सोमवंश का वर्णन
चन्द्रमा का उद्भव और उनका प्रभाव
परम तेजस्वी चन्द्रमा के वंश का क्रमशः श्रवण करो जिसमें अनेकों विख्यात राजालोग हुए हैं ॥ यह वंश नहुष , ययाति , कार्तवीर्य और अर्जुन आदि अनेकों अति बल – पराक्रमशील , कान्तिमान् , क्रियावान् और सद्गुणसम्पन्न राजाओंसे अलंकृत हुआ है । सम्पूर्ण जगत्के रचयिता भगवान् नारायणके नाभि – कमलसे उत्पन्न हुए भगवान् ब्रह्माजीके पुत्र अत्रि प्रजापति थे ॥
इन अत्रि के पुत्र चन्द्रमा हुए ॥ कमल – योनि भगवान् ब्रह्माजी ने उन्हें सम्पूर्ण औषधि , द्विजजन और नक्षत्रगणक आधिपत्यपर अभिषिक्त कर दिया था ॥ चन्द्रमा ने राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान किया ॥ अपने प्रभाव और अति उत्कृष्ट आधिपत्यके अधिकारी होनेसे चन्द्रमा पर राजमद सवार हुआ ॥
चन्द्रमा और तारा की कथा
तब मदोन्मत्त हो जाने के कारण उसने समस्त देवताओं के गुरु भगवान् बृहस्पति जी की भार्या तारा को हरण कर लिया ॥ तथा बृहस्पतिजी की प्रेरणा से भगवान् ब्रह्माजी के बहुत कुछ कहने – सुनने और देवर्षियोंके माँगने पर भी उसे न छोड़ा ॥ बृहस्पतिजी से द्वेष करनेके कारण शुक्रजी भी चन्द्रमाके सहायक हो गये और अंगिरासे विद्या – लाभ करनेके कारण भगवान् रुद्रने बृहस्पतिकी सहायता की [ क्योंकि बृहस्पतिजी अंगिराके पुत्र हैं ] ॥ जिस पक्ष में शुक्रजी थे उस ओरसे जम्भ और कुम्भ आदि समस्त दैत्य – दानवादिने भी [ सहायता देनेमें ] बड़ा उद्योग किया ॥
तथा सकल देव – सेनाके सहित इन्द्र बृहस्पतिजी के सहायक हुए ॥ इस प्रकार तारा के लिये उनमें तारकामय नामक अत्यन्त घोर युद्ध छिड़ गया ॥ तब रुद्र आदि देवगण दानवोंके प्रति और दानवगण देवताओंके प्रति नाना प्रकार के शस्त्र छोड़ने लगे ॥ इस प्रकार देवासुर संग्रामसे क्षुब्ध चित्त हो सम्पूर्ण संसारने ब्रह्माजीकी शरण ली ॥ तब भगवान् कमल – योनिने भी शुक्र , रुद्र , दानव और देवगणको युद्धसे निवृत्त कर बृहस्पतिजी को तारा दिलवा दी ॥
उसे गर्भिणी देखकर बृहस्पतिजीने कहा- ॥ ” मेरे क्षेत्रमें तुझको दूसरेका पुत्र धारण करना उचित नहीं है , इसे दूर कर , अधिक धृष्टता करना ठीक नहीं ” । बृहस्पतिजी के ऐसा कहने पर उस पतिव्रता ने पतिके वचनानुसार वह गर्भ इषीकास्तम्ब ( सींककी झाड़ी ) – में छोड़ दिया ॥ उस छोड़े हुए गर्भ ने अपने तेजसे समस्त देवताओं के तेज को मलिन कर दिया ॥ तदनन्तर उस बालक की सुन्दरता के कारण बृहस्पति और चन्द्रमा दोनों को उसे लेनेके लिये उत्सुक देख देवताओं ने सन्देह हो जाने के कारण तारासे पूछा- ॥ ” हे सुभगे ! तू हमको सच – सच बता , यह पुत्र बृहस्पति का है चन्द्रमा का ? ” ॥ उनके ऐसा कहने पर ताराने लज्जावश कुछ भी न कहा ॥
जब बहुत कुछ कहने पर भी वह देवताओं से न बोली तो वह बालक उसे शाप देनेके लिