एक दिन महाराज युधिष्ठिर ने भगवान से कहा- “हे प्रभो! कोई ऐसा उत्तम व्रत बताइए, जिसके प्रभाव से मनुष्यों के सांसारिक क्लेश दूर होकर वे धनवान-पुत्रवान हों।”
यह सुन भगवान बोले- “हे राजन्! तुमने बड़ा उत्तम प्रश्न किया है, मैं तुमको एक पौराणिक कथा सुनाता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो।”
पौराणिक कथा
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एक समय लोमस ऋषि मथुरापुरी में वसुदेव-देवकी के घर गये। ऋषि को आया हुआ देखकर दोनों अति प्रसन्न हुए तथा उनको उत्तम आसन पर बिठाकर उनकी वंदना कर सत्कार किया। तब मुनि प्रसन्न हुए तथा उनको उत्तम आसन पर बिठाकर उनकी वंदना कर सत्कार किया। तब मुनि प्रसन्न होकर उनको कथा सुनाने लगे। कथा कहते-कहते लोमस ऋषि बोले- “हे देवकी! दुष्ट, दुराचारी, पापी कंस ने तुम्हारे पुत्र मार डाले है, जिसके कारण तुम्हारा मन अत्यंत दुःखी है। इसी प्रकार राजा नहुष की स्त्री दुःखी रहा करती थी, किन्तु उसने संतान सप्तमी का व्रत किया, जिसके प्रताप से उसे संतान सुख प्राप्त हुआ।”
यह सुनकर देवकी ने मुनि से कहा- “हे मुनिवर ! कृपा करके चंद्रमुखी का सम्पूर्ण वृतांत व इस व्रत मुझे बताइए, जिससे मैं भी इस दुःख से छुटकारा पाऊँ।”
लोमस ऋषि ने कहा- “हे देवकी! अयोध्या के राजा नहुष थे, उनकी पत्नी चंद्रमुखी अत्यंत सुंदर थी। उसी नगर में विष्णुगुप्त नामक एक ब्राह्मण रहता था, उसकी स्त्री का नाम भद्रमुखी था। वह भी अत्यंत रूपवान स्त्री थी, रानी व ब्राह्मणी में अत्यंत प्रेम था। एक दिन वे दोनों सरयू नदी में स्नान करने गईं, वहाँ उसने देखा कि अन्य बहुत-सी स्त्रियाँ सरयू नदी में स्नान करके निर्मल वस्त्र पहनकर एक मंडप में श्री शिव-पार्वती की मूर्ति स्थापित कर उनकी पूजा कर रही थी।”
रानी व ब्राह्मणी ने यह देखकर उन स्त्रियों से पूछा- “बहिनों! तुम यह किस देवता का पूजन-व्रत आदि कर रही हो?” यह सुन उन स्त्रियों ने कहा कि- “हम संतान सप्तमी का व्रत कर रही हैं और हमने शिव-पार्वती, गणेश का पूजन अक्षत चंदन आदि षोडशोपचार विधि से किया है।” यह सुन रानी व ब्राह्मणी इस व्रत को करने का मन ही मन संकल्प करके घर वापस लौट आईं। ब्राह्मणी भद्रमुखी तो इस व्रत को नियमपूर्वक करती रही, किन्तु रानी चंद्रमुखी राजमद के कारण कभी इस व्रत को करती, कभी भूल जाती।
कुछ समय बाद यह दोनो मर गईं। दूसरे जन्म में रानी ने बंदरिया और ब्राह्मणी ने मुर्गी की योनि पाई, परन्तु ब्राह्मणी मुर्गी की योनि में भी कुछ नहीं भूली और भगवान शिव-पार्वती का ध्यान करती रही। उधर, रानी बंदरिया की योनि में सब कुछ भूल गई थी। कुछ समय बाद इन दोनों ने यह देह भी त्याग दी।
तीसरा जन्म मनुष्य योनि में हुआ। ब्राह्मणी ने तो एक ब्राह्मण के यहाँ कन्या रूप में जन्म लिया। उस ब्राह्मण कन्या का नाम भूषण देवी रखा गया तथा विवाह योग्य होने पर उसका विवाह अग्निभोज नामक ब्राह्मण से कर दिया गया। भूषण देवी के अति सुशील स्वभाव वाले आठ पुत्र पैदा हुए। यह सब शिवजी के व्रत का फल था। दूसरी ओर शिवजी की पूजा से विमुख निःसंतान रानी दुःखी रहने लगी।
रानी व ब्राह्मणी में जो प्रेम पूर्व जन्म में था, वह अब भी बना रहा। रानी जब वृद्धावस्था को प्राप्त होने लगी, तब उसके गूंगा, बहरा व बुद्धिहीन, अल्पायु वाला एक पुत्र हुआ तथा वह नौ वर्ष की आयु में ही संसार को छोड़कर चला गया। अब तो रानी पुत्र शोक मे बहुत दुःखी हो व्याकुल रहने लगी। । देव योग से के यहाँ अपने पुत्रों को लेकर पहुँची।
