5. सज्जनों के लक्षण

1. सज्जनों के लक्षण

गर्व नोद्वहते न निर्दात परं नो भाषते निष्ठुरं ।

श्रुत्वा काव्यमलक्षणं परकृतं संतिष्ठते मूकवत् ।

उक्त केनचिदप्रियं च सहते क्रोधं च नालंवते ।

दोषांश्छादयत गुणान्निगदते चैतत्सतां लक्षणम् ॥१॥

अर्थ – गर्वमिति – अहंकार न करना, परनिन्दा से डरना, मीठी बाणी बोलना, किसी की बनाई हुई रचना में दोष देख कर भी गूगों के समान चुप रहना, दूसरों के वटु वाक्यों को भी सहन करना, क्रोध न करना और दूसरे के दोषों को छिपा कर गुणों को ही प्रकट करना यही सब सज्जनों के लक्षण हैं ॥

2. साधू सेवा का महत्व

वारयति वर्त्तमानामापदमागामिनीं च सत्सेवा ।

तृष्णां च हरति पात गंगाया दुर्गति चांभः ॥२॥

अर्थ- वारयति-साधू सेवा वर्तमान और आग जाने वाली आपदाओं से रक्षा करती है, जैसे पिया हुआ गंगाजल प्यास और दुर्गति को नष्ट कर देता है ॥

3. सुजनों का स्वभाव

सुजनान याति वैरं परहितनिरतो विनाश कालपि ।

छेदेपि चन्दन तरु सुरभयति मुख कुठारस्य ॥३॥

अर्थ- सुजनइति-सदैव दूसरे की भलाई चाहने वाले सज्जन अपने विनाश समय में भी वैर नहीं करते, जैसे चंदन वृक्ष अपने काटने वाले कुल्हाड़े का मुख भी सुगन्धित कर देता है ॥

4. गुणों का महत्व

नरस्याभरणं रूप ं रूपस्याभरणं गुणः ।

गुणास्याभरणं ज्ञानं ज्ञानस्याभरणं क्षमा ॥४॥

अर्थ – नरस्येति पुरुष का भूषण रूप, रूप का भूषण गुण, गुण का भूषण ज्ञान और ज्ञान का भूषण क्षमा है ॥

5. ज्ञान का अभ्यास

मार्जमानः सदा यद्वद्दर्पणो निर्मलो भवेत ।

ज्ञानाभ्यामात्तथा पुंसां बुद्धिर्भवति निर्मला ॥५॥

अर्थ- मार्जमान इति-पुरुषों की बुद्धि ज्ञान के अभ्यास से निर्मल होती है, जैसे दर्पण धोने से शुद्ध हो जाता है ॥

6. ज्ञानी और विषय

पद्मस्य च यथा तोये पत्त्रं तेन न लिप्यते ।

शब्दादि विषयान्भु’ जंस्तद्वज्ज्ञानी न लिप्यते ॥६॥

अर्थ – पद्मस्येति-अनेक प्रकार के शब्दादि विषयों को भोगते हुए भी ज्ञानी उन विषयों से अलग रहता है, जैसे कमल जल में होते हुए भी जल से पृथक ही रहता है॥

7. सोने की कसौटी

न दुःखं दह्यमाने च च्छेदने घर्षणे तथा ।

सुवर्णस्य महादुखं गुरौंजया सहतोलनम् ॥७॥

अर्थ-नेति-सुवर्ण (सोने) को जलाने से काटने से और घिसने से इतना दुख नहीं होता जितना गुञ्जा (रतियों) के साथ तोलने से उसे दुःख होता है ॥

8. साधु और विषय

दाहच्छेदविपत्तिभ्यो नो विभ्यति हि साधवः ।

यथाविषपसंगाच्च विषयः सन्ति दूषकः ॥८॥

अर्थ- दाहच्छेद इति-साधु लोक दाह से, काटने से, और आने वाली विपत्तियों से इतना नहीं डरते जितना विषयों के संग से क्योंकि विषय दुखदाई होते हैं ॥

9. गुणग्राही पुरुष

केतकी कुसमेभूगः खंड्यमानोपि शोभते ।

दोषाः किनाम कुर्वति गुणोपहतचेतसाम ॥९॥

अर्थ – केतकीति केवड़े के कण्टक से दुःखी हुआ भ्रमर दुःख नहीं मानता क्योंकि गुणग्राही पुरुष गुण वाली वस्तु से दोषों को भी सहन कर लेता है ॥

