संतोषी माता (शुक्रवार) व्रत कथा

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शुक्रवार को संतोषी माता की पूजा व व्रत करके गुड़, चने की दाल का भोग लगाना चाहिए। इस दिन खट्टी चीजों को छूना व खाना वर्जित है। गुड़ व चने पूजन के बाद गाय को खिला देना चाहिए। संतोषी माता की कथा व्रत करने वाले को सुनना चाहिए।

सिद्ध सदन सुंदर बदन गणनायक महाराज। दास आपका हूँ सदा कीजै जन के काज। जय शिव शंकर गंगाधर जय जय उमा भवानी। सिया राम कीजै कृपा हरि राधा कल्याणी| जय सरस्वती जय लक्ष्मी जय जय गुरु दयाल। देव विप्र औ संत जय भारत देश विशाल। चरण कमल गुरुजनों के नमन करूँ मैं शीश। मो घर सुख सम्पनि भरी देकर शुभ आशीष।

भक्त बन्धुओं और बहिनों,

आज एक ऐसी पवित्र वार्ता चरित्र रूप में सुना रहे हैं, जिसको श्रद्धापूर्वक मनन करने व सुनने से सत्गृहस्थ प्राणियों से युक्त घर में हर प्रकार का सुख और संतोष आता है। यह देवी अनेकों रूप वाली बनकर संसार में व्याप्त हो रही हैं। संसार के सुखों को खोजने वाले लोगों ने बहुत जगह इस देवी का प्रभाव देखा है, लाखों भक्त इस घटघट व्यापी महान शक्ति को भक्तिपूर्वक धारण कर हर प्रकार से सुखी बन चुके हैं।

इस परम् महान अलौकिक दैवी शक्ति का नाम सच्ची श्रद्धा एवं अन्तःकरण का निष्कर्ष स्वाभाविक प्रेम है। जगत के समस्त पदार्थों पर राज्य करने वाली अलौकिक सत्ता का रूप आप अपने नेत्रो से नहीं देख सकेंगे, क्योकि यह सर्वत्र उपस्थित होते हुए भी निराकार और अगोचर है।

माता उमा को इसका रूप बताते हुए भगवान शंकर ने कहा है कि प्रभु को प्रत्यक्ष देखना हो तो अपने हृदय के प्रेम में देखो, जब प्रभु के द्वारपाल जय विजय शाप के कारण रावण, कुम्भकरण हुए, तब उनके अत्याचारों से दुःखी होकर देवताओं ने सर्वरक्षक नारायण से प्रार्थना की कि-हे प्रभु! हमारी रक्षा करो, परन्तु इतने पर भी प्रभु प्रकट नहीं हुए, तब भगवान शंकर ने बताया, दूर क्यों जाते हो, प्रभु को हृदय में खोजो। दोहा-हाजिर हैं हर जगह पर प्रेम रूप अवतार। करे न देरी एक पल हो यदि सत्यविचार।

प्रेमी के वश में बँधे, माँगे सोई देत। बात न टाले भक्त की, परखे सच्चा हेत ।।

संसार में हर प्राणी को चाहिए कि अपनी धारणा को सच्ची बनाकर रखे। प्रेम का यह मूल मंत्र है, मन से यह बात कभी न टले, भगवान प्रेम के बस में हैं, वह स्वामी हैं। हम सेवक हैं, सब काम उन्हीं के बस में है। हम सदा उन्हीं का ध्यान धरें, कुछ मन में भेद नहीं रखें। वह सत्य रूप सब साक्षी हैं, सब जीव उन्हीं के वश में हैं। सूरज में जैसे है प्रकाश, चंद्रमा में शीतलता छाई। वायु में जैसे है प्रवाह वे ईश व्याप्त सर्वत्र में हैं।