भूषण देवी ब्राह्मणी रानी रानी ब्राह्मणी के इस वैभव एवं आठ पुत्रों को देख उससे ईर्ष्या करने लगी। उस ब्राह्मणी ने रानी का दुःख दूर करने के लिए अपने आठों पुत्र रानी के पास छोड़ दिए। रानी ने पाप के वश उन ब्राह्मण-पुत्रों को लड्डू में जहर मिलाकर खिला दिया, परन्तु भगवान शिव की कृपा से एक भी न मरा।
जब भूषण देवी भगवान की पूजा-सेवा से निवृत्त होकर वहाँ आई, तो रानी ने उससे कहा- “मैंने तेरे पुत्रों को मारने के लिए लड्डू में विष मिलाकर खिला दिया, परन्तु इनमें से एक भी नहीं मरा। तूने ऐसा कौन-सा दान- पुण्य, व्रत किया है, जिसके कारण तेरे पुत्र भी नहीं मरे और तू नित्य नये सुख भोग रही है। इसका भेद मुझे निष्कपट कह, मैं तेरी बड़ी ऋणी रहूँगी।” रानी के ऐसे वचन सुन ब्राह्मणी ने कहा- “रानी! मैं तुम्हारे तीन जन्म का हाल कहती हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो। पहले जन्म में तुम राजा नहुष की चंद्रमुखी नामक पत्नी थी और मैं ब्राह्मणी थी, हम तुम अयोध्या में रहते थे और मेरा तुम्हारा बड़ा प्रेम था।
एक दिन हम तुम सरयू में स्नान करने गए, तो वहाँ कुछ स्त्रियों को संतान-सप्तमी का व्रत व शिव-पूजन करते देख हम तुमने भी उस व्रत को करने का निश्चय किया, किन्तु तुम तो राजमद के कारण सब भूल गईं, जिसका फल तुम आज भी भोग रही हो और मैंने इस व्रत को नियमपूर्वक सदैव किया और आज भी करती हूँ।
दूसरे जन्म में तुम्हें बंदरिया की और मुझे मुर्गी की योनी मिली, शिव की कृपा और व्रत के प्रभाव से मैं भगवत-स्मरण को इस जन्म में भी न भूली और व्रत को नियमपूर्वक करती रही और तुम अपने इस संकल्प को इस जन्म में भी भूल गई। मैं समझती हूँ कि तुम्हारे ऊपर यह जो भारी संकट है, उसका एकमात्र यही कारण है। इसलिए मैं कहती हूँ कि आप अब भी इस संतान-सप्तमी के व्रत को करिए, जिससे तुम्हारा यह संकट दूर हो जावे।”
लोमस ऋषि बोले- “हे देवकी! इतना सुन रानी ब्राह्मणी के चरणों में पड़कर क्षमा-याचना करने लगी और शिव-पार्वती की अपार महिमा के गीत गाने लगी। उस दिन से रानी ने नियमानुसार संतान-सप्तमी का व्रत किया, जिसके प्रभाव से रानी संतान सुख भोगकर अंत में शिवलोक को गई। हे देवकी! भगवान शिव के व्रत का ऐसा प्रभाव है कि पथभ्रष्ट मनुष्य भी अपने पथ पर अग्रसर हो जाता है और अंत में ऐश्वर्य भोगकर मोक्ष पाता है।” लोमस ऋषि कहने लगे- “हे देवकी! इसलिए मैं तुमसे भी कहता हूँ कि तुम भी इस व्रत को करने का अपने मन में दृढ़ संकल्प करो तो तुमको भी संतान सुख प्राप्त होगा।”
इतनी कथा कह कर भगवान श्रीकृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा कि- “लोमस ऋषि इस प्रकार हमारी माता को शिक्षा देकर चले गए। ऋषि के कथनानुसार माता देवकी ने यह व्रत को किया, जिसके फलस्वरूप मेरा जन्म हुआ। यह व्रत विशेष रूप से स्त्रियों को कल्याणकारी है, परन्तु पुरुषों को भी समान रूप से कल्याणदायक है। यह संतान सुख देने वाला व पापों का नाशक उत्तम व्रत है, जिसे स्वयं करें और दूसरों से भी करावें। जो नियमपूर्वक इस व्रत को करके भगवान शिव-पार्वती की सच्चे मन से आराधना करता है, वह अंत में शिवलोक को पाता है।”
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FAQ (Frequently Asked Questions)
संतान सप्तमी व्रत क्या है?
