68. सगर , सौदास , खट्वांग और भगवान् राम के चरित्र का वर्णन

सगर राजा की दो पत्नियाँ

सुमति और केशिनी का वरदान

काश्यपसुता सुमति और केशिनी ये राजा सगरकी दो स्त्रियाँ थीं ॥ उनसे सन्तानोत्पत्ति के लिये परम समाधि द्वारा आराधना किये जाने पर भगवान् और्वने यह वर दिया ॥ ‘ एक से वंशकी वृद्धि करनेवाला एक पुत्र तथा दूसरी से साठ हजार पुत्र उत्पन्न होंगे , इनमेंसे जिसको जो अभीष्ट हो वह इच्छापूर्वक उसीको ग्रहण कर सकती है । उनके ऐसा कहने पर केशिनी ने एक तथा सुमति ने साठ हजार पुत्रोंका वर माँगा ॥

असमंजस और साठ हजार पुत्रों का जन्म

तब करने वाले महर्षि के ‘ तथास्तु ‘ कहनेपर कुछ ही दिनों में केशिनीने वंशको बढ़ानेवाले असमंजस नामक एक पुत्रको जन्म दिया और काश्यपकुमारी सुमति से साठ सहस्त्र पुत्र उत्पन्न हुए ॥ राजकुमार असमंजस के अंशुमान् नामक पुत्र हुआ ॥

असमंजस का दुराचारी स्वभाव

यह असमंजस बाल्यावस्थासे ही बड़ा दुराचारी था ॥ पिता ने सोचा कि बाल्यावस्था के बीत जानेपर यह बहुत समझदार होगा ॥ किन्तु यौवन के बीत जानेपर भी जब उसका आचरण न सुधरा तो पिताने उसे त्याग दिया ॥ उनके साठ हजार पुत्रों ने भी असमंजसके चरित्र का ही अनुकरण किया ॥ असमंजसके चरित्रका अनुकरण उन सगरपुत्रोंद्वारा संसारमें यज्ञादि सन्मार्गका उच्छेद हो जानेपर सकल – विद्यानिधान , अशेषदोषहीन , भगवान् पुरुषोत्तम के अंशभूत श्रीकपिलदेवसे देवताओंने प्रणाम करनेके अनन्तर उनके विषय में कहा- ॥

” भगवन् ! राजा सगरके ये सभी पुत्र असमंजस के चरित्रका ही अनुसरण हैं ॥ इन सब के असन्मार्ग में प्रवृत्त रहनेसे संसार की क्या दशा होगी ? ॥ प्रभो ! संसार में दीनजनों की रक्षा के लिये ही आपने यह शरीर ग्रहण किया है [ अतः इस घोर आपत्तिसे संसारकी रक्षा कीजिये ] । ” यह सुनकर भगवान् कपिलने कहा – ” ये सब थोड़े ही दिनों में नष्ट हो जायँगे ” ॥

सगर के अश्वमेध यज्ञ का आरम्भ

इसी समय सगरने अश्वमेध – यज्ञ आरम्भ किया ॥ उसमें उसके पुत्रोंद्वारा सुरक्षित घोड़े को कोई व्यक्ति चुराकर पृथिवीमें घुस गया ॥ तब उस घोड़े के खुरोंके चिह्नों का अनुसरण करते हुए उनके पुत्रोंमेंसे प्रत्येकने एक – एक योजन पृथिवी खोद डाली ॥ तथा पाताल में पहुँचकर उन राजकुमारोंने अपने घोड़ेको फिरता हुआ देखा ॥ पासही में मेघावरणहीन शरत्काल के सूर्य के समान अपने तेजसे सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित करते हुए घोड़े को चुरानेवाले परमर्षि कपिलको सिर झुकाये बैठे देखा ॥ तब तो वे दुरात्मा अपने अस्त्र – शस्त्रों को उठाकर ‘ यही हमारा अपकारी और यज्ञ में विघ्न डालने वाला है , इस घोड़े को चुरानेवाले को मारो , मारो ‘ ऐसा चिल्लाते हुए उनकी ओर दौड़े ॥