अब और ध्यान में मत भटको, बस उन्हीं का ध्यान धरो। प्रभु होवेंगे शीघ्र साकार सब करुणा के रस में है। इसलिए खड़े हो जाओ और सब मिलकर हरि वाणी का गान करो। नारायण अभी प्रकट होंगे। ऐसी ताकत हरि यश में है। श्री कृष्ण भगवान स्वयं गीता के चतुर्थ अध्याय में बतलाते हैं-श्रद्धा वाले को ज्ञान मिले, तत्पर इंद्रिय वाला हो। पावे। मोज्ञान शीघ्र ही सब सुख शांति नेह निराला हो।

दोहा

वन में दावानल लगी, चंदन वृक्ष जरात।

वृक्ष कहे हंसा सुनो, क्यों न पंख खोल उड़ जात।

प्रारब्ध पहले रचा, पीछे रचा शरीर।

तुलसी माया मोह फंस प्राणी फिरत अधीर!!

तुलसी मीठे वचन से सुख उपजत चहुँ ओर।

वशीकरण यह मंत्र है तजदे वचन कठोर !!

मन, मोह, आसक्ति तजि बनो अध्यात्म अकाम।

द्वंद्व मल सुख रहित नर पावत अव्यय धाम ।।

तीन नरक के द्वार हैं काम, क्रोध अरु लोभ। उन्हें त्याग कीन्हें मिलत आत्म सुख विमोक्ष। सब धर्मों का त्याग कर सो शरणागति धार। सब पापों से मैं तेरा शीघ्र करूँ उद्धार। यह गीता का ज्ञान है, सब शास्त्रों का सार। भक्ति सहित जो नर पढ़े लहे आत्म उद्धार।। गीता के सम ज्ञान नहीं मंत्र न प्रेम से आन। शरणागति सम सुख नहीं देव न कृष्ण समान। अमृत पी संतोष का हरि से ध्यान लगाय। सत्य राख संकल्प मन विजय मिले जहाँ जाए, मन चाही सब कामना आप ही पूरन होय। निश्चय रख भगवान पर पल में दे सब दुःख खोय।

विधि

संतोषी माता के पिता गणेश माता रिद्धी-सिद्धी, धन-धान्य, सोना-चाँदी, मोती-मूंगा, रत्नो से भरा परिवार, गणपति पिता की दुलार भरी, गणपति देव की कमाई दरिद्रता दूर, कलह का नाश, सुख-शांति का प्रकाश, बालक की फुलवारी, धंधे में मुनाफे की भारी कमाई, मन की कामना पूर्ण, शोक विपत्ति चिंता सब चूर्ण। माता का लो नाम, जिससे बने सारे काम, बोलो संतोषी माता की जय।

इस व्रत को करने वाला कथा के पूर्व कलश को जल से पूर्ण भरे। उसके ऊपर गुड़ व चने से भरी कटोरी रखे। कथा कहते व सुनते समय हाथ में गुड़ और भुने चने रखे। सुनने वाले ‘संतोषी माता की जय’, ‘संतोषी माता की जय’ इस प्रकार जय-जयकार से बोलते जाएँ। कथा समाप्त होने पर हाथ का गुड़ और चना गौ माता को खिलाएँ। कलश में रखा हुआ गुड़ व चना सबको प्रसाद के रूप में बाँट दें। कथा समाप्त होने और आरती के बाद कलश के जल को घर में सब जगह पर छिड़कें, बचा हुआ जल तुलसी की क्यारी में डालें।

माता भावना की भूखी है, कम ज्यादा का कोई विचार नहीं, अतएव जितना भी बन पड़े प्रसाद अर्पण कर श्रद्धा और प्रेम में प्रसत्र मन हो व्रत करना चाहिए। व्रत के उद्यापन में अढ़ाई सेर खाजा, चने का साक मोइनदार पूड़ी, खीर नैवेद्य रखें। घी का दीपक जला संतोषी माता की जय जयकार बोल नारियल फोड़ें।

