Site icon HINDU DHARMAS

96. सूर्य शक्ति एवं वैष्णवी शक्ति का वर्णन

सूर्य

सूर्य और उनके सात गणों का विवरण

1. सूर्य की प्रधानता

सूर्य सात गणों में से ही एक हैं तथापि उनमें प्रधान होने से उनकी विशेषता है ॥ भगवान् विष्णु की जो सर्वशक्तिमयी ऋक् , यजुः , साम नामकी परा शक्ति है वह वेदत्रयी ही सूर्य को ताप प्रदान करती है और [ उपासना किये जानेपर ] संसारके समस्त पापोंको नष्ट कर देती है ॥

2. वेदत्रयी का सूर्य में निवास

जगत्की स्थिति और पालन के लिये वे ऋक् , यजुः और सामरूप विष्णु सूर्यके भीतर निवास करते हैं ॥ प्रत्येक मासमें जो – जो सूर्य होता है उसी – उसीमें वह वेदत्रयीरूपिणी विष्णु की परा शक्ति निवास करती है ॥ पूर्वाह्नमें ऋक् , मध्याह्नमें बृहद्रथन्तरादि यजुः तथा सायंकालमें सामश्रुतियाँ सूर्यकी स्तुति करती हैं ॥

3. विष्णु शक्ति और त्रयीमयी वैष्णवी शक्ति

यह ऋक् – यजुः – सामस्वरूपिणी वेदत्रयी भगवान् विष्णुका ही अंग है । यह विष्णु – शक्ति सर्वदा आदित्यमें रहती है ॥ यह त्रयीमयी वैष्णवी शक्ति केवल सूर्यहीकी अधिष्ठात्री हो , सो नहीं , बल्कि ब्रह्मा , विष्णु और महादेव भी त्रयीमय ही हैं ॥ सर्गके आदिमें ब्रह्मा ऋङ्मय हैं , उसकी स्थितिके समय विष्णु यजुर्मय हैं तथा अन्तकालमें रुद्र साममय हैं । इसीलिये सामगानकी ध्वनि अपवित्र मानी गयी है ॥ इस प्रकार वह त्रयीमयी सात्त्विकी वैष्णवी शक्ति अपने सप्तगणों में स्थित आदित्यमें ही [ अतिशयरूपसे ] अवस्थित होती है ॥

4. सूर्यदेव और उनके साथ रहने वाले गण

सूर्यदेव भी अपनी प्रखर रश्मियोंसे अत्यन्त प्रज्वलित होकर संसारके सम्पूर्ण अन्धकारको नष्ट कर देते हैं ॥ [ उन सूर्यदेव की मुनिगण स्तुति करते हैं , गन्धर्वगण उनके सम्मुख यशोगान करते हैं । अप्सराएँ नृत्य करती हुई चलती हैं , राक्षस रथ के पीछे रहते हैं , सर्पगण रथ का साज सजाते हैं और यक्ष घोड़ोंकी बागडोर सँभालते हैं तथा बालखिल्यादि रथको सब ओरसे घेरे रहते हैं ॥

5. विष्णु शक्ति की स्थायीत्व

त्रयीशक्तिरूप भगवान् विष्णु का न कभी उदय होता है और न अस्त [ अर्थात् वे स्थायीरूपसे सदा विद्यमान रहते हैं ] ; ये सात प्रकारके गण तो उनसे पृथक् हैं ॥ स्तम्भमें लगे हुए दर्पण के निकट जो कोई जाता है उसी को अपनी छाया दिखायी देने लगती है ॥ हे द्विज ! इसी प्रकार वह वैष्णवी शक्ति सूर्य के रथ से कभी चलायमान नहीं होती और प्रत्येक मासमें पृथक् – पृथक् सूर्य के [ परिवर्तित होकर ] उसमें स्थित होनेपर वह उसकी अधिष्ठात्री होती है ॥

6. सूर्यदेव का तृप्ति कार्य

हे द्विज ! दिन और रात्रि के कारणस्वरूप भगवान् सूर्य पितृगण , देवगण और मनुष्यादि को सदा तृप्त करते घूमते रहते हैं ॥ सूर्य की जो सुषुम्ना नामकी किरण है उससे शुक्लपक्षमें चन्द्रमाका पोषण होता है और फिर कृष्णपक्षमें उस अमृतमय चन्द्रमा की एक – एक कलाका  देवगण निरन्तर पान करते हैं ॥ हे द्विज ! कृष्णपक्ष के क्षय होनेपर [ चतुर्दशीके अनन्तर ] दो कलायुक्त चन्द्रमाका पितृगण पान करते हैं । इस प्रकार सूर्यद्वारा पितृगण का तर्पण होता है ॥

7. सूर्य की किरणों का कार्य

सूर्य अपनी किरणों से पृथिवी से जितना जल खींचता है उस सबको प्राणियोंकी पुष्टि और अन्नको वृद्धिके लिये बरसा देता है ॥

उससे भगवान् सूर्य समस्त प्राणियों को आनन्दित कर देते हैं और इस प्रकार वे देव , मनुष्य और पितृगण आदि वे सभीका पोषण करते हैं ॥

8. तृप्ति का क्रम

इस रीति से सूर्यदेव देवताओं की पाक्षिक , पितृगण की मासिक तथा मनुष्यों की नित्यप्रति तृप्ति करते रहते हैं ॥

 

Exit mobile version