तब भगवान् कपिलदेव के कुछ आँख बदलकर देखते ही वे सब अपने ही शरीर से उत्पन्न हुए अग्नि में जलकर नष्ट हो गये ॥ महाराज सगर को जब मालूम हुआ कि घोड़े का अनुसरण करने वाले उसके समस्त पुत्र महर्षि कपिल के तेज से दग्ध हो गये हैं तो उन्होंने असमंजस के पुत्र अंशुमान्‌ को घोड़ा ले आने के लिये नियुक्त किया ॥ वह सगर – पुत्रोंद्वारा खोदे हुए मार्ग से कपिलजी के पास पहुँचा और भक्ति विनम्र होकर उनकी स्तुति की ॥

अंशुमान का यज्ञ का घोड़ा लाना

तब भगवान् कपिल ने उससे कहा— “ बेटा ! जा , इस घोड़े को ले जाकर अपने दादा को दे और तेरी जो इच्छा हो वही वर माँग ले । तेरा पौत्र गंगाजी को स्वर्ग से पृथिवी पर लायेगा ” ॥ इस पर अंशुमान्ने यही कहा कि मुझे ऐसा वर दीजिये जो ब्रह्मदण्ड से आहत होकर मरे हुए मेरे अस्वर्ग्य पितृगण को स्वर्ग की प्राप्ति करानेवाला हो ॥ यह सुनकर भगवान्ने कहा – ” मैं तुझसे पहले ही कह चुका हूँ कि तेरा पौत्र गंगाजी को स्वर्ग से पृथिवी पर लायेगा ॥

उनके जल से इनकी अस्थियों की भस्म का स्पर्श होते ही ये सब स्वर्ग को चले जायँगे ॥ भगवान् विष्णु के चरण नख से निकले हुए उस जल का ऐसा माहात्म्य है कि वह कामनापूर्वक केवल स्नानादि कार्यों में ही उपयोगी हो— सो नहीं , अपितु , बिना कामनाके मृतक पुरुषके अस्थि , चर्म , स्नायु अथवा केश आदिका स्पर्श हो जानेसे या उसके शरीर का कोई अंग गिरने से भी वह देहधारी को तुरंत स्वर्ग में ले जाता है ।

” भगवान् कपिल के ऐसा कहने पर वह उन्हें प्रणाम कर घोड़े को लेकर अपने पितामह की यज्ञ शालायें आया ॥ राजा सगरने भी घोडे के मिल जाने पर अपना यज्ञ समाप्त किया और अपने पुत्रंकि खोदे हुए ) सागर को ही अपत्य स्नेहमे अपना पुत्र माना ॥

सगर वंश की वंशावली

अंशुमान से भगीरथ

उस अंशुमान के दिलीय नामक पुत्र हुआ और दिलीप के भगीरथ हुआ जिसने गंगाजी को स्वर्ग से पृथिवीपर लाकर उनका नाम भागीरथी कर दिया । भगीरथ मे सुहक्षेत्र , सुहोत्र मे श्रुति , श्रुति से नाभाग , नाभाग से अम्बरीष , अम्बरीष से सिन्युट्टीप , सिन्धुद्वीप से अयुतायु और अयुतायु से ऋतुपर्ण नामक पुत्र हुआ जो राजा नलका सहायक और द्यूतक्रीडा का पारदर्शी था ॥ ऋतुपर्ण का पुत्र सर्वकाम था , उसका सुदास और सुदास का पुत्र सौदास मित्रसह हुआ ॥ एक दिन मृगया के लिये वन में घूमते – घूमते उसने दो व्याघ्र देखे ॥ इन्होंने सम्पूर्ण वन को मृगहीन कर दिया है ऐसा समझकर उसने उनमें से एक को बाण से मार डाला ॥

मरते समय वह अति भयंकर रूप क्रूर – वदन राक्षस हो गया ॥ तथा दूसरा भी ‘ मैं इसका बदला लूँगा ‘ ऐसा कहकर अन्तर्धान हो गया ॥ कालान्तर में सौदास ने एक यज्ञ किया ॥ यज्ञ समाप्त हो जाने पर जब आचार्य वसिष्ठ बाहर चले गये । तब वह राक्षस वसिष्ठजी का रूप बनाकर बोला – ‘ यज्ञ के पूर्ण होने पर मुझे नर – मांसयुक्त भोजन कराना चाहिये ; अतः तुम ऐसा अन्न तैयार कराओ , मैं अभी आता हूँ ‘ ऐसा कहकर वह बाहर चला गया ॥ फिर रसोइये का वेष बनाकर राजा की आज्ञा से उसने मनुष्य का मांस पकाकर उसे निवेदन किया ॥

राजा भी उसे सुवर्णपात्र में रखकर वसिष्ठजी के आने की प्रतीक्षा करने लगा और उनके आते ही वह मांस निवेदन कर दिया । वसिष्ठजी ने सोचा – ‘ अहो ! इस राजा की कुटिलता तो देखो जो यह जान – बूझकर भी मुझे खाने के लिये यह मांस देता है । ‘ फिर यह जानने के लिये कि यह किसका है वे ध्यानस्थ हो गये ॥ ध्यानावस्था में उन्होंने देखा कि वह तो नरमांस है ॥ तब तो क्रोध के कारण क्षुब्धचित्त होकर उन्होंने राजा को यह शाप दिया ॥ ‘ क्योंकि तूने जान – बूझकर भी हमारे – जैसे तपस्वियों के लिये अत्यन्त अभक्ष्य यह नरमांस मुझे खाने को दिया है इसलिये तेरी इसी में लोलुपता होगी [ अर्थात् तू राक्षस हो जायगा ] ॥

तदनन्तर राजा के यह कहने पर कि ‘ भगवन् ! आप ही ने ऐसी आज्ञा की थी , ‘ वसिष्ठजी यह कहते हुए कि ‘ क्या मैंने ही ऐसा कहा था ? ‘ फिर समाधिस्थ हो गये ॥ समाधि द्वारा यथार्थ बात जानकर उन्होंने राजा पर अनुग्रह करत हुए कहा- ” तू अधिक दिन नरमांस भोजन न करेगा , केवल बारह वर्ष ही तुझे ऐसा करना होगा ” ॥

वसिष्ठजीके ऐसा कहने पर राजा सौदास भी अपनी अंजलिमें लेकर मुनीश्वर को शाप देने के लिये उद्यत हुआ । किन्तु अपनी पत्नी मदयन्ती द्वारा ‘ भगवन् ! ये हमारे कुलगुरु हैं , इन कुलदेवरूप आचार्यको शाप देना उचित नहीं है ‘ – ऐसा कहे जाने से शान्त हो गया तथा अन्न और मेघ की रक्षा के कारण उस शाप – जलको पृथिवी या आकाश में नहीं फेंका , बल्कि उससे अपने पैरोंको ही भिगो लिया ॥

उस क्रोध युक्त जल से उसके पैर झुलसकर कल्माषवर्ण ( चितकबरे ) हो गये । तभीसे उनका नाम कल्माषपाद हुआ ॥ तथा वसिष्ठजी के शाप के प्रभाव से छठे कालमें अर्थात् तीसरे दिन के अन्तिम भाग में वह राक्षस – स्वभाव धारण कर वन में घूमते हुए अनेकों मनुष्यों को खाने लगा ॥ एक दिन उसने एक मुनीश्वर को ऋतुकाल के समय अपनी भार्या से संगम करते देखा ॥ उस अति भीषण राक्षस – रूप को देखकर भयसे भागते हुए उन दम्पतियों में से उसने ब्राह्मण को पकड़ लिया ॥