इस दिन घर में कोई खटाई न खाए, न दूसरे को खटाई खाने दें। इस दिन ८ लड़कों को भोजन कराएँ। देवर, जेठ, पर के ही लड़के हों तो दूसरों को बुलाना नहीं, अगर कुटुम्ब में न मिले. तो ब्राह्मणों के, रिश्तेदारों के या पड़ोसियों के लड़के बुलाएँ। उन्हें खटाई की कोई वस्तु न दें तथा भोजन करा यथाशक्ति दक्षिणा दें। नगद पैसा न दें, कोई वस्तु दक्षिणा में दें। व्रत करने वाला कथा सुन प्रसाद ले, एक समय मोजन करे। इस तरह माता अत्यंत खुश होंगी और दुःख-दरिद्रता दूर होकर मनोकामना पूरी होगी।

कथा

एक बुढ़िया थी। उसके सात पुत्र थे। छः कमाने वाले थे और एक निकम्मा था। बुढ़िया माँ छहों पुत्रों की रसोई बनाती, भोजन कराती और पीछे जो बचता सातवें को दे देती थी, परन्तु वह बड़ा भोला-भाला था, मन में कुछ विचार न करता था। एक दिन अपनी बहू से बोला- “देखो! मेरी माता का मुझ पर कितना प्रेम है।” वह बोली- “क्यों नहीं, सबका जूठा बचा हुआ तुमको खिलाती है।” वह बोला- “भला ऐसा भी कहीं हो सकता है, जब तक आँखों से न देखूँ, मान नहीं सकता।” बहू ने हँसकर कहा- “तुम देख लोगे, तब तो मानोगे।”

कुछ दिन बाद बड़ा त्यौहार आया। घर में सात प्रकार के भोजन और चूरमा के लड्डू बने। वह जाँचने को सिरदर्द का बहाना कर पतला कपड़ा सिर पर ओढ़कर रसोई घर में सो गया और कपड़े में से सब देखता रहा। छहों भाई भोजन करने आए, माँ ने उनके लिए सुंदर-सुंदर आसन बिछाये, सात प्रकार की रसोई परोसी, वह आग्रह करके जिमाती है, वह देखता रहा।

छहों भाई भोजन कर उठे, तो माँ ने उनकी जूठी थाली में से लड्डुओं के टुकड़ों को उठाया और एक लड्डू बनाया, झूठन साफ कर माँ ने उसे पुकारा “उठ बेटा, छहों भाई भोजन कर चुके। अब तू ही बाकी है। उठ न कब खाएगा?” वह उठते हुए बोला- “माँ मुझे भोजन नहीं करना मैं परदेस जा रहा हूँ।” माता ने कहा- “कल जाता हो तो आज ही जा।” वह बोला- “हाँ, हाँ आज ही जा रहा हूँ।”

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यह कह घर से चल दिया, चलते समय बहू की याद आई, वह गौशाला में कंडे थाप रही थी, वहाँ जाकर बोला- दोहा-हम जावें परदेस को आवेगे कुछ काल, तुम रहियो संतोष से धरम आपनो पाल। वह बोली-जाओ पिया आनंद से, हमरो सोच हटाय। राम भरोसे हम रहें ईश्वर तुम्हें सहाय। देऊ निशानी आपनी देख धरूँ मैं धीर। सुधि मति हमरी बिसारियो रखियो मन गंभीर।

वह बोला- “मेरे पास यह अँगूठी है, सो ले और अपनी कोई निशानी मुझे दे।” वह बोली-“मेरे पास क्या है, यह गोबर भरा हाथ है।” यह कहकर उसकी पीठ में गोबर के हाथ की थाप मार दी। वह चल दिया, चलते- चलते दूर देश पहुँचा। वहाँ एक साहूकार की दुकान थी। वहाँ जाकर कहने लगा- “भाई मुझे नौकरी पर रख लो।” साहूकार को जरूरत थी, वह बोला- “रह जा।”