संतान सप्तमी व्रत एक पवित्र व्रत है जो विशेष रूप से संतान सुख प्राप्ति के लिए किया जाता है। इसे भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा के साथ किया जाता है, जिससे संतान संबंधी कष्ट दूर होते हैं और सुख-समृद्धि प्राप्त होती है।
संतान सप्तमी व्रत कब किया जाता है?
यह व्रत मुख्य रूप से भाद्रपद महीने के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को किया जाता है। इस दिन शिव-पार्वती और गणेश जी की पूजा की जाती है।
संतान सप्तमी व्रत कौन कर सकता है?
संतान सुख प्राप्ति की कामना करने वाली स्त्रियां इसे मुख्य रूप से करती हैं। हालांकि, इस व्रत का फल पुरुषों के लिए भी लाभकारी होता है, और वे भी इसे कर सकते हैं।
संतान सप्तमी व्रत का क्या लाभ है?
इस व्रत के फलस्वरूप व्रती को संतान सुख प्राप्त होता है। यह व्रत न केवल संतान के सुख के लिए, बल्कि जीवन के अन्य कष्टों को दूर करने और मोक्ष की प्राप्ति के लिए भी अत्यंत प्रभावकारी माना जाता है।
संतान सप्तमी व्रत की पूजा विधि क्या है?
इस दिन स्नान कर शुद्ध वस्त्र धारण करें। शिव-पार्वती और गणेश जी की मूर्ति या तस्वीर के सामने दीप जलाकर पूजा करें। पूजा में अक्षत, चंदन, फूल, धूप, नैवेद्य, और अन्य पूजन सामग्रियों का उपयोग करें। इसके बाद व्रत कथा का श्रवण करें और व्रत का संकल्प लें।
क्या व्रत के दौरान पूरे दिन उपवास करना होता है?
हाँ, इस व्रत के दौरान उपवास रखा जाता है। उपवास के अंत में, पूजा-अर्चना और व्रत कथा सुनने के बाद व्रत खोला जाता है। अगर शारीरिक स्थिति उपवास की अनुमति न दे, तो फलाहार लिया जा सकता है।
क्या संतान सप्तमी व्रत एक ही बार किया जाता है या बार-बार करना होता है?
संतान प्राप्ति और सुख के लिए यह व्रत एक बार किया जा सकता है। लेकिन इसे प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल सप्तमी पर करना अधिक शुभ माना जाता है। इसके नियमित करने से संतान और परिवार के सभी कष्ट दूर होते हैं।
यदि कोई व्रत भूल जाए तो क्या करें?
यदि आप व्रत को भूल जाएं तो अगली सप्तमी तिथि पर इसे नियमपूर्वक कर सकते हैं। सबसे महत्वपूर्ण है, सच्चे मन से भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा करना।
क्या पुरुष भी संतान सप्तमी व्रत कर सकते हैं?
हाँ, पुरुष भी यह व्रत कर सकते हैं। हालांकि, इसे मुख्य रूप से महिलाएं करती हैं, लेकिन पुरुष भी संतान सुख और अन्य लाभों के लिए यह व्रत कर सकते हैं।
संतान सप्तमी व्रत की कथा क्यों सुननी चाहिए?
व्रत की कथा सुनने से मन में दृढ़ विश्वास और संकल्प उत्पन्न होता है, जो व्रत की पूर्णता और फल प्राप्ति के लिए आवश्यक है। कथा के माध्यम से व्रती को शिव-पार्वती की महिमा का ज्ञान होता है और वे व्रत के महत्व को समझते हैं।
इस व्रत में कौन से दान और पूजा सामग्री आवश्यक है?
इस व्रत में पूजा के लिए धूप, दीप, फूल, चंदन, और मिठाई चढ़ाई जाती है। साथ ही, शिव-पार्वती की प्रतिमा के समक्ष व्रत कथा सुनने और सुनाने का विधान है। पूजा के बाद गरीबों को वस्त्र, भोजन और दान देना शुभ माना जाता है।