तब ब्राह्मणी ने उससे नाना प्रकार से प्रार्थना की और कहा ” हे राजन् ! प्रसन्न होइये । आप राक्षस नहीं हैं बल्कि इक्ष्वाकुकुलतिलक महाराज मित्रसह हैं । आप स्त्री – संयोगके सुख को जानने वाले हैं ; मैं अतृप्त हूँ , मेरे पतिको मारना आपको उचित नहीं है । ‘ इस प्रकार उसके नाना प्रकारसे विलाप करने पर भी उसने उस ब्राह्मण को इस प्रकार भक्षण कर लिया जैसे बाघ अपने अभिमत पशु को वनमें पकड़कर खा जाता है ॥ तब ब्राह्मणीने अत्यन्त क्रोधित होकर राजा को शाप दिया – ॥

‘ अरे ! तूने मेरे अतृप्त रहते हुए भी इस प्रकार मेरे पति को खा लिया , इसलिये कामोपभोगमें प्रवृत्त होते ही तेरा अन्त हो जायगा ‘ ॥ इस प्रकार शाप देकर वह अग्नि में प्रविष्ट हो गयी ॥ तदनन्तर बारह वर्ष के अन्त में शापमुक्त हो जानेपर एक दिन विषय – कामना में प्रवृत्त होनेपर रानी मदयन्ती ने उसे ब्राह्मणी के शाप का स्मरण करा दिया ॥

तभी से राजा ने स्त्री – सम्भोग त्याग दिया ॥ पीछे पुत्रहीन राजा के प्रार्थना करनेपर वसिष्ठजी ने मदयन्ती के गर्भाधान किया ॥ जब उस गर्भ ने सात वर्ष व्यतीत होनेपर भी जन्म न लिया तो देवी मदयन्ती ने उस पर पत्थर से प्रहार किया ॥ इससे उसी समय पुत्र उत्पन्न हुआ और उसका नाम अश्मक हुआ ॥ अश्मक के मूलक नामक पुत्र हुआ ॥ जब परशुरामजी द्वारा यह पृथिवीतल क्षत्रियहीन किया जा रहा था उस समय उस ( मूलक ) की रक्षा वस्त्रहीना स्त्रियोंने घेरकर की थी , इससे उसे नारीकवच भी कहते हैं ॥ मूलकके दशरथ , दशरथके इलिविल , इलिविल के विश्वसह और विश्वसहके खट्वांग नामक पुत्र हुआ , जिसने देवासुरसंग्राम में देवताओं के प्रार्थना करनेपर दैत्योंका वध किया था ॥

इस प्रकार स्वर्गमें देवताओं का प्रिय करनेसे उनके द्वारा वर माँगनेके लिये प्रेरित किये जानेपर उसने कहा- ॥ “ यदि मुझे वर ग्रहण करना ही पड़ेगा तो आपलोग मेरी आयु बतलाइये ” ॥ तब देवताओंके यह कहनेपर कि तुम्हारी आयु केवल एक मुहूर्त और रही है वह [ देवताओंके दिये हुए ] एक अनवरुद्धगति विमानपर बैठकर बड़ी शीघ्रतासे मर्त्यलोकमें आया और कहने लगा- ॥ ‘ यदि मुझे ब्राह्मणों की अपेक्षा कभी अपना आत्मा भी प्रियतर नहीं हुआ , यदि मैंने कभी स्वधर्मका उल्लंघन नहीं किया और सम्पूर्ण देव , मनुष्य , पशु , पक्षी और वृक्षादि में श्रीअच्युत के अतिरिक्त मेरी अन्य दृष्टि नहीं हुई तो मैं निर्विघ्नतापूर्वक उन मुनिजनवन्दित प्रभु को प्राप्त होऊँ । 