लड़के ने पूछा- “तनख्वाह क्या दोगे?” साहूकार बोला- “काम देखकर दाम मिलेंगे।” उसे साहूकार के पास नौकरी मिली। वह सवेरे ७ बजे से रात तक नौकरी बजाने लगा, कुछ दिनों में दुकान का लेन-देन, हिसाब- किताब, ग्राहकों को माल बेचना, सारा काम करने लगा। साहूकार के ७- ८ नौकर थे, वे सब चक्कर खाने लगे कि – “यह तो बहुत होशियार हो गया।” सेठ ने भी काम देखा और तीन महीने में उसे आधे मुनाफे का हिस्सेदार बना लिया। कुछ ही वर्षों में वह नामी सेठ बन गया और मालिक सारा कारोबार उस पर छोड़कर बाहर चला गया। अब बहू पर क्या बीती सो सुनो! सास-ससुर उसे दुःख देने लगे।

सारी गृहस्थी का काम कराके लकड़ी लेने जंगल भेजते, इस बीच घर की रोटियों के आटे से जो भूसी निकलती, उसकी रोटी बनाकर रख दी जाती और फूटे नारियल की नरेंठी में पानी। इस तरह दिन बीतते रहे। एक दिन वह लकड़ी लेने जा रही थी कि रास्ते में बहुत-सी स्त्रियाँ संतोषी माता का व्रत करती दिखाई दीं।

वह वहाँ खड़ी हो कथा सुनकर बोली- “बहिनों यह तुम किस देवता का व्रत करती हो और इसके करने से क्या फल मिलता है, इस व्रत के करने की क्या विधि है? यदि तुम अपने इस व्रत का विधान मुझे समझाकर कहोगी, तो मैं तुम्हारा बड़ा उपकार मानूँगी।” तब उनमें से एक स्त्री बोली- “सुनो यह संतोषी माता का व्रत है, इसके करने से निर्धनता, दरिद्रता का नाश होता है। लक्ष्मी आती है। मन की चिंताएँ दूर होती हैं।

घर में सुख होने से मन को प्रसन्नता और शांति मिलती है। निपुत्री को पुत्र मिलता है, स्वामी बाहर गया हो, तो जल्सी आवे, क्वांरी कन्या को मनपसंद वर मिले, राजद्वार में बहुत दिनों से मुकदमा चलता हो तो खत्म हो जावे। सब तरह सुख-शांति हो, घर में धन जमा हो, पैसा-जायदाद का लाभ हो। रोग दूर हो जाये तथा और कुछ मन में कामना हो, सो वे सब इस संतोषी माता की कृपा से पूरी हो जावे, इसमें संदेह नहीं।” वह पूछने लगी- “यह व्रत कैसे किया जावे, यह भी बताओ तो बड़ी कृपा होगी।”

स्त्री कहने लगी-“सवा आने का गुड़-चना लेकर, इच्छा हो तो सवा पाँच आने का लेना या सवा रुपये का सहूलियत के अनुसार लेना। बिना परेशानी, श्रद्धा और प्रेम से जितना बन सके सवाया लेना। हर शुक्रवार को निराहार रह कथा सुनना, इसके बीच नियम टूटे नहीं, लगातार नियम का पालन करना, सुनने वाला कोई न मिले, तो घी का दीपक जला, उसके आगे जल के पात्र को रख कथा कहना, परन्तु नियम न टूटे। जब तक कार्य सिद्ध न हो, नियम पालन करना और कार्य सिद्ध हो जाने पर व्रत का उद्यापन करना।

तीन मास में माता फल पूरा करती हैं, यदि किसी के ग्रह खोटे हो, तो भी माता ३ वर्ष में अवश्य कार्य सिद्ध करती हैं। कार्य सिद्ध हो जाने पर ही उद्यापन करना चाहिए, बीच में नहीं। उद्यापन में अढ़ाई सेर आटे का खाजा तथा इसी परिमाण से खीर तथा चने का साग करना, आठ लड़को को भोजन कराना, जहाँ तक मिले देवर, जेठ, भाई बंधु, कुटुम्ब के लड़के लेना, न मिले तो रिश्तेदारों और पड़ोसियों के लड़के बुलाना, उन्हें भोजन करा यथाशक्ति दक्षिणा दे माता का नियम पूरा करना, उस दिन घर में खटाई कोई न खाये।”

