बाणासुर कौन था ?
एक बार बाणासुरने भी भगवान् त्रिलोचनको प्रणाम करके कहा था कि हे देव! बिना युद्धके इन हजार भुजाओंसे मुझे बड़ा ही खेद हो रहा है ॥ क्या कभी मेरी इन भुजाओंको सफल करनेवाला युद्ध होगा ? भला बिना युद्धके इन भाररूप भुजाओंसे मुझे लाभ ही क्या है ? ॥
श्रीशंकरजी बोले- हे बाणासुर ! जिस समय तेरी मयूरचिह्नवाली ध्वजा टूट जायगी, उसी समय तेरे सामने मांसभोजी यक्ष-पिशाचादिको आनन्द देनेवाला युद्ध उपस्थित होगा ॥
तदनन्तर, वरदायक श्रीशंकरको प्रणामकर बाणासुर अपने घर आया और फिर कालान्तरमें उस ध्वजाको टूटी देखकर अति आनन्दित हुआ ॥ इसी समय अप्सराश्रेष्ठ चित्रलेखा अपने योगबलसे अनिरुद्धको वहाँ ले आयी ॥ अनिरुद्धको कन्यान्तःपुरमें आकर उषाके साथ रमण करता जान अन्तःपुररक्षकोंने सम्पूर्ण वृत्तान्त दैत्यराज बाणासुरसे कह दिया॥ तब महावीर बाणासुरने अपने सेवकोंको उससे युद्ध करनेकी आज्ञा दी; किंतु शत्रु-दमन अनिरुद्धने अपने सम्मुख आनेपर उस सम्पूर्ण सेनाको एक लोहमय दण्डसे मार डाला ॥
अपने सेवकोंके मारे जानेपर बाणासुर अनिरुद्धको मार डालनेकी इच्छासे रथपर चढ़कर उनके साथ युद्ध करने लगा; किंतु अपनी शक्तिभर युद्ध करनेपर भी वह यदुवीर अनिरुद्धजीसे परास्त हो गया ॥ तब वह मन्त्रियोंकी प्रेरणासे मायापूर्वक युद्ध करने लगा और यदुनन्दन अनिरुद्धको नागपाशसे बाँध लिया ॥
श्रीकृष्ण और बाणासुरका युद्ध
इधर द्वारकापुरीमें जिस समय समस्त यादवोंमें यह चर्चा हो रही थी कि ‘अनिरुद्ध कहाँ गये ?’ उसी समय देवर्षि नारदने उनके बाणासुरद्वारा बाँधे जानेकी सूचना दी ॥ नारदजीके मुखसे योगविद्यामें निपुण युवती चित्रलेखाद्वारा उन्हें शोणितपुर ले जाये गये सुनकर यादवोंको विश्वास हो गया कि देवताओंने उन्हें नहीं चुराया ॥ तब स्मरणमात्रसे उपस्थित हुए गरुडपर चढ़कर श्रीहरि बलराम और प्रद्युम्नके सहित बाणासुरकी राजधानीमें आये ॥
नगरमें घुसते ही उन तीनोंका भगवान् शंकरके पार्षद प्रमथगणोंसे युद्ध हुआ; उन्हें नष्ट करके श्रीहरि बाणासुरकी राजधानीके समीप चले गये ॥
तदनन्तर बाणासुरकी रक्षाके लिये तीन सिर और तीन पैरवाला माहेश्वर नामक महान् ज्वर आगे बढ़कर श्रीभगवान्से लड़ने लगा ॥ [ उस ज्वरका ऐसा प्रभाव था कि ] उसके फेंके हुए भस्मके स्पर्शसे सन्तप्त हुए श्रीकृष्णचन्द्रके शरीरका आलिंगन करनेपर बलदेवजीने भी शिथिल होकर नेत्र मूँद लिये ॥ इस प्रकार भगवान् शार्ङ्गधरके साथ [ उनके शरीरमें व्याप्त होकर ] युद्ध करते हुए उस माहेश्वर ज्वरको वैष्णव ज्वरने तुरंत उनके शरीरसे निकाल दिया ॥ उस समय श्रीनारायणकी भुजाओंके आघातसे उस माहेश्वर ज्वरको पीड़ित और विह्वल हुआ देखकर पितामह ब्रह्माजीने भगवान्से कहा- ‘इसे क्षमा कीजिये ‘ ॥ तब भगवान् मधुसूदनने ‘अच्छा, मैंने क्षमा की’ ऐसा कहकर उस वैष्णव ज्वरको अपनेमें लीन कर लिया ॥
