सप्त ज्ञान भूमिका के लक्षण
स्थितः किं मृढ एवास्मि प्रेक्षेऽहं शास्त्रसज्जनैः ।।
वैराग्यपूर्वमिच्छेति शुभेच्छेत्युच्यते बुधै ।।1।।
महोपनिषद् में कहा कि पुरुष पूर्वजन्म के पुण्यपुञ्जप्रभाव से ऐसी इच्छा करता है कि मैं मनुष्य होकर संसार में मूढ प्राणियों के समान क्यों स्थित हुआ हूँ। ब्रह्मात्मस्वरूप अद्वैत सत्य के चिन्तक सज्जनों से मैं वेदान्त शास्त्र को अध्ययन करूँ विषयों से वैराग्यपूर्वक ऐसी इच्छा का नाम बुद्धिमानों ने शुभेच्छा नाम की प्रथम भूमिका कहीं है ।।1।।
शास्त्रसज्जनसंपर्कवैराग्याभ्यासपूर्वकम् ।
सदाचारप्रवृत्तिर्या प्रोच्यते सा विचारणा ॥2॥
वेदान्तशास्त्र के चिन्तक सज्जन महात्माओं के सम्बन्ध से विषयों में दोषदृष्टि रूप वैराग्य के अभ्यासपूर्वक जो श्रेष्ठाचार में प्रवृत्ति है सो सर्वज्ञ मुनियों ने विचारणा नाम की दूसरी भूमिका कही है।।2।।
विचाराणाशुभेच्छाभ्यामिन्द्रियार्थेषु रक्तता ।
यत्र सा तनुतामेति प्रोच्यते तनुमानसी ॥ 3॥
शुभेच्छा और विचारणा इन दो भूमिका के अभ्यास से जिस अवस्था में इन्द्रियों के विषयों में पुरुष के मन का राग अतिकृषता को प्राप्त हो जाता है सो अवस्था ऋषियों ने तनुमानसी नाम की तीसरी भूमिका कहीं हैं ।।3।।
भूमिकात्रितयाभ्यासाच्चित्ते तु विरते वशात् ।
सत्त्वात्मनि स्थिते शुद्धे सत्त्वापत्तिरुदाहृता ॥ 4॥
शुभेच्छा विचारणा और तनुमानसी इन तीन भूमिका के अभ्यास से रागरहित शुद्ध चित्त होने पर सर्व अनात्मवस्तु में वैराग्य के प्रभाव से सच्चिदानन्द शुद्ध ब्रह्मात्मस्वरूप में चित्त की एकरस स्थिति होने पर सत्त्वापत्ति नाम की चतुर्थी भूमिका कही है ।।4।।
दशा चतुष्टयाभ्यासादसंसर्गफला तु या
रूढ़सत्त्वचमत्कारा प्रोक्ता संसक्तिनामिका ॥ 5॥
प्रदर्शित पूर्व उक्त मार्ग अनुसार चार भूमिका के अभ्यास से असंगता रूप फल है जिसका ऐसी जो सत्य ज्ञान आनन्द आत्मस्वरूप ब्रह्म में दृढस्थिति रूप चमत्कार वाली अवस्था है सो असंसक्ति नाम की पंचमी भूमिका कही है ॥ 5॥
भूमिकापञ्चकाभ्यासात्स्वात्मारामतयादृढम् ।
अभ्यन्तराणां बाह्यानां पदार्थानामभावनात् ॥ 6॥
परप्रयुक्तेन चिरं प्रयत्नेनावबोधनम् ।
पदार्थाभावना नाम षष्ठी भवति भूमिका ॥7॥
पूर्व उक्त प्रकार पंचभूमिका के अभ्यास से ब्रह्मस्वरूप आत्मनिजानन्द रूप से जो दृढ़स्थिति है और बाहर के स्थूल पदार्थों का और अन्तर के सूक्ष्म मानसी पदार्थों का ब्रह्मानन्द मग्न ब्रह्मवेत्ता को न भान होने से खान-पान आदियों में भी सो समाधिनिष्ठ दूसरे पुरुष के चिरकाल प्रयत्न करके नियुक्त करने से उत्थान होकर प्रवृत्त होता है जिस अवस्था में सो पदार्था भावना नाम की षष्ठी भूमिका कही जाती है ।।6।।7।।
भूमिषट्कविचाराभ्यासाद्भेदस्यानुपलम्भनात् ।
यत्स्वभावैकनिष्ठत्वं सा ज्ञेया तुर्यगा गतिः ॥ 8॥
इन पूर्वोक्त षट् भूमिकाओं के पुनः पुनः विचार के अभ्यास से बह्मात्मस्वरूप अद्वैतज्ञान परिपक्व होने पर भेद का अत्यन्त अभाव होने से जो ब्रह्मवित् स्वाभाविक एक अद्वैत ब्रह्म स्वरूप आत्मजिनानन्द में स्थित होकर दूसरे पुरुष के प्रयत्न से भी उत्थान नहीं होता है जिस अवस्था में सो जीवन्मुक्ति की अन्तिम गतिरूप ज्ञान की सप्तमी भूमिका जाननी। ऐसी दशा में इक्कीस दिन पर्यन्त देह की स्थिति कही है। यह संक्षेप से ज्ञान की सप्तभूमिकाओं का कथन करा ॥ 8॥