यह सुन बुढ़िया के लड़के की बहू चल दी, रास्ते में लकड़ी के बोझ को बेच दिया और उन पैसों से गुड़-चना ले, माता के व्रत की तैयारी कर आगे चली, सामने मंदिर देख पूछने लगी- “यह मंदिर किसका है?” सब कहने लगे-“संतोषी माता का मंदिर है।” यह सुन मंदिर में जा माता के चरणो में लोटने लगी। दीन होकर विनती करने लगी- “माँ मैं निपट अज्ञानी हूँ, व्रत के नियम कुछ जानती नहीं।

मैं बहुत दुःखी हूँ, हे माता जगजननी ! मेरा दुःख दूर कर, मैं तेरी शरण में हूँ।” माता को दया आई, एक शुक्रवार बीता कि दूसरे शुक्रवार को उसके पति का पत्र आया, तीसरे को उसका भेजा हुआ पैसा आ बहुँचा, यह देख जेठानी मुँह सिकोड़ने लगी।

बच्च्चे ताने देने लगे-“काकी के पत्र आने लगे, रुपयों आने लगा, अब तो काकी की खातिर बढ़ेगी, अब तो काकी बुलाने से भी नहीं बोलेगी।” बेचारी सरलता से कहती है-“भैया! पत्र आवे रुपया आवे तो हम सबके लिए अच्छा है।” ऐसा कहकर आँखों में आँसू भरकर माता के मंदिर में जा मातेश्वरी के चरणों में गिरकर रोने लगी- “माँ मैंने तुमसे पैसा नहीं माँगा। मुझे पैसे से नहीं अपने सुहाग से काम है। मैं तो अपने स्वामी के दर्शन और सेवा माँगती हूँ।” तब माता ने प्रसन्न होकर कहा- “जा बेटी! तेरा स्वामी आएगा।”

यह सुन खुश होकर घर को जाकर काम करने लगी। तब संतोषी माँ विचार करने लगी, इस भोली पुत्री को मैंने कह तो दिया, तेरा पति आवेगा, पर आवेगा कहाँ से? वो तो इसे स्वप्न में भी याद नहीं करता, उसे याद दिलाने मुझे जाना पड़ेगा। इस तरह माता बुढ़िया के बेटे के पास जा, स्वप्न में प्रकट हो कहने लगी- “साहूकार -के बेटे ! सोता है या जागता है?” वह बोला- “माता! सोता भी नहीं हूँ जागता भी नहीं हूँ, बीच में ही हूँ, कहो क्या आज्ञा है?” माँ बोली- “पुत्र! तेरी स्त्री बहुत कष्ट में है। तेरे माँ-बाप उसे दुःख दे रहे हैं, वह तेरे लिए तरस रही है, तू उसकी सुध ले।”

वह बोला- “हाँ माता यह तो मुझे मालूम है, परन्तु जाऊँ तो कैसे जाऊँ? परदेस की बात है, लेन-देन का कोई हिसाब नहीं, कुछ समझ में नहीं पड़ता कैसे जाऊँ?” माँ कहने लगी- “मेरी बात मान, सवेरे नहा-धोकर माता का नाम ले, घी का दीपक जला, दंडवत कर दुकान पर जा बैठना, देखते-देखते तेरा लेन-देन सब चुक जायेगा, जमा माल बिक जायेगा, साँझ होते-होते धन का ढेर लग जायेगा।” जब सवेरे बहुत जल्दी उठ उसने लोगों से सपने की बात कही, तो वे उसकी बात अनसुनी कर खिल्ली उड़ाने लगे-“कहीं सपने भी सच होते हैं।”