ऐसा कहते हुए राजा खट्वांगने सम्पूर्ण देवताओंके गुरु , अकथनीयस्वरूप , सत्तामात्र- शरीर , परमात्मा भगवान् वासुदेवमें अपना चित्त लगा दिया और उन्हींमें लीन हो गये ॥ इस विषयमें भी पूर्वकाल में सप्तर्षियों द्वारा कहा हुआ श्लोक सुना जाता है । [ उसमें कहा है- ] ‘ खट्वांग समान पृथिवीतल में अन्य कोई भी राजा नहीं होगा , जिसने एक मुहूर्तमात्र जीवनके रहते ही स्वर्गलोकसे भूमण्डलमें आकर अपनी बुद्धिद्वारा तीनों लोकोंको सत्यस्वरूप भगवान् वासुदेवमय देखा ‘ ॥ खट्वांग से दीर्घबाहु नामक पुत्र हुआ । दीर्घबाहुसे रघु , रघुसे अज और अजसे दशरथने जन्म लिया ॥ दशरथजी के भगवान् कमलनाभ जगत्की स्थिति के लिये अपने अंशोंसे राम , लक्ष्मण , भरत और शत्रुघ्न – इन चार रूपोंसे पुत्र – भावको प्राप्त हुए ॥

सीता का स्वयंवर

रामजी ने बाल्यावस्थामें ही विश्वामित्रजी की यज्ञरक्षा के लिये जाते हुए मार्गमें ही ताटका राक्षसी को मारा , फिर यज्ञशालामें पहुँचकर मारीच को बाणरूपी वायुसे आहत कर समुद्र में फेंक दिया और सुबाहु आदि राक्षसोंको कर डाला ॥ उन्होंने अपने दर्शनमात्रसे अहल्याको निष्पाप किया , जनकजी के राजभवन में बिना श्रम ही महादेवजी का धनुष तोड़ा और पुरुषार्थ से ही प्राप्त होनेवाली अयोनिजा जनकराजनन्दिनी श्रीसीताजीको पत्नी रूप से प्राप्त किया ॥ तदनन्तर सम्पूर्ण क्षत्रियों को नष्ट करनेवाले , समस्त हैहयकुल के लिये अग्निस्वरूप परशुरामजी के बल – वीर्य का गर्व नष्ट किया ॥

वनवास और राक्षस वध

फिर पिता के वचन से राज्यलक्ष्मी को कुछ भी न गिनकर भाई लक्ष्मण और धर्मपत्नी सीता के सहित वनमें चले गये॥ वहाँ विराध , खर , दूषण आदि राक्षस तथा कबन्ध और वालीका वध किया और समुद्र पर पुल बाँधकर सम्पूर्ण राक्षसकुल का विध्वंस किया तथा रावणद्वारा हरी हुई और उसके वधसे कलंकहीना होनेपर भी अग्नि प्रवेशसे शुद्ध हुई समस्त देवगणोंसे प्रशंसित स्वभाववाली अपनी भार्या जनक राजकन्या सीता को अयोध्या में ले आये ॥

उस समय उनके राज्याभिषेक जैसा मंगल हुआ उसका तो सौ वर्ष में भी वर्णन नहीं किया जा सकता ; तथापि संक्षेपसे सुनो ॥ दशरथनन्दन श्रीरामचन्द्रजी प्रसन्नवदन लक्ष्मण , भरत , शत्रुघ्न , विभीषण , सुग्रीव , अंगद , जाम्बवान् और हनुमान् आदिसे छत्र – चामरादिद्वारा सेवित हो , ब्रह्मा , इन्द्र , अग्नि , यम , निरृति , वरुण , वायु , कुबेर और ईशान आदि सम्पूर्ण देवगण , वसिष्ठ , वामदेव , वाल्मीकि , मार्कण्डेय , विश्वामित्र , भरद्वाज और अगस्त्य आदि मुनिजन तथा ऋक् , यजुः , साम और अथर्ववेदों से स्तुति किये जाते हुए तथा नृत्य , गीत , वाद्य आदि सम्पूर्ण मंगलसामग्रियोंसहित वीणा , वेणु , मृदंग , भेरी , पटह , शंख , काहल और गोमुख आदि बाजोंके घोषके साथ समस्त राजाओंके मध्यमें सम्पूर्ण लोकों की रक्षा के लिये विधिपूर्वक अभिषिक्त हुए।

