संगति

(पद्मपु. खण्ड. 1- अ. 23- श्लो. 6)

गंगादिपुण्यतीर्थेषु यो नरः स्नाति सर्वदा ।

यः करोति सतां सङ्ग तयोः तत्संगमो वर ।। 1।।

प्रथम अध्याय में शास्त्रमहिमा कही (हितं शास्यतीति शास्त्रं पुरुष के कल्याण की शिक्षा का बोधन करने वाला शास्त्र है।) शास्त्र के बिना धर्म, अधर्म, कर्म, उपासना, ज्ञान इनको कोई कह नहीं सकता, इस हेतु से व्यासजी के कथनानुसार साधु महात्माओं से वेदान्त शास्त्र का श्रवण अवश्य ही कर्त्तव्य है, अब इस दूसरे अध्याय में साधुओं के लक्षण और महिमा कथन करते हैं :-

पद्मपुराण में कहा है कि एक पुरुष तो गंगा आदि पुण्य तीर्थों में सदा स्नान करता है और एक पुरुष अद्वैत के चिन्तन करने वाले साधु महात्मा का सत्संग करता है तिन दोनों में सत्संग करने वाला ही श्रेष्ठ है।

(गर्गसं. खण्ड. 10-अ. 62 श्लो. 9)

गंगा पापं शशी तापं दैन्यं कल्पतरुर्हरेत् ।

पापं तापं तथा दैन्यं सद्यः साधुसमागमः ||2||

(स्कंद. पु. खण्ड . 6 – अ. 29- श्लो. 67)

साधूनां दर्शनं पुण्यं तीर्थभूता हि साधवः ।

कालेन फलते तीर्थं सद्यः साधुसमागमः ||3||

गर्गाचार्यजी कहते हैं कि गंगाजी में श्रद्धा से स्नान करने पर श्री गंगाजी केवल पापों का नाश करती है और चन्द्रमा धूप की गर्मी से तपायमान हुए के ताप को दूर करता है और कल्पवृक्ष उपासना करने पर केवल दरिद्र को दूर करता है, परन्तु साधु समागम तो पाप, ताप और दरिद्रता इन तीनों को तत्काल दूर करता है तात्पर्य यह है साधु महात्माओं के दर्शन से पाप का और उनके अद्वैत के उपदेश से संशय रूप ताप का और वीतरागता, संतोष धारणा आदि से दरिद्रता का नाश होता है ||2||

स्कंदपुराण में कहा है कि साधुओं के दर्शन से पुण्य होता है क्योंकि साधु तीर्थ रूप हैं गोदावरी आदि तो काल पाकर बारह वर्ष में पर्व पड़ने से स्नान करने वाले को पुण्य देने वाले हैं और साधु महात्मा शीघ्र ही दर्शन मात्र से पुण्य देने वाले हैं ||3||

(भा. स्कन्ध. 3-अ. 23- श्लो. 55)

संगो यः संसृतेर्हेतुरसत्सु विहितो घिया ।

स एव साधुषु कृतो निःसंगत्वाय कल्पते ||4||

(भा. स्कन्ध. 9- अ. 9- श्लो. 6)

साधवो न्यासिन: शांता ब्रह्मिष्ठा लोकपावनाः ।

हरन्त्यघं तेऽङ्ग संगात्तेष्वास्ते हाघभिद्धरिः ||5||

भागवत में कहा है कि दुष्टपुरुषों का संग जन्म मरण रूप संसार को देने वाला है यह ऋषि लोग कहते हैं ऐसे ही यदि ब्रह्मनिष्ठ साधुओं का संग किया जाय तो संसार से पार करने वाला होता है अर्थात् मोक्ष का देने वाला होता है ||4||

भागवत में कहा है कि राजा भगीरथ ने तपस्या करके गंगाजी को प्रसन्न किया तो गंगाजी ने कहा भागीरथ तुम्हारे को क्या चाहिये। भगीरथ ने कहा मैं पितरों के उद्धार के लिये आपको मृत्यु लोक में ले जाना चाहता हूँ। तब गंगाजी ने कहा मृत्युलोक में पापी । लोगों के पाप से मेरा कैसे उद्धार होगा ? भगीरथ ने कहा बीतराग शांत स्वरूप साधु महात्मा आप में स्नान कर आपके पापों को हरण कर देंगे क्योंकि साधु महात्माओं में पापों के हरण करने वाले हरि परमात्मा स्थित रहते हैं, ऐसा साधु समागम से ही पापों की निवृत्ति जानकर श्रीगंगाजी मृत्युलोक में आती भई ।।5।।

(भा. स्कंध 9 अ. 4- श्लो. 66)

