सत्संग की महिमा

पद्म पुराण में कहा है कि एक पुरुष तो गंगा आदि पुण्य तीर्थों में सदा स्नान करता है और एक पुरुष अद्वैत का चिन्तन करने वाले साधु महात्मा का सत्संग करता है उन दोनों में सत्संग करने वाला ही श्रेष्ठ है।

गर्गाचार्यजी के विचार

गर्गाचार्यजी कहते हैं कि गंगाजी में श्रद्धा से स्नान करने पर श्री गंगाजी केवल पापों का नाश करती है और चन्द्रमा धूप की गर्मी से तपायमान हुए ताप को दूर करता है और कल्पवृक्ष उपासना करने पर केवल दरिद्रता को दूर करता है परन्तु साधु समागम तो पाप, ताप और दरिद्रता इन तीनों को तत्काल दूर करता है। तात्पर्य यह है “साधु महात्माओं के दर्शन से पाप का, उनके अद्वैत के उपदेश से संशय रूप ताप का और वीतरागता सन्तोष धारणा आदि से दरिद्र का नाश होता है।”

भागवत में संग का महत्व

भागवत् में कहा है कि दुष्ट पुरुषों का संग जन्म-मरण रूपी संसार को देने वाला है। यह ऋषि लोग कहते हैं ऐसे ही यदि ब्रह्मनिष्ठ साधुओं का संग किया जाए तो संसार से पार करने वाला होता है अर्थात् मोक्ष का देने वाला होता है।

भगवान श्रीकृष्ण का कथन

भागवत् में भगवान् श्रीकृष्ण का कथन है कि जो पुरुष वीतराग ऋषि महात्माओं को, सर्वव्यापी ब्रह्मरूप आत्म अद्वैत के जानने वालों को ही अपना सर्वस्व मानते हैं और उनको ही तीर्थ रूप मानते हैं वे पुरुष ही श्रेष्ठ कहे जाते हैं और जो पुरुष शव रूप वात- पित्त- -कफ के संघात (शरीर) में आत्म बुद्धि वाले हैं और स्त्री-पुत्र आदि में सर्वस्व बुद्धि रखते हैं और मृतिका-पत्थर (मिट्टी) आदि से बनी हुई मूर्तियों में ही केवल पूज्य बुद्धि वाले हैं और जल आदि में ही तीर्थ बुद्धि करने वाले हैं और ब्रह्मनिष्ठ ऋषि महात्माओं में पूजनीय बुद्धि वाले नहीं हैं, वे पुरुष बैल और गर्दभ के समान हैं।

पण्डित का लक्षण

गरुड़ पुराण में पण्डित का लक्षण कहा है कि जो पुरुष पराई स्त्रियों को माता रूप से देखता है और पराये द्रव्य को मिट्टी के ढेले के समान देखता है और सर्व प्राणी मात्र को अपना आत्मा रूप देखता है उसका नाम पण्डित है। दूसरा पण्डा नाम ब्रह्म- विषयणी बुद्धि है जिससे उसका नाम पण्डित है।

भगवान श्रीकृष्ण का उपदेश

गीता में भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जो पुरुष सर्व संसारी है, कामना के संकल्पों से रहित है, जिसकी बुद्धि में शुभ-अशुभ कार्य समान है और जिसने संसार के देने वाले सर्व कर्म संशय विपर्यय से रहित सच्चिदानन्द शुद्ध बुद्ध अद्वैत आत्म ब्रह्म ज्ञान रूपी अग्नि से दग्ध कर दिये हैं उसको बुद्धिमान ऋषि लोग पण्डित कहते हैं।

साधु संगति का महत्व

मुक्तिकोपनिषद् में कहा है कि जैसे अंकुश से शिक्षित हुआ हाथी अच्छे रास्ते पर चलता है और अंकुश से रहित दुष्ट हस्ती वन में चला जाता है वैसे ही पुरुष आत्मज्ञान को प्राप्त हुआ भी साधु संगति के बिना विषय रूपी वन में प्रविष्ट हो जाता है। इस कारण से साधु-संगति ज्ञानी के लिए भी कर्त्तव्य है।

भागवत में ऋषभदेवजी का उपदेश

भागवत् में ऋषभदेवजी जीवन-मुक्ति के सुख के लिए राज्य को त्यागते हुए भरत आदि अपने पुत्रों को उपदेश करते हैं ! हे पुत्रो ! साधु महात्माओं की सेवा को ऋषि लोग मुक्ति का द्वार कहते हैं,और स्त्रियों के संगी के संग को नरक का द्वार कहते हैं। तब पुत्रों ने पूछा “पिताजी साधुओं का क्या लक्षण है” तो ऋषभदेवजी कहते है कि जो एक रस अद्वैत ब्रह्म में चित्त की स्थिति वाले हैं, शान्त स्वभाव और क्रोध से रहित हैं और सर्व के साथ सुहृदयता करने वाले और क्षमाशील है वे ही साधु है।

शिव पुराण में सेवा का फल

शिव पुराण में कहा है कि जो जैसे पुरुष की सेवा करता है वो वैसा ही फल भोगता है अर्थात् महान पुरुषों की सेवा से उच्चता को प्राप्त होता है और तुच्छ नीच पुरुषों की सेवा से नीचता को प्राप्त होता है। सिंह के मन्दिर की सेवा से क्या है ? उसकी गुफा में तलाश करने से मोतियों की प्राप्ति होती है और शृगाल के मन्दिर की तलाश रूपी सेवा से अस्थियों की प्राप्ति होती है।

विवाह की विधि

महाभारत में कहा है कि अपने आचरण वर्ण, वंश के अनुकूल माता-पिता भ्राता से अग्नि साक्षिक विवाहपूर्वक दी गयी भार्या को शास्त्र विधि से फेरो पूर्वक द्विज श्रेष्ठ पाणिग्रहण करें। ऐसी भार्या धर्म करने में सहकारिणी होती है।

विवाह मन्त्र

ऋग्वेद में कहा है कि पुरुष भार्या का प्राणिग्रहण करता हुआ इस मन्त्र को पढ़कर ऐसा कहे कि मैं प्रति रूप से धर्मपूर्वक गृहस्थाश्रम के सौभाग्य के लिये हे प्रिये ! तुम्हारा पाणिग्रहण करता हूँ। मुझ पति के साथ तुम वृद्धावस्था पर्यन्त धर्म में सहकारिणी रहो। गृहस्थ सम्बंधी धर्मकारी पुत्र उत्पत्ति के लिये पत्नि रूप तुम्हे भग-अर्यमा- सविता पुरधनी यह सर्व देवता मेरे लिये समर्पण करते हैं।

कन्या का विवाह

स्कन्धपुराण मैं कहा है कि कन्या को लोम उत्पत्ति देखने पर पहले शशि भोगता हैं और स्तनों के उत्थान होने पर गन्धर्व भोगते हैं और ऋतुमति होने पर कन्या को अग्नि भोगती है। इस कारण से लोम-स्तन-ऋतु इन तीनों के दर्शन के पहले ही कन्या का विवाह किया जाता है। सोम आदि से न भोगी हुयी कन्या का दान करने वाला पुरुष कन्यादान के फल को प्राप्त होता है और सोम आदि देवताओं से भोगी हुयी कन्या का दान करने वाला पुरुष स्वर्ग को प्राप्त नहीं होता हैं।

कन्या की संज्ञा

भविष्यत पुराण में कहा है कि आठ वर्ष की लड़की की संज्ञा होती गौरी हैं, ९वें रोहिणी (नग्निका) ११वे वर्ष में लड़की की संज्ञा कन्या होती है, इससे अधिक उमर की लड़की की संज्ञा रजस्वला होती है।

कन्या का विवाह

संवर्त स्मृति में कहा है कि अविवाहित रजस्वला संज्ञा वाली लड़की को देखकर माता-पिता और ज्येष्ठ भ्राता यह तीनों ही नरक को प्राप्त होते हैं। इस कारण से बुद्धिमान धर्मात्मा पुरुष कन्या का ऋतुमति होने के पहले ही विवाह अवश्य ही कर दे। विशेषकर तो आठ वर्ष गौरी संज्ञा वाली लड़की का विवाह करना श्रेष्ठ कहा है।

स्त्री का ऋतुकाल

याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा है कि १६ रात्रियों स्त्री के ऋतुकाल की है। उनमें से ३ दिन- १ दिन ब्रह्म २ चण्डालिनी, ३. रजकी इन ३ दिनों में स्त्री के स्पर्श करने से ब्रह्महत्या का भागी होता है। इस कारण से आदि की चार रात्रियाँ और पर्व की रात्रि को छोड़कर युग्म रात्रियों में शास्त्र की विधि से स्त्री गमन करने वाला पुरुष ब्रह्मचारी ही माना जाता है।

गृहस्थाश्रम

स्कन्ध पुराण में भगवान श्रीकृष्ण ने दुर्वासा ऋषि से कहा है कि जिस गृहस्थी के घर में आज्ञाकारी भार्या नहीं है, जिसके गृह से आपके समान सत्पात्र अतिथि भिक्षा आदि से सत्कार नहीं पाकर निराश होकर चले जाते हैं, जिस गृहस्थी के जल आदि प्रदान करे हुये को देवता और पितर ग्रहण नहीं करते हैं। ऐसा गृहस्थाश्रम केवल पाप के लिये ही होता है। इस हेतु से शुभ भार्या के सहित ही गृही पुरुष देव-पीतर- अतिथि आदि पूजन षट्कर्म करने का अधिकारी होता है।

MEGHA PATIDAR
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Megha patidar is a passionate website designer and blogger who is dedicated to Hindu mythology, drawing insights from sacred texts like the Vedas and Puranas, and making ancient wisdom accessible and engaging for all.

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