114. समुंद्र मंथन

समुंद्र मंथन

दुर्वासा ऋषि का शाप और देवताओं का पतन

दुर्वासा ऋषि के श्राप से त्रिलोकीके श्रीहीन और सत्वरहित हो जानेपर दैत्य और दानवोंने देवताओंपर चढ़ाई कर दी ।सत्त्व और वैभवसे शून्य होनेपर भी दैत्योंने लोभवश निःसत्त्व और श्रीहीन देवताओंसे घोर युद्ध ठाना । अन्तमें दैत्योंद्वारा देवतालोग परास्त हुए । तब इन्द्रादि समस्त देवगण अग्निदेवको आगे कर महाभाग पितामह श्रीब्रह्माजीकी शरण गये ।

ब्रह्माजी का परामर्श

देवताओं से सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनकर श्रीब्रह्माजीने उनसे कहा , ‘ हे देवगण ! तुम दैत्य दलन परावरेश्वर भगवान् विष्णुकी शरण जाओ , जो [ आरोपसे ] संसारकी उत्पत्ति , स्थिति और संहारके कारण हैं किन्तु [ वास्तवमें ] कारण भी नहीं हैं और जो चराचरके ईश्वर , प्रजापतियोंके स्वामी , सर्वव्यापक , अनन्त और अजेय हैं तथा जो अजन्मा किन्तु कार्यरूपमें परिणत हुए प्रधान ( मूलप्रकृति ) और पुरुषके कारण हैं एवं शरणागतवत्सल हैं । [ शरण जानेपर ] वे अवश्य तुम्हारा मंगल करेंगे ‘ । सम्पूर्ण देवगणोंसे इस प्रकार कह लोकपितामह श्रीब्रह्माजी भी उनके साथ क्षीरसागरके उत्तरी तटपर गये । वहाँ पहुँचकर पितामह ब्रह्माजीने समस्त देवताओंके साथ परावरनाथ श्रीविष्णुभगवान्‌की अति मंगलमय वाक्योंसे स्तुति की ।

विष्णु भगवान का प्रकट होना

 स्तुति किये जानेपर शंख – चक्रधारी भगवान् परमेश्वर उनके सम्मुख प्रकट हुए । तब उस शंख – चक्रगदाधारी उत्कृष्ट तेजोराशिमय अपूर्व दिव्य मूर्तिको देखकर पितामह आदि समस्त देवगण अति विनयपूर्वक प्रणामकर क्षोभवश चकित – नयन हो उन कमलनयन भगवान्की स्तुति करने लगे ।

देवताओं की स्तुति

देवगण बोले- हे प्रभो ! आपको नमस्कार है , नमस्कार है । आप निर्विशेष हैं तथापि आप ही ब्रह्मा हैं , आप ही शंकर हैं तथा आप ही इन्द्र , अग्नि , पवन , वरुण , सूर्य और यमराज हैं । हे देव ! वसुगण , मरुद्गण , साध्यगण और विश्वेदेवगण भी आप ही हैं तथा आपके सम्मुख जो यह देवसमुदाय है , हे जगत्स्रष्टा ! वह भी आप ही हैं क्योंकि आप सर्वत्र परिपूर्ण हैं । आप ही यज्ञ हैं , आप ही वषट्कार हैं तथा आप ही ओंकार और प्रजापति हैं ।

हे सर्वात्मन् ! विद्या , वेद्य और सम्पूर्ण जगत् आपहीका स्वरूप तो है । हे विष्णो ! दैत्योंसे परास्त हुए हम आतुर होकर आपकी शरणमें आये हैं ; हे सर्वस्वरूप ! आप हमपर प्रसन्न होइये और अपने तेजसे हमें सशक्त कीजिये ।  जबतक जीव सम्पूर्ण पापोंको नष्ट करनेवाले आपकी शरणमें नहीं जाता तभीतक उसमें दीनता , इच्छा , मोह और दुःख आदि रहते हैं । हम शरणागतोंपर आप प्रसन्न होइये और हे नाथ ! अपनी शक्तिसे हम सब देवताओंके [ खोये हुए ] तेजको फिर बढ़ाइये ।