मयि निर्बद्धहृदयाः साधवः समदर्शनाः ।

वशे कुर्वन्ति मां भक्त्या सत्स्त्रियः सत्पतिं यथा ||6||

भागवत में राजा अम्बरीष की कथा है- अम्बरीष एक समय मथुरा में एकादशी का व्रत करके द्वादशी के दिन यमुना में स्नान करते थे। सब शिष्यों के सहित दुर्वासा ऋषि वहाँ आये राजा अम्बरीष ऋषि का सत्कारकर भोजन करने के लिए प्रार्थना करते भवे। ऋषि ये कहा हम नित्य कर्म से निवृत्त होकर आयेंगे। ऋषि को नित्य कर्म में कुछ विलम्ब हो गया तब राजा ने कहा क्या करें ऋषि आये नहीं और द्वादशी में पार्णव करना है। तब ब्राह्मणों ने कहा हे राजन! जलपान से पार्णव कर लो इससे कोई हानि नहीं। तब राजा ने जलपान किया।

इतने में ऋषिजी आ गये और कहने लगे हे राजन् ! तुमने हमारे को निमन्त्रण देकर भोजन न कराकर पहिले ही जलपान किया है इससे तुम्हारे को शाप देता हूँ दुर्वासा ने क्रुद्ध होकर एक भयानक मूर्ति उत्पन्न करी वो राजा को मारने के लिए दौड़ी तब राजा ने विष्णु भगवान् के चक्र को याद किया, उसी काल में चक्र ने आकर उस भयानक मूर्ति को मार दिया और दुर्वासा को भी मारने के लिये पीछे भागा। दुर्वासा भयभीत होकर ब्रह्माजी के पास गये और कहा कि विष्णु के चक्र से मेरी रक्षा करो। ब्रह्माजी ने कहा महादेवजी के पास जाओ। तब वे महादेवजी के पास गये तो महादेवजी ने कहा विष्णुजी के पास जाओ।

तब दुर्वासा ब्रह्माजी व शिवजी से अरक्षित होकर विष्णुजी के पास गये तब विष्णुजी ने कहा हे ऋषिराज ! अम्बरीष के पास जाओ क्योंकि मेरे में मन लगाने वाले समदर्शी साधु पुरुष मेरे को भक्ति से ऐसे वश में कर लेते हैं जैसे श्रेष्ठ स्त्रियाँ श्रेष्ठ – पति को वश में कर लेती हैं ऐसे ही मैं भक्तों के वश में हैं। भक्तों के बिना आपकी रक्षा नहीं हो सकती, इससे आप अम्बरीष के पास जाओ वे ही आपकी रक्षा करेंगे।

दुर्बासा लखित होकर राजा के पास आये और नमस्कार किया तब राजा ने दण्डवत् नमस्कार कर दुर्वासा के चरण पकड़कर कहा लो भगवन् ! मैं आपकी बहुत काल से प्रतीक्षा कर रहा हूँ आप भोजन करें फिर मैं भोजन करूंगा। तब दुर्वासा ने भोजन किया फिर राजा ने भोजन किया ऐसे श्रेष्ठ पुरुषों का आचरण होता है ।।6।।

(भविष्यत्, पु. पर्व. 3-अ. 200- श्लो. 15)

साधुसंगमपूतेन वाक्सुभाषितवारिणा ।

पवित्रीकृतमात्मानं संतो मन्यन्ति नित्यशः ।।7।।

भविष्यत् पुराण में कहा है कि जिस पुरुष का साधु सत्संग से शुद्ध सत्यप्रिय परिमित भाषण हुआ है उस पुरुष के सत्य प्रिय भाषण को श्रवण कर साधु महात्मा जैसे तीर्थों के जलों में स्नान करने से पवित्रता होती है ऐसे अपने को पवित्र मानते हैं इस कारण से धर्मात्मा लोग विपत्ति के आने पर भी परिमित सत्य प्रिय भाषण को नहीं छोड़ते ।।7।।

(वाल्मी. काण्ड-6-सर्ग-113 – श्लो. 42 )

न परः पापमादत्ते परेषां पापकर्मणाम् ।

समयो रक्षितव्यस्तु संतश्चरित्रभूषणाः ||8||

वाल्मीकि रामायण में सीता हनुमानजी का संवाद है, जब पुत्र आदि के सहित रावण को रामचन्द्रजी ने मार दिया तब हनुमान् आदि ने रामजी की आज्ञा से अशोक वाटिका में जाकर सीताजी से नमस्कार कर कहा हे मातः ! जो राक्षसियां आपको कष्ट देती थीं, कहो अब उन सर्व को मार डालें तब सीताजी ने कहा हनुमन् ! क्षमा, दया और विचारयुक्त तामसी योनि एक भालू की कथा सुनो –