एक बूढ़ा बोला- “देख भाई मेरी बात मान, इस तरह साँच-झूठ करने के बदले देवता ने जैसा कहा, वैसा करने में तेरा क्या जाता है?” उस बूढ़े की बात मान नहा-धोकर संतोषी माता को दंडवत कर, घी का दीपक जला दुकान पर जा बैठा, थोड़ी देर मे वह क्यो देखता है, देने वाले रुपया लाये, लेने वाले हिसाब लेने लगे। कोठे में भरे सामानों के खरीददार नकद दाम में सौदा करने लगे, शाम तक धन का ढेर लग गया।

माता का चमत्कार देख प्रसन्न हो, मन में माता का नाम है, घर ले जाने के वास्ते गहना, कपड़ा खरीदने लगा। वहाँ के काम से निपट तुरंत घर को रवाना हुआ। वहाँ बहू बेचारी जंगल में लकड़ी लेने जानी, लौटते वक्त माताजी के मंदिर में विश्राम करती, वह तो उसका रोज रुकने का स्थान ठहरा।

दूर धूल उड़ती देख माता से पूछती है- “हे माता। यह धूल कैसी उड़ रही है?” माँ कहती है-“हे पुत्री! तेरा पति आ रहा है, अब तू ऐसा कर लकड़ियों के तीन गड्ढे बना ला, एक नदी किनारे, दूसरा मंदिर के पास और तीसरा अपने सिर पर रख। तेरे पति को लकड़ी का गट्ठा देख मोह पैदा होगा।

वह यहाँ रुकेगा भोजन बना-खाकर माँ से मिलने जाएगा, तब तू लकड़ी का गट्ठां उठाकर जाना और बीच चौक में गड्डा डालकर तीन आवाजें जोर से लगाना-लो सासूजी लकड़ी का गट्ठा लो, भूसे की रोटी दो, नारियल के खोपड़े में पानी दो, आज मेहमान कौन आया है?” माँ की बात सुन “बहुत अच्छा माता” कहकर प्रसन्न हो वह लकड़ियो के तीन गट्ठे ले आई।

एक नदी किनारे, एक माता के मंदिर पर रखा, इतने में एक मुसाफिर आ पहुँचा। सूखी लकड़ी देख उसकी इच्छा हुई कि वह यहाँ रुककर विश्राम करे, भोजन बना खा- पीकर गाँव को जाए। इस प्रकार भोजन बना विश्राम कर वह गाँव को गया, सबसे प्रेम से मिला। उसी समय बहू सिर पर लकड़ी का गट्ठा लिये आती है।

लकड़ी का बोझा आँगन में डाल जोर से तीन आवाजे देती है- “लो सासूजी ! लकड़ी का गड्डा लो, भूसे की रोटी दो, नारियल के खोपड़े में पानी दो, आज मेहमान कौन आया है?” यह सुनकर उसकी सास बाहर आ, अपने दिये हुए कष्टों को भुलाने हेतु कहती है- “बहू! ऐसा क्यों कहती है, तेरा पति ही तो आया है, आ बैठ, मीठा भात खा, भोजन कर, कपड़े गहने पहिन।”

इतने में आवाज सुन उसका पति बाहर आता है और अँगूठी देख व्याकुल हो पूछता है- “माँ यह कौन है?” माँ कहती है- “बेटा यह तेरी बहू है। आज बारह वर्ष हो गये, तू जबसे गया है, तबसे सारे गाँव में जानवरों की तरह भटकती-फिरती है, घर का कामकाज कुछ करती नहीं, चार समय आकर खा जाती है। अब तुझे देखकर भूसी की रोटी और नारियल के खोपड़े में पानी माँगती है।”