विष्णु भगवान का उपदेश

 विनीत देवताओंद्वारा  इस प्रकार स्तुति किये जानेपर विश्वकर्ता भगवान् | हरि प्रसन्न होकर इस प्रकार बोले- ।  मैं तुम्हारे तेजको फिर बढ़ाऊँगा ; तुम इस समय मैं जो कुछ कहता हूँ वह करो । तुम दैत्योंके साथ सम्पूर्ण ओषधियाँ लाकर अमृतके लिये क्षीर – सागरमें डालो और मन्दराचलको मथानी तथा वासुकि नागको नेती बनाकर उसे दैत्य और दानवोंके सहित मेरी सहायतासे मथकर अमृत निकालो ।

तुमलोग सामनीतिका अवलम्बन कर दैत्योंसे कहो कि ‘ इस काममें सहायता करनेसे आपलोग भी इसके फलमें समान भाग पायेंगे ‘ । समुद्रके मथनेपर उससे जो अमृत निकलेगा उसका पान करनेसे तुम सबल और अमर हो जाओगे । हे देवगण ! तुम्हारे लिये मैं ऐसी युक्ति करूँगा जिससे तुम्हारे द्वेषी दैत्योंको अमृत न मिल सकेगा और उनके हिस्सेमें केवल समुद्र मन्थनका क्लेश ही आयेगा ।

समुद्र मंथन की प्रक्रिया

तब देवदेव भगवान् विष्णुके ऐसा कहनेपर सभी देवगण दैत्योंसे सन्धि करके अमृतप्राप्तिके लिये यत्न करने लगे । हे मैत्रेय ! देव , दानव और दैत्योंने नाना प्रकारकी ओषधियाँ लाकर उन्हें शरद् – ऋतुके आकाशकी – सी निर्मल कान्तिवाले क्षीर – सागरके जलमें डाला और मन्दराचलको मथानी तथा वासुकि नागको नेती बनाकर बड़े वेगसे अमृत मथना आरम्भ किया । भगवान्ने जिस ओर वासुकिकी पूँछ थी उस ओर देवताओंको तथा जिस ओर मुख था उधर दैत्योंको नियुक्त किया ।

महातेजस्वी वासुकिके मुखसे निकलते हुए निःश्वासाग्निसे झुलसकर सभी दैत्यगण निस्तेज हो गये और उसी श्वास – वायुसे विक्षिप्त हुए मेघोंके पूँछकी ओर बरसते रहनेसे देवताओंकी शक्ति बढ़ती गयी । भगवान् स्वयं कूर्मरूप धारण कर क्षीर – सागरमें घूमते हुए मन्दराचलके आधार हुए और वे ही चक्र – गदाधर भगवान् अपने एक अन्य रूपसे देवताओंमें और एक रूपसे दैत्योंमें मिलकर नागराजको खींचने लगे थे ।

समुद्र मंथन के फल

 एक अन्य विशाल रूपसे जो देवता और दैत्योंको दिखायी नहीं देता था श्रीकेशवने ऊपरसे पर्वतको दबा रखा था । भगवान् श्रीहरि अपने तेजसे नागराज वासुकिमें बलका संचार करते थे और अपने अन्य तेजसे वे देवताओंका बल बढ़ा रहे थे । इस प्रकार , देवता और दानवोंद्वारा क्षीर – समुद्रके मथे जानेपर पहले हवि ( यज्ञ – सामग्री ) की आश्रयरूपा सुरपूजिता कामधेनु उत्पन्न हुई । हे महामुने ! उस समय देव और दानवगण अति आनन्दित हुए और उसकी ओर चित्त खिंच जानेसे उनकी टकटकी बँध गयी । फिर स्वर्गलोकमें ‘ यह क्या है ? यह क्या है ? ‘ इस प्रकार चिन्ता करते हुए सिद्धोंके समक्ष मदसे घूमते हुए नेत्रोंवाली वारुणीदेवी प्रकट हुई ।