एक वन में वटका वृक्ष था उसके ऊपर चढ़कर एक भालू रात्रि को हमेशा निवास करता था किसी दिन एक राजा घोड़े पर चढ़कर शिकार खेलता हुआ उस वन में जा पहुँचा, सूर्य अस्त हो गया था रास्ता देखने में नहीं आता था तब राजा ने विचारा कि अब इस वन में प्राण रक्षा कैसे करें। चारों ओर देखने पर उसे एक वट दिखाई दिया, घोड़े को छोड़कर राजा उस वट पर जा बैठा और रात्रि को भालू भी अपने नियमानुसार आकर उसी वट के वृक्ष पर चढ़ गया और राजा को देखकर कुछ नहीं बोला।

तब अर्ध रात्रि में सिंह आया और वृक्ष पर पुरुष को और भालू को देखकर भालू से कहा कि इस पुरुष को नीचे गिरा दो यह अपने वनचरों का विरोधी है और अपना भक्ष है। भालू ने कहा कि जो अपने स्थान में आ जावे उसकी जैसे कैसे भी रक्षा करनी चाहिए यह सुन सिंह चला गया और भालू सो गया। तब सिंह फिर आया और पुरुष से कहा कि इस भालू को नीचे गिरा दो नहीं तो तुम्हारे को खा जायेगा, तब पुरुष ने भालू को नीचे गिराने को धक्का दिया त्यों ही भालू ने जागकर शाखा पकड़ ली और नीचे नहीं गिरा। सिंह ने भालू से कहा कि देखो !

तुम्हारे को इस पुरुष ने नीचे गिराना चाहा अब तो तुम इसको नीचे गिरा दो आधा हम खालेंगे आधा तुम खा लेना। यह सुन भालू ने कहा जो साधु महात्मा होते हैं वे पाप कर्म करने वाले पुरुषों के पाप कर्म की वार्ता को ग्रहण नहीं करते हैं, रक्षा करने का समय आने पर पाप कर्म करने वाला भी रक्षणीय है।

साधु महात्मा के ऐसे शुभ चरित्र भूषण रूप हैं, अस्तु । हे हनुमान ! जब तामसी योनि दुःख भालू का ऐसा चरित्र सुना जाता है तब मैं तो त्रिलोकीनाथ कृपानिधान श्रीरामचन्द्रजी की पत्नी हूँ और राक्षसियाँ तामसी स्वभाव वाली हैं यदि मैं इनको कष्ट दिलाऊँगी तो राक्षसियों से मेरे में क्या विशेषता होगी ? क्योंकि यह जीव अपने अदृष्ट के अनुसार सुख को भोगता है दूसरे को दोष लगाना अच्छा नहीं, मैं राक्षसियों को कष्ट देना नहीं चाहती ॥18॥

(भा. स्कन्ध 10 अ-84- श्लो. 13 )

यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातु के स्वधीः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः ।

यत्तीर्थबुद्धिः सलिले न कर्हिचिज्जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखर ||9||

भागवत में श्रीकृष्णचन्द्रजी का कथन है कि किसी काल में सूर्य ग्रहण के अवसर पर वसुदेवजी श्यामसुन्दर कृष्णचन्द्रजी सर्व यादवों के साथ कुरुक्षेत्र में जाकर यज्ञ करते भये। उस समय अनेक ऋषि महात्मा ब्रह्मानन्द स्वरूप श्रीकृष्णचन्द्रजी के और यज्ञ के दर्शन की लालसा से कुरुक्षेत्र में आतेभये। ऋषि-महात्माओं को आते देख सर्व को कल्याणकारी शिक्षा देने वाले धार्मिक व्यवस्था को स्थापन करने वाले श्रीकृष्ण भगवान्, उठकर नमस्कारपूर्वक सर्व प्रकार से ऋषियों का सत्कार करते भये और यथा योग्य सुखप्रद आसनों पर बिठाकर युधिष्ठिर आदि राजसमाज को सुनाते हुए कृष्ण भगवान कहते हैं – ‘कि जो पुरुष वीतराग ऋषि महात्माओं को सर्वव्यापी ब्रह्मरूप आत्म-अद्वैत के जानने वालों को ही अपना सर्वस्व मानते हैं |