ज्वर बोला- जो मनुष्य आपके साथ मेरे इस युद्धका स्मरण करेंगे वे ज्वरहीन हो जायँगे, ऐसा कहकर वह चला गया ॥
तदनन्तर भगवान् कृष्णचन्द्रने पंचाग्नियोंको जीतकर नष्ट किया और फिर लीलासे ही दानवसेनाको नष्ट करने लगे ॥ तब सम्पूर्ण दैत्यसेनाके सहित बलि-पुत्र बाणासुर, भगवान् शंकर और स्वामिकार्त्तिकेयजी भगवान् कृष्णके साथ युद्ध करने लगे ॥ श्रीहरि और श्रीमहादेवजीका परस्पर बड़ा घोर युद्ध हुआ, इस युद्धमें प्रयुक्त शस्त्रास्त्रोंके किरणजालसे सन्तप्त होकर सम्पूर्ण लोक क्षुब्ध हो गये ॥ इस घोर युद्धके उपस्थित होनेपर देवताओंने समझा कि निश्चय ही यह सम्पूर्ण जगत्का प्रलयकाल आ गया है ॥
श्रीगोविन्दने जृम्भकास्त्र छोड़ा जिससे महादेवजी निद्रित- से होकर जमुहाई लेने लगे; उनकी ऐसी दशा देखकर दैत्य और प्रमथगण चारों ओर भागने लगे ॥ भगवान् शंकर निद्राभिभूत होकर रथके पिछले भागमें बैठ गये और फिर अनायास ही अद्भुत कर्म करनेवाले श्रीकृष्णचन्द्रसे युद्ध न कर सके ॥ तदनन्तर गरुडद्वारा वाहनके नष्ट हो जानेसे, प्रद्युम्नजीके शस्त्रोंसे पीड़ित होनेसे तथा कृष्णचन्द्रके हुंकारसे शक्तिहीन हो जानेसे स्वामिकार्त्तिकेय भी भागने लगे ॥
इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्रद्वारा महादेवजीके निद्राभिभूत, दैत्य-सेनाके नष्ट, स्वामिकार्त्तिकेयके पराजित और शिवगणोंके क्षीण हो जानेपर कृष्ण, प्रद्युम्न और | बलभद्रजीके साथ युद्ध करनेके लिये वहाँ बाणासुर साक्षात् नन्दीश्वरद्वारा हाँके जाते हुए महान् रथपर चढ़कर आया ॥ उसके आते ही महावीर्यशाली बलभद्रजीने अनेकों बाण बरसाकर बाणासुरकी सेनाको छिन्न-भिन्न कर डाला; तब वह वीरधर्मसे भ्रष्ट होकर भागने लगी ॥
बाणासुरने देखा कि उसकी सेनाको बलभद्रजी बड़ी फुर्तीसे हलसे खींच-खींचकर मूसलसे मार रहे हैं और श्रीकृष्णचन्द्र उसे बाणोंसे बीधें डालते हैं॥ तब बाणासुरका श्रीकृष्णचन्द्रके साथ घोर युद्ध छिड़ गया। वे दोनों परस्पर कवचभेदी बाण छोड़ने लगे। परंतु भगवान् कृष्णने बाणासुरके छोड़े हुए तीखे बाणोंको अपने बाणोंसे काट डाला, और फिर बाणासुर कृष्णको तथा कृष्ण बाणासुरको बींधने लगे॥ हे द्विज ! उस समय परस्पर चोट करनेवाले बाणासुर और कृष्ण दोनों ही विजयकी इच्छासे निरन्तर शीघ्रतापूर्वक अस्त्र-शस्त्र छोड़ने लगे ॥
अन्तमें, समस्त बाणोंके छिन्न और सम्पूर्ण अस्त्र- शस्त्रोंके निष्फल हो जानेपर श्रीहरिने बाणासुरको मार | डालनेका विचार किया ॥ तब दैत्यमण्डलके शत्रु भगवान् कृष्णने सैकड़ों सूर्योके समान प्रकाशमान अपने सुदर्शनचक्रको हाथमें ले लिया ॥