10. नीच और श्रेष्ठ का कार्य

जलरेखेव नीचानां यत्कृत’ तन्न दृश्यते ।

अत्ययमपि माधूनां शिलारेखेव दृश्यते ॥१०॥

अर्थ- बलमिति-नीच मनुष्यों का काम कुछ भी प्रकाशित नहीं होता जैसे जल की रेखा (लकीर) कुछ दिखाई नहीं देती, श्रेष्ठों का कार्य्यं सदैव ही प्रकाशित रहता है जैसे पत्थर की रेखा सदैव बनी रहती है ॥

11. शीतलता का महत्व

चंदन शीतलं लोके चन्दनादपि चंद्रमाः ।

चंद्राव चंदनाच्चैव शीतला साधुसंगति ॥ ११॥

अर्थ – चन्दनमिति ससार में चन्दन सब से शीतल है। और उस से अधिक चन्द्र शीतल है, इन दोनों से भी ‘साबु संगत ही शीतल होती है ॥

12. गुणवान पुत्र

एकोऽपि गुणवान् पुत्रः किं निर्गुणशतैरपि ।

एकश्चंद्रस्तमो हन्ति न च तारा सहस्रकम् ॥१२॥

अर्थ – एक इति मूर्ख पुत्र यदि सैकड़ों भी हों तो निष्फल हैं और गुणवान पुत्र उनकी अपेक्षा एक ही उत्तम होता है, जैसे एक शशि अंधेरे को दूर कर देता है परन्तु हजारों तारे उस की अपेक्षा निष्फल हैं ॥

13. विद्वान का महत्व

विद्वानेव हि जानाति विद्वज्जनरसाम्मम् ।

जंभारिरेव जानाति रंभासंगभोगजं सुखम् ॥१३॥

अर्थ-विद्वानवेति-विद्वान ही विद्वान के सार को जानता है जैसे इन्द्र ही रम्भा नामक अप्सरा के सुख का अनुभव कर सकते हैं ॥

14. आत्मज्ञान

पठन्तु चतुरो वेदान्सर्वशास्त्रविशारदः ।

आत्मज्ञानं न जानन्ति दर्वी पाकरत यथा ॥१४॥

अर्थ- पठनवति सब शास्त्रों को जानने वाले पंडित लोग चारों वेदों को पढ़ कर भी आत्मज्ञान को नहीं पा सके तो निष्फल है जैसे कड़छी साग आदि के सार को क्या जान सकती है ॥

15. सज्जन की तुलना

शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे ।

सज्जना न हि सर्वत्र चन्दनं न वने वने ॥१५॥

अर्थ- शैल इति प्रत्येक पर्वत में माणिक्य नहीं, और प्रत्येक गज (हाथी) मोतियों की माला को धारण करते वाला नहीं और प्रत्येक बन में चन्दन नहीं और प्रत्येक स्थान पर सज्जन नही मिलते ॥

16. गम्भीर पुरुषों की अवस्था

पुसामुन्नत्तचित्तानां द्वयमेव सुखावहम ।

सर्वसंगनिवृत्तिर्वा विभूतिर्वा सविस्तरा ॥१६॥

अर्थ- समुन्नतेति गम्भीर पुरुषों की दोनों ही अवस्थायें हैं या तो सर्व परित्याग अथवा बढ़ी हुई सम्पदायें ॥

17. सज्जनों का स्वभाव

उपकत्तु प्रिय वक्तु कतु स्नेहमकृत्रिमम् ।

सज्जनानां स्वभावोयं केनें दुः शिशिरीकृतः ॥१७॥

अर्थ – उपकर्त्तमिति सज्जनों का स्वभाव उपकार करने वाला प्रिय बोलने वाला और निष्कपट प्रेम करने वाला होता है । जैसे देखो ! क्षुद्र चन्द्र को भी श्री महादेव जी ने अपने मस्तक पर स्थान दिया है ॥

18. वन में वृक्ष

वने वने संति वने चराणां

निवासयोग्यास्तरवोपि केचित् ।

स कोपि शाखी क्कचिदेक एव

यस्याश्रय वांछति वारणेंद्रः ॥१८॥

अर्थ-वन इति वन में रहने वाले जीवों के आश्रय रूप अनेक वृक्ष प्रत्येक वन में मिल जायेंगे परन्तु वह एक ही वृक्ष होगा जिसके नीचे हाथियों का स्वामी आकर आश्रय लेता हो ॥