वह लज्जित हो बोला- “ठीक है माँ, मैंने इसे भी देखा और तुम्हें भी। अब मुझे दूसरे घर की ताली दो, तो उसमें रहूँ।” माँ बोली- – “ठीक है बेटा, तेरी जैसी मर्जी।” कहकर ताली का गुच्छा पटक दिया। उसने ताली ले दूसरे मकान में जा तीसरी मंजिल का कमरा खोल सारा सामान जयाया एक दिन में वहाँ राजा के महल जैसा ठाट-बाट बन गया। अब क्या था, बहु सुख भोगने लगी। इतने में अगला शुक्रवार आया। बहू ने अपने पति से कहा- “मुझे माता का उद्यापन करना है।” पति बोला- “बहुत अच्छा, खुशी से करो।” वह तुरंत ही उद्यापन की तैयारी करने लगी। जेठ के लड़कों को भोजन के लिए कहने गई।

उन्होंने मंजूर किया, परन्तु पीछे जेठानी अपने बच्चों को सिखाती है- “देखो रे भोजन के समय सब लोग खटाई माँगना, जिससे उसका उद्यापन पूरा न हो।” लड़के जीमने आए। खीर पेट भरकर खाई, परन्तु बात याद आते ही कहने लगे- “हमें खटाई खाने को दो, खीर खाना हमें नहीं भाता, देखकर अरुचि होती है।” बहू कहने लगी- “खटाई किसी को नहीं दी जावेगी, यह तो संतोषी माता का प्रसाद है।” लड़के उठ खड़े हुए, बोले-“पैसा लाओ।” भोली बहू कुछ जानती नहीं थी, सो उन्हें पैसे दे दिये। लड़के उसी समय उठ करके इमली खाने लगे।

यह देख बहू पर माताजी ने कोप किया। राजा के दूत उसके पति को पकड़ कर ले गये। जेठ-जेठानी मनमाने खोटे वचन कहने लगे-“साला लूट-लूटकर धन इकट्ठा कर लाया, राजा के दूत उसको पकड़कर ले गये। अब सब मालूम पड़ जाएगा, जब जेल की मार खाएगा।” बहू से यह वचन सहन नहीं हुए, वह रोने लगी। रोते-रोते माता के मंदिर को गई। माता से बोली- “हे माता! यह तुमने यह क्या किया। मुझे हँसाकर अब क्यो रुलाने लगीं?” माता बोली- “पुत्री! तूने उद्यापन करके मेरा व्रत भंग किया, इतनी जल्दी सब बातें भुला दी।”

वह कहने लगी- “माता भूली तो नहीं हूँ, न कुछ अपराध किया है, मुझे तो लड़कों ने भूल में डाल दिया। मैंने भूल से उन्हें पैसे दे दिये, मुझे क्षमा करो माँ।” माँ बोली- “ऐसी भी कही भूल होती है?” वह बोली- “माँ मुझे माफ कर दो, मैं फिर तुम्हारा उद्यापन करूँगी।” माँ बोली- “अब भूल मत करना।” वह बोली-“अब भूल न होगी, माँ अब बताओ वह कैसे आवेंगे?” माँ बोली- “जा पुत्री तेरा पति तुझे रास्ते में ही आता मिलेगा।” वह घर को चली।

राह में पति आता मिला। उसने पूछा- “तुम कहाँ गये थे?” वह कहने लगा- “इतना धन जो कमाया था, उसका टैक्स राजा ने माँगा था, वह भरने गया था।” वह प्रसन्न हो बोली- “भला हुआ, अब घर को चलो।” कुछ दिन बाद फिर शुक्रवार आया। वह बोली- “मुझे माता का उद्यापन करना है।” पति ने कहा- “करो।” वह फिर जेठ के लड़को को भोजन का कहने गई, जेठानी लड़कों को फिर सिखाने लगी कि- “तुम पहले ही खटाई माँगना।” लड़के कहने लगे- “हमें स्त्रीर खाना नहीं भाता, जी बिगड़ता है, कुछ खटाई खाने को दो।”

