हो सकती हो ऐसे गड्ढे का अथवा दुर्गन्ध या फेनयुक्त जल श्राद्धके योग्य नहीं होता ॥ एक खुरवालों का , ऊँटनी का , भेड़ का , मृगी का तथा भैस का दूध श्राद्धकर्म में काम में न ले ॥
श्राद्ध में अपवर्जित व्यक्तियों की दृष्टि
हे पुरुषर्षभ ! नपुंसक , अपविद्ध ( सत्पुरुषद्वारा बहिष्कृत ) , चाण्डाल , पापी , पाषण्डी , रोगी , कुक्कुट , श्वान , नग्न ( वैदिक कर्मको त्याग देनेवाला पुरुष ) वानर , ग्राम्यशूकर , रजस्वला स्त्री , जन्म अथवा मरणके अशौचसे युक्त व्यक्ति और शव ले जानेवाले पुरुष – इनमेंसे किसी की भी दृष्टि पड़ जाने से देवगण अथवा पितृगण कोई भी श्राद्धमें अपना भाग नहीं लेते ॥
श्राद्धकर्म की सावधानियाँ
अतः किसी घिरे हुए स्थान में श्रद्धापूर्वक श्राद्धकर्म करे तथा पृथिवी में तिल छिड़ककर राक्षसोंको निवृत्त कर दे ॥ हे राजन् ! श्राद्ध में ऐसा अन्न न दे जिसमें नख , केश या कीड़े आदि हों या जो निचोड़कर निकाले हुए रससे युक्त हो या बासी हो ॥
श्राद्ध में अन्न का महत्व
श्रद्धायुक्त व्यक्तियों द्वारा नाम और गोत्र के उच्चारणपूर्वक दिया हुआ अन्न पितृगणको वे जैसे आहारके योग्य होते हैं वैसा ही होकर उन्हें मिलता है ॥ हे राजन् ! इस सम्बन्धमें एक गाथा सुनी जाती है जो पूर्वकालमें मनुपुत्र महाराज इक्ष्वाकु के प्रति पितृगणन कलाप उपवनमें कही थी ॥ ‘ क्या हमारे कुलमें ऐसे सन्मार्ग – शील व्यक्ति होंगे जो गयामें जाकर हमारे लिये आदरपूर्वक पिण्डदान करेंगे ? ॥ क्या हमारे कुलमें कोई ऐसा पुरुष होगा जो वर्षाकाल की मघानक्षत्रयुक्त त्रयोदशी को हमारे उद्देश्यसे मधु और घृतयुक्त पायस ( खीर ) का दान करेगा ?
अथवा गौरी कन्या से विवाह करेगा , नीला वृषभ छोड़ेगा या दक्षिणासहित विधिपूर्वक अश्वमेध यज्ञ करेगा ? ‘ ॥