 उनको ही तीर्थ रूप मानते हैं वे पुरुष ही श्रेष्ठ कहे जाते हैं और जो पुरुष शव रूप वात-पित्त-कफ के संघात (शरीर) में आत्मबुद्धि वाले हैं पुत्र-स्त्री आदि में सर्वस्व बुद्धि रखते हैं मृतिका, पत्थर आदि से बनी हुई मूर्तियों में ही केवल पूज्य बुद्धि वाले हैं, जल आदि में ही तीर्थ बुद्धि करने वाले हैं और ब्रह्मनिष्ठ ऋषि महात्माओं में पूजनीय बुद्धि वाले नहीं हैं वे पुरुष बैल और गर्दभ के समान हैं।’ ऐसे कृष्ण परमात्मा के वचन सुनकर ऋषि मंडल और युधिष्ठिर आदि राज-समाज अति पूर्णानन्द को प्राप्त हुआ ||9||

(गरुड़ पु. काण्ड- 1-अ-111 – श्लो. 12)

मातृवत्परदारेषु परद्रव्येषु लोष्टवत् ।

आत्मवत्सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः ।।10।।

(गीता. अ. 4 श्लो. 19)

यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः ।

ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधा: ।।11।।

गरुड़ पुराण में पण्डित का लक्षण कहा है कि जो पुरुष पराई स्त्रियों को माता रूप से देखता है और पराये द्रव्य को गन्दी मृतिका के ढेले के समान देखता है और सर्व प्राणी जात को अपना आत्मा रूप देखता है उसका नाम पण्डित है। दूसरा पण्डा नाम ब्रह्म- विषयणी बुद्धि है जिसकी उसका नाम पण्डित है।।10।।

गीता में श्रीकृष्ण भगवान् अर्जुन से कहते हैं कि जो पुरुष सर्वसंसारी कामना के संकल्पों से रहित है, जिसकी बुद्धि में शुभ-अशुभ कार्य समान है और जिसने संसार के देने वाले सर्वकर्म संशय विपर्यय से रहित सच्चिदानन्द शुद्ध बुद्ध अद्वैत ब्रह्मज्ञान रूप अग्नि से दग्ध कर दिये हैं उसको बुद्धिमान ऋषि लोग पण्डित कहते हैं ।।11।।

(मुक्तिको. अ. 2- मं. 44)

अङ्कुशेन विना मत्तो यथा दुष्टमतङ्गजः ।

अध्यात्मविद्याधिगमः साधुसंगतिरेव च ।।12।।

मुक्तिकोपनिषद् में कहा है कि जैसे अंकुश से शिक्षित हुआ हाथी अच्छे रास्ते पर चलता है और अंकुश से रहित दुष्ट हस्ती वन में चला जाता है तैसे ही पुरुष आत्म ज्ञान को प्राप्त हुआ भी साधु संगति के बिना विषय रूप वन में प्रविष्ट हो जाता है इस कारण से साधु संगति ज्ञानी को भी कर्तव्य है ।।12।।

(भा. स्कन्ध. 5-अ. 5 श्लो. 2)

महत्सेवां द्वारमाहुर्विमुक्तेस्तमोद्वारं योषितां संगिसंगम् ।

महान्तस्ते समचित्ताः प्रशान्ता विमन्यवः सुहृदः साधवो ये ।।13।।

भावगत में ऋषभदेवजी जीवन्मुक्ति के सुख के लिए राज्य को त्यागते हुए भरत आदि अपने पुत्रों को उपदेश करते हैं- हे पुत्रों ! साधु महात्माओं की सेवा को ऋषि लोग मुक्तिका द्वार कहते हैं और स्त्रियों के संगी के संग को नरक का द्वार कहते हैं। जब पुत्रों ने पूछा पिताजी साधुओं का क्या लक्षण है तो ऋषभदेवजी कहते हैं कि जो एक रस अद्वैत ब्रह्म में चित्त की स्थिति वाले हैं, शान्त स्वभाव और क्रोध से रहित हैं और सर्व के साथ सुहृदयता करने वाले और क्षमाशील हैं वे ही साधु है ।।13।।

(शिवपु. संहिता. 4-अ. 24- श्लो. 21-23)

यादृइनरं तु सेवेत तादृशं फलमश्नुते ।

महतस्सेवयोच्चत्वं क्षुद्रस्य क्षुद्रता तथा ।।14।।

सिंहस्थ मंदिरे सेवा मुक्ताफलकरी मता ।

शृगालमन्दिरे सेवा त्वस्थिलाभकरी स्मृता ||15||

शिवपुराण में कहा है कि जो जैसे पुरुष की सेवा करता है वो तैसा ही फल भोगता है अर्थात् महान् पुरुषों की सेवा से उच्चता को प्राप्त होता है और तुच्छ नीच पुरुषों की सेवा से नीचता को प्राप्त होता है ||14||

सिंह के घर की सेवा से क्या है ? उसकी गुफा में तलाश करने से मोतियों की प्राप्ति होती है और शृगाल के घर की तलाश रूप सेवा से अस्थियों की प्राप्ति होती है ।।5।।

MEGHA PATIDAR
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