और पुनः मन्थन करनेपर उस क्षीर – सागरसे , अपनी गन्धसे त्रिलोकीको सुगन्धित करनेवाला तथा सुर – सुन्दरियोंका आनन्दवर्धक कल्पवृक्ष उत्पन्न हुआ ।  तत्पश्चात् क्षीर – सागरसे रूप और उदारता आदि गुणोंसे युक्त अति अद्भुत अप्सराएँ प्रकट हुईं । फिर चन्द्रमा प्रकट हुआ जिसे महादेवजीने ग्रहण कर लिया । इसी प्रकार क्षीर – सागरसे उत्पन्न हुए विषको नागोंने ग्रहण किया । फिर श्वेतवस्त्रधारी साक्षात् भगवान् धन्वन्तरिजी अमृतसे भरा कमण्डलु लिये प्रकट हुए ।  उस समय मुनिगणके सहित समस्त दैत्य और दानवगण स्वस्थ – चित्त होकर अति प्रसन्न हुए । उसके पश्चात् विकसित कमलपर विराजमान स्फुटकान्तिमयी श्रीलक्ष्मीदेवी हाथोंमें कमल – पुष्प धारण किये क्षीर – समुद्रसे प्रकट हुईं ।

उस समय महर्षिगण अति प्रसन्नतापूर्वक श्रीसूक्तद्वारा उनकी स्तुति करने लगे तथा विश्वावसु आदि गन्धर्वगण उनके सम्मुख गान और घृताची आदि अप्सराएँ नृत्य करने लगीं । उन्हें अपने जलसे स्नान करानेके लिये गंगा आदि नदियाँ स्वयं उपस्थित हुईं और दिग्गजोंने सुवर्ण – कलशोंमें भरे हुए उनके निर्मल जलसे सर्वलोक – महेश्वरी श्रीलक्ष्मीदेवीको स्नान कराया । क्षीर – सागरने मूर्तिमान् होकर उन्हें विकसित कमल – पष्पोंकी माला दी तथा विश्वकर्माने उनके अंग प्रत्यंगमें विविध आभूषण पहनाये । इस प्रकार दिव्य माला और वस्त्र धारण कर , दिव्य जलसे स्नान कर , दिव्य आभूषणोंसे विभूषित हो श्रीलक्ष्मीजी सम्पूर्ण देवताओंके देखते देखते श्रीविष्णुभगवान्के वक्षःस्थलमें विराजमान हुई ।

अमृत प्राप्ति और देवताओं की विजय

 श्रीहरि के वक्षःस्थलमें विराजमान श्रीलक्ष्मीजीका दर्शन कर देवताओंको अकस्मात् अत्यन्त प्रसन्नता प्राप्त हुई और लक्ष्मीजीसे परित्यक्त होनेके कारण भगवान् विष्णुके विरोधी विप्रचिति आदि दैत्यगण परम उद्विग्न ( व्याकुल ) हुए । तब उन महाबलवान् दैत्योंने श्रीधन्वन्तरिजीके हाथसे वह कमण्डलु छीन लिया जिसमें अति उत्तम अमृत भरा हुआ था । अतः स्त्री ( मोहिनी ) रूपधारी भगवान् विष्णुने अपनी मायासे दानवोंको मोहित कर उनसे वह कमण्डलु लेकर देवताओंको दे दिया ।

तब इन्द्र आदि देवगण उस अमृतको पी गये ; इससे दैत्यलोग अति तीखे खड्ग आदि शस्त्रोंसे सुसज्जित हो उनके ऊपर टूट पड़े । किन्तु अमृत – पानके कारण बलवान् हुए देवताओंद्वारा मारी काटी जाकर दैत्योंकी सम्पूर्ण सेना दिशा – विदिशाओंमें भाग गयी और कुछ पाताललोकमें भी चली गयी । फिर देवगण प्रसन्नतापूर्वक शंख – चक्र – गदा – धारी भगवान्‌को प्रणाम कर पहलेहीके समान स्वर्गका शासन करने लगे । उस समयसे प्रखर तेजोयुक्त भगवान् सूर्य अपने मार्गसे तथा अन्य तारागण भी अपने – अपने मार्गसे चलने लगे । सुन्दर दीप्तिशाली भगवान् अग्निदेव अत्यन्त प्रज्वलित हो उठे और उसी समयसे समस्त प्राणियोंकी धर्ममें प्रवृत्ति हो गयी । त्रिलोकी श्रीसम्पन्न हो गयी और देवताओंमें श्रेष्ठ इन्द्र भी पुनः श्रीमान् हो गये ।

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