जिस समय भगवान् मधुसूदन बाणासुरको मारनेके लिये चक्र छोड़ना ही चाहते थे उसी समय दैत्योंकी विद्या (मन्त्रमयी कुलदेवी) कोटरी भगवान्के सामने नग्नावस्था में उपस्थित हई ॥
उसे देखते ही भगवान्ने नेत्र मूँद लिये और बाणासुरको लक्ष्य करके उस शत्रुकी भुजाओंके वनको काटनेके लिये सुदर्शनचक्र छोड़ा ॥ ३७ ॥ भगवान् अच्युतके द्वारा प्रेरित उस चक्रने दैत्योंके छोड़े हुए अस्त्रसमूहको काटकर क्रमशः बाणासुरकी भुजाओंको काट डाला [केवल दो भुजाएँ छोड़ दीं ] ॥ तब त्रिपुरशत्रु भगवान् शंकर जान गये कि श्रीमधुसूदन बाणासुरके बाहुवनको काटकर अपने हाथमें आये हुए चक्रको उसका वध करनेके लिये फिर छोड़ना चाहते है ॥ अतः बाणासुरको अपने खण्डित भुजदण्डोंसे लोहूकी धारा बहाते देख श्रीउमापतिने गोविन्दके पास आकर सामपूर्वक कहा- ॥
श्रीशंकरजी बोले- हे कृष्ण ! हे कृष्ण !! हे जगन्नाथ !! मैं यह जानता हूँ कि आप पुरुषोत्तम परमेश्वर, परमात्मा और आदि – अन्तसे रहित श्रीहरि हैं ॥ आप सर्वभूतमय हैं। आप जो देव, तिर्यक् और मनुष्यादि योनियोंमें शरीर धारण करते हैं यह आपकी स्वाधीन चेष्टाकी उपलक्षिका लीला ही है ॥ हे प्रभो ! आप प्रसन्न होइये। मैंने इस बाणासुरको अभयदान दिया है। हे नाथ! मैंने जो वचन दिया है उसे आप मिथ्या न करें ॥ हे अव्यय ! यह आपका अपराधी नहीं है; यह तो मेरा आश्रय पानेसे ही इतना गर्वीला हो गया है। इस दैत्यको मैंने ही वर दिया था, इसलिये मैं ही आपसे इसके लिये क्षमा कराता हूँ ॥
त्रिशूलपाणि भगवान् उमापतिके इस प्रकार कहने पर श्रीगोविन्दने बाणासुरके प्रति क्रोधभाव त्याग दिया और प्रसन्नवदन होकर उनसे कहा- ॥ श्रीभगवान् बोले- हे शंकर! यदि आपने इसे वर दिया है तो यह बाणासुर जीवित रहे। आपके वचनका मान रखनेके लिये मैं इस चक्रको रोके लेता हूँ ॥ आपने जो अभय दिया है वह सब मैंने भी दे दिया ।
हे शंकर! आप अपनेको मुझसे सर्वथा अभिन्न देखें ॥ आप यह भली प्रकार समझ लें कि जो मैं हूँ सो आप हैं तथा यह सम्पूर्ण जगत्, देव, असुर और मनुष्य आदि कोई भी मुझसे भिन्न नहीं हैं ॥ हे हर ! जिन लोगोंका चित्त अविद्यासे मोहित है, वे भिन्नदर्शी पुरुष ही हम दोनोंमें भेद देखते और बतलाते हैं। हे वृषभध्वज ! मैं प्रसन्न हूँ, आप पधारिये, मैं भी अब जाऊँगा ।
इस प्रकार कहकर भगवान् कृष्ण जहाँ प्रद्युम्नकुमार अनिरुद्ध थे वहाँ गये। उनके पहुँचते ही अनिरुद्धके बन्धनरूप समस्त नागगण गरुडके वेगसे उत्पन्न हुए वायुके प्रहारसे नष्ट हो गये ॥ तदनन्तर सपत्नीक अनिरुद्धको गरुडपर चढ़ाकर बलराम, प्रद्युम्न और कृष्णचन्द्र द्वाराकापुरीमें लौट आये ॥ वहाँ भू-भार- हरणकी इच्छासे रहते हुए श्रीजनार्दन अपने पुत्र-पौत्रादिसे घिरे रहकर अपनी रानियोंके साथ रमण करने लगे ॥