वह बोली-“खटाई खाने को नहीं मिलेगी, आना हो तो आओ।” वह ब्राह्मण के लड़कों को लाकर भोजन कराने लगी। यथाशक्ति दक्षिणा की जगह एक-एक फल उन्हें दिया। इससे संतोषी माता प्रसन्न हुई। माता की कृपा से नवें मास उसको चंद्रमा के समान सुंदर पुत्र उत्पन्न हुआ। पुत्र को लेकर प्रतिदिन माताजी के मंदिर को जाने लगी। माँ ने सोचा कि यह रोज आती है, आज क्यों न मैं इसके घर चलूँ, इसका आसरा देखूँ तो सही।

यह विचार कर माता ने भयानक रूप बनाया, गुड़-चने से सना मुख, ऊपर से सूंड के समान होठ, उस पर मक्खियाँ भिनभिना रही हैं, देहली में पाँव रखते ही उसकी सास चिल्लाई- “देखो रे। कोई चुड़ैल-डाकिन चली आ रही है। लड़को इसे भगाओ, नहीं तो किसी को खा जायेगी।” लड़के डरने लगे और चिल्लाकर खिड़की बंद करने लगे। बहू रोशनदान में से देख रही थी। प्रसन्नता से पगली हो चिल्लाने लगी- “आज मेरी माताजी मेरे घर आई हैं।” यह कहकर बच्चे को दूध पीने से हटाती है।

इतने में सास का क्रोध फूट पड़ा। बोली- “रांड, इसे देखकर कैसी उतावली हुई है, जो बच्चे को पटक दिया।” वह बोली- “माँजी! मैं जिसका व्रत करती हूँ, यह वही संतोषी माता है।” इतना कह झट से सारे घर के किवाड़ खोल देती है, माँ के प्रताप से जहाँ देखो, वहीं लड़के ही लड़के नजर आने लगे। सबने माता के चरण पकड़ लिये, विनती कर कहने लगे- “हे माता ! हम मूर्ख है, अज्ञानी हैं, पापी हैं।

तुम्हारे व्रत की विधि हम नहीं जानते। तुम्हारा व्रत भंग कर हमने बहुत बड़ा अपराध किया है। हे माता! आप हमारा अपराध क्षमा करो।” इस प्रकार माता प्रसन्न हुई। माता ने बहू को जैसा फल दिया, वैसा माता सबंको दे। जो पुढे, उसका मनोरथ पूर्ण हो। बोलो सैतोषी माता की ज्या योरा सिद्धू विदेह जनक को गुरु अष्टावक्र ने आधे श्लोक में ही सब शास्त्रों का सार बता दिया था। ग्रंथ करोड़न में कहा है ये सबका सार, ब्रह्म सत्य जग झूठ है जीव ब्रहा निहार।। जीव से ही जगत् माया खेलत खेल। ब्रह्म रूप पहिचान लो कटे जगत् की जेल।।

Read our another post – गुरुवार व्रत (बृहस्पति देव) की महिमा और कथा

FAQs

संतोषी माता व्रत कौन कर सकता है?

संतोषी माता व्रत स्त्री-पुरुष, सभी कर सकते हैं। यह व्रत परिवार की समृद्धि और शांति के लिए लाभकारी है।

संतोषी माता व्रत कब किया जाता है?

यह व्रत हर शुक्रवार को किया जाता है।

क्या व्रत के दौरान कोई विशेष नियम हैं?

व्रत के दौरान खट्टे पदार्थ नहीं खाने चाहिए और मन को शांत रखना चाहिए।

व्रत की पूजा सामग्री में क्या जरूरी है?

पूजा के लिए गुड़, चना, एक दीपक, और स्वच्छ जल आवश्यक हैं।

क्या संतोषी माता व्रत कथा का पाठ करना अनिवार्य है?

हां, कथा का पाठ या श्रवण व्रत का एक अनिवार्य हिस्सा है।

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MEGHA PATIDAR
MEGHA PATIDAR

Megha patidar is a passionate website designer and blogger who is dedicated to Hindu mythology, drawing insights from sacred texts like the Vedas and Puranas, and making ancient wisdom accessible and engaging for all.

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