19. सज्जन और दिखावा

नराणां वन्धनच्छेदी साधुर्भात हि कश्चन ।

क्रिया विस्तारकाः संतिसाधवो नामधारकाः ॥१९॥

अर्थ – नाराणामिति – जीवों को इस भवसागर से पार उतारने वाले कोई कोई सज्जन होते हैं परन्तु बाहरी दिखावो के ढंग रचने वाले नामधारी अनेक मिल जाते हैं ॥

20. संतोष के विभिन्न प्रकार

तुष्यन्ति भोजने विप्रा मयूरा घन गर्जिते ।

महान्तः परकल्याणे नींचाः परविपत्तिषु ॥२०॥

अर्थ-तुष्यतीति ब्राह्मण क्षीरादि भोजन से, मयूर (मोर) पक्षी मेघों के गर्जन से, और श्रेष्ठ दूसरों के कल्याण से और नीच मनुष्य दूसरों को दुखी देख कर प्रसन्न होते हैं ॥

21. दान और उत्तर

अर्थिप्रश्नकृती लौके सुलभौ तौ गृहे गृहे ।

दाता चोत्तरदश्चैव दुर्लभौ पुरुषौ भुवि ॥२१॥

अर्थ – अर्थीति-मांगने वाले और प्रश्न करने वाले तो घर घर में मिल जाते हैं और दान करने वाले और उत्तर देने वाले सज्जन बहुत दुर्लभ हैं ॥

22. सज्जनों की जिह्वा

स्वगणान्परदोषांश्च वक्तु प्रार्थयितुं परान् ।

याचितारं निराकर्तुं सतां जिह्वा जडायते ॥२२॥

अर्थ-स्वगुणानिति-अपने गुणों को प्रकट करने के लिये और दूसरों के दोष कहने के लिये, और दूसरों के आगे प्रार्थना करने के लिए, और अर्थियों को हटाने के लिये सज्जनों की जिह्वा रुक जाती है॥

23. सज्जनों की विपत्तियां

पातितोऽपि कराघातैरुत्पतत्येव कन्दुकः ।

प्रायेण साधुवृत्तीनामस्थायिन्यो विपत्तयः ॥२२॥

अर्थ- पातितोऽपिइति सज्जनों की विपत्तियें प्रायः हाथ में उछलते हुए गेंद की भांति होती हैं अर्थात् कभी स्थिर नहीं रह सकती ॥

24. पुरुषों की इच्छाएं

अधमा धनमिच्छन्ति धनमानौ हि मध्यमाः ।

उतमा मानमिच्छन्ति मानोहि महतां धनम् ॥२३॥

अर्थ – अधमा इति-नीच पुरुष धन को, और मध्यम श्रेणी के मनुष्य धन और मान दोनों को और उत्तम जन केवल मान को ही चाहते हैं । सच है ! मान ही उत्तम पुरुषों का धन है ॥

25. जीवों के दोष और गुण

दोषोप्यस्ति गुणोप्यस्ति निर्दोषो नैव जायते ।

सुकोमलस्य पद्मस्य नाले भवति कंटकः ॥२४॥

अर्थ- दोष इति-संसार में जीव दोष वाले होते हुए गुण वाले भी होते हैं। बिना दोष के कोई नहीं जैसे कमल चारो ओर से कमल होते हुए भी उसकी नाल कांटों वाली होती है ॥

26. हंस पक्षी

त्रापि तत्रापि गता भवंति हंसा महीमंडल मडनाय ।

हानिस्तु तेषां हि सरोवरणां येषां मरालैः सहविप्रयोगः॥२५॥

अर्थ – यत्रापीति-हंस पक्षी स्वरूप परमहंस योगी सो पृथ्वी की शोभा बढ़ाने के लिए जहां तहां घूमते ही रहते हैं। परन्तु हानि उन सरोवरों की ही होती है, जिन से वह उड़जाते हैं।

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Megha patidar is a passionate website designer and blogger who is dedicated to Hindu mythology, drawing insights from sacred texts like the Vedas and Puranas, and making ancient wisdom accessible and engaging for all.

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