इस प्रकार दशरथकुमार कोसलाधिपति , रघुकुलतिलक, जानकीवल्लभ , तीनों भ्राताओंके प्रिय श्रीरामचन्द्रजी ने सिंहासनारूढ़ होकर ग्यारह हजार वर्ष राज्य – शासन किया ॥

भरतजी ने भी गन्धर्व लोक को जीतने के लिये जाकर युद्ध में तीन करोड गन्धव का वध किया और शत्रुघ्नजीने भी अतुलित बलशाली महापराक्रमी मधुपुत्र लवण राक्षसका संहार किया और मथुरा नामक की । इस प्रकार नगर की स्थापना बल – पराक्रम से महान दुष्टों को अपने अतिशय नष्ट करनेवाले भगवान् राम , लक्ष्मण , भरत और शत्रुघ्न सम्पूर्ण जगत्की यथोचित व्यवस्था करने के अनन्तर फिर स्वर्गलोकको पधारे ॥ उनके साथ ही जो अयोध्यानिवासी उन भगवदंशस्वरूपोंके अतिशय अनुरागी थे उन्होंने भी तन्मय होने के कारण सालोक्य मुक्ति प्राप्त की ॥

राम के पुत्र और वंशावली

दुष्ट दलन भगवान् रामvके कुश और लव नामक दो पुत्र हुए । इसी प्रकार लक्ष्मणजीके अंगद और चन्द्रकेतु , भरतजीके तक्ष और पुष्कल तथा शत्रुघ्नजीके सुबाहु और शूरसेन नामक पुत्र हुए ॥ कुशके अतिथि , अतिथिके निषध , निषधके अनल , अनलके नभ , नभके पुण्डरीक , पुण्डरीकके क्षेमधन्वा , क्षेमधन्वाके देवानीक , देवानीकके अहीनक , अहीनकके रुरु , रुरुके पारियात्रक , पारियात्रकके देवल , देवलके वच्चल , वच्चलके उत्क , उत्कके वज्रनाभ , वज्रनाभके शंखण , शंखणके युषिताश्व और युषिताश्वके विश्वसह नामक पुत्र हुआ ॥ विश्वसह  के हिरण्यनाथ नामक पुत्र हुआ जिसने जैमिनिके शिष्य महायोगीश्वर याज्ञवल्क्यजीसे योगविद्या प्राप्त की थी ॥

हिरण्यनाभका पुत्र पुष्य था , उसका ध्रुवसन्धि , ध्रुवसन्धिका सुदर्शन , सुदर्शनका अग्निवर्ण , अग्निवर्णका शीघ्रग तथा शीघ्रगका पुत्र मरु हुआ जो इस समय भी योगाभ्यास में तत्पर हुआ कलापग्राम में स्थित है । आगामी युगमें यह सूर्यवंशीय क्षत्रियोंका प्रवर्त्तक होगा ॥ मरुका पुत्र प्रसुश्रुत , प्रसुश्रुतका सुसन्धि , सुसन्धिका अमर्ष , अमर्षका सहस्वान् , सहस्वान्‌का विश्वभव तथा विश्वभवका पुत्र बृहद्बल हुआ जिसको भारत युद्धमें अर्जुनके पुत्र अभिमन्युने मारा था ॥

इक्ष्वाकु वंश की महानता

इस प्रकार मैंने यह इक्ष्वाकुकुल के प्रधान – प्रधान राजाओंका वर्णन किया । इनका चरित्र सुननेसे मनुष्य सकल पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥

MEGHA PATIDAR
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