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102. सात पाताललोक का वर्णन

सात पाताललोक

सात पाताललोक

अतल , वितल , नितल , गभस्तिमान् , महातल , सुतल और पाताल – इन सातोंमेंसे प्रत्येक दस – दस सहस्र योजनकी दूरीपर है ॥ सुन्दर महलोंसे सुशोभित वहाँकी भूमियाँ शुक्ल , कृष्ण , अरुण और पीत वर्णकी तथा शर्करामयी ( कँकरीली ) , शैली ( पत्थरकी ) और सुवर्णमयी है ॥  उनमें दानव , दैत्य , यक्ष और बड़े – बड़े नाग आदिकोंकी सैकड़ों जातियाँ निवास करती हैं ॥

 नारदजी का वर्णन

एक बार नारदजीने पाताललोकसे स्वर्गमें आकर वहाँके निवासियोंसे कहा था कि ‘ पाताल तो स्वर्गसे भी अधिक सुन्दर है ‘ ॥ जहाँ नागगण के आभूषणों में सुन्दर प्रभायुक्त आह्लादकारिणी शुभ्र मणियाँ जड़ी हुई हैं उस पातालको किसके समान कहें ? ॥ जहाँ – तहाँ दैत्य और दानवोंकी कन्याओंसे सुशोभित पाताललोकमें किस मुक्त पुरुषकी भी प्रीति न होगी ॥

पाताललोक की अद्वितीय विशेषताएँ

जहाँ दिनमें सूर्यकी किरणें केवल प्रकाश ही करती हैं , घाम नहीं करतीं ; तथा रातमें चन्द्रमाकी किरणोंसे शीत नहीं होता , केवल चाँदनी ही फैलती है ॥ जहाँ भक्ष्य , भोज्य और महापानादिके भोगोंसे आनन्दित सर्पों तथा दानवादिकोंको समय जाता हुआ भी प्रतीत नहीं होता ॥ जहाँ सुन्दर वन , नदियाँ , रमणीय सरोवर और कमलोंके वन हैं , जहाँ नरकोकिलोंकी सुमधुर कूक गूंजती है एवं आकाश मनोहारी है और हे द्विज । जहाँ पातालनिवासी दैत्य , दानव एवं नागगणद्वारा अति स्वच्छ आभूषण , सुगन्धमय अनुलेपन , वीणा , वेणु और मृदंगादिके स्वर तथा तूर्य – ये सब एवं भाग्यशालियोंके भोगनेयोग्य और भी अनेक भोग भोगे जाते हैं ॥

शेषनाग का वर्णन

पातालोंके नीचे विष्णुभगवान्‌का शेष नामक जो तमोमय विग्रह है उसके गुणोंका दैत्य अथवा दानवगण भी वर्णन नहीं कर सकते ॥ जिन देवर्षिपूजित देवका सिद्धगण ‘ अनन्त ‘ कहकर बखान करते हैं वे अति निर्मल , स्पष्ट स्वस्तिक चिह्नोंसे विभूषित तथा सहस्र सिरवाले हैं ॥ अपने फणोंकी सहस्र मणियोंसे सम्पूर्ण दिशाओंको देदीप्यमान करते हुए संसारके कल्याणके लिये समस्त असुरोंको वीर्यहीन करते रहते हैं ॥ मदके कारण अरुण नयन , सदैव एक ही कुण्डल पहने हुए तथा मुकुट और माला आदि धारण किये जो अग्नियुक्त श्वेत पर्वतके समान सुशोभित हैं ॥ मदसे उन्मत्त हुए जो नीलाम्बर तथा श्वेत हारोंसे सुशोभित होकर मेघमाला और गंगाप्रवाहसे युक्त दूसरे कैलास पर्वतके समान विराजमान हैं ॥

जो अपने हाथों में हल और उत्तम मूसल धारण किये हैं तथा जिनकी उपासना शोभा और वारुणी देवी स्वयं मूर्तिमती होकर करती हैं ॥ कल्पान्तमें जिनके मुखोंसे विषाग्निशिखाके समान देदीप्यमान संकर्षण नामक रुद्र निकलकर तीनो लोकोंका भक्षण कर जाता है व समस्त देवगणसे वन्दित शेषभगवान् अशेष भूमण्डलको मुकुटवत् धारण किये हुए पाताल – तलमें विराजमान हैं ॥ उनका बल – वीर्य , प्रभाव , स्वरूप ( तत्त्व ) और रूप ( आकार ) देवताओंसे भी नहीं जाना और कहा जा सकता ॥ जिनके फणकी मणियोंकी आभासे अरुण वर्ण हुई यह समस्त पृथिवी फूलोंकी मालाके समान रखी हुई है उनके बल – वीर्यका वर्णन भला कौन करेगा ? ॥

जिस समय मदमत्तनयन शेषजी जमुहाई लेते हैं उस समय समुद्र और वन आदिके सहित यह सम्पूर्ण पृथिवी चलायमान हो जाती है ॥ इनके गुणोंका अन्त गन्धर्व , अप्सरा , सिद्ध , किन्नर , नाग और चारण आदि कोई भी नहीं पा सकते ; इसलिये ये अविनाशी देव ‘ अनन्त ‘ कहलाते हैं ॥ जिनका नाग – वधुओंद्वारा लेपित हरिचन्दन पुनः पुनः श्वास- वायुसे छूट – छूटकर दिशाओंको सुगन्धित करता रहता है ॥ जिनकी आराधनासे पूर्वकालीन महर्षि गर्गने समस्त ज्योतिर्मण्डल ( ग्रह – नक्षत्रादि ) और शकुन – अपशकुनादि नैमित्तिक फलोंको तत्त्वतः जाना था ॥ उन नागश्रेष्ठ शेषजीने इस पृथिवीको अपन मस्तकपर धारण किया हुआ है , जो स्वयं भी देव , असुर और मनुष्योंके सहित सम्पूर्ण लोकमाला ( पातालादि समस्त लोकों ) को धारण किये हुए हैं ॥

 

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