सूर्य और उनके सात गणों का विवरण
1. सूर्य की प्रधानता
सूर्य सात गणों में से ही एक हैं तथापि उनमें प्रधान होने से उनकी विशेषता है ॥ भगवान् विष्णु की जो सर्वशक्तिमयी ऋक् , यजुः , साम नामकी परा शक्ति है वह वेदत्रयी ही सूर्य को ताप प्रदान करती है और [ उपासना किये जानेपर ] संसारके समस्त पापोंको नष्ट कर देती है ॥
2. वेदत्रयी का सूर्य में निवास
जगत्की स्थिति और पालन के लिये वे ऋक् , यजुः और सामरूप विष्णु सूर्यके भीतर निवास करते हैं ॥ प्रत्येक मासमें जो – जो सूर्य होता है उसी – उसीमें वह वेदत्रयीरूपिणी विष्णु की परा शक्ति निवास करती है ॥ पूर्वाह्नमें ऋक् , मध्याह्नमें बृहद्रथन्तरादि यजुः तथा सायंकालमें सामश्रुतियाँ सूर्यकी स्तुति करती हैं ॥
3. विष्णु शक्ति और त्रयीमयी वैष्णवी शक्ति
यह ऋक् – यजुः – सामस्वरूपिणी वेदत्रयी भगवान् विष्णुका ही अंग है । यह विष्णु – शक्ति सर्वदा आदित्यमें रहती है ॥ यह त्रयीमयी वैष्णवी शक्ति केवल सूर्यहीकी अधिष्ठात्री हो , सो नहीं , बल्कि ब्रह्मा , विष्णु और महादेव भी त्रयीमय ही हैं ॥ सर्गके आदिमें ब्रह्मा ऋङ्मय हैं , उसकी स्थितिके समय विष्णु यजुर्मय हैं तथा अन्तकालमें रुद्र साममय हैं । इसीलिये सामगानकी ध्वनि अपवित्र मानी गयी है ॥ इस प्रकार वह त्रयीमयी सात्त्विकी वैष्णवी शक्ति अपने सप्तगणों में स्थित आदित्यमें ही [ अतिशयरूपसे ] अवस्थित होती है ॥
4. सूर्यदेव और उनके साथ रहने वाले गण
सूर्यदेव भी अपनी प्रखर रश्मियोंसे अत्यन्त प्रज्वलित होकर संसारके सम्पूर्ण अन्धकारको नष्ट कर देते हैं ॥ [ उन सूर्यदेव की मुनिगण स्तुति करते हैं , गन्धर्वगण उनके सम्मुख यशोगान करते हैं । अप्सराएँ नृत्य करती हुई चलती हैं , राक्षस रथ के पीछे रहते हैं , सर्पगण रथ का साज सजाते हैं और यक्ष घोड़ोंकी बागडोर सँभालते हैं तथा बालखिल्यादि रथको सब ओरसे घेरे रहते हैं ॥
5. विष्णु शक्ति की स्थायीत्व
त्रयीशक्तिरूप भगवान् विष्णु का न कभी उदय होता है और न अस्त [ अर्थात् वे स्थायीरूपसे सदा विद्यमान रहते हैं ] ; ये सात प्रकारके गण तो उनसे पृथक् हैं ॥ स्तम्भमें लगे हुए दर्पण के निकट जो कोई जाता है उसी को अपनी छाया दिखायी देने लगती है ॥ हे द्विज ! इसी प्रकार वह वैष्णवी शक्ति सूर्य के रथ से कभी चलायमान नहीं होती और प्रत्येक मासमें पृथक् – पृथक् सूर्य के [ परिवर्तित होकर ] उसमें स्थित होनेपर वह उसकी अधिष्ठात्री होती है ॥
6. सूर्यदेव का तृप्ति कार्य
हे द्विज ! दिन और रात्रि के कारणस्वरूप भगवान् सूर्य पितृगण , देवगण और मनुष्यादि को सदा तृप्त करते घूमते रहते हैं ॥ सूर्य की जो सुषुम्ना नामकी किरण है उससे शुक्लपक्षमें चन्द्रमाका पोषण होता है और फिर कृष्णपक्षमें उस अमृतमय चन्द्रमा की एक – एक कलाका देवगण निरन्तर पान करते हैं ॥ हे द्विज ! कृष्णपक्ष के क्षय होनेपर [ चतुर्दशीके अनन्तर ] दो कलायुक्त चन्द्रमाका पितृगण पान करते हैं । इस प्रकार सूर्यद्वारा पितृगण का तर्पण होता है ॥
7. सूर्य की किरणों का कार्य
सूर्य अपनी किरणों से पृथिवी से जितना जल खींचता है उस सबको प्राणियोंकी पुष्टि और अन्नको वृद्धिके लिये बरसा देता है ॥
उससे भगवान् सूर्य समस्त प्राणियों को आनन्दित कर देते हैं और इस प्रकार वे देव , मनुष्य और पितृगण आदि वे सभीका पोषण करते हैं ॥
8. तृप्ति का क्रम
इस रीति से सूर्यदेव देवताओं की पाक्षिक , पितृगण की मासिक तथा मनुष्यों की नित्यप्रति तृप्ति करते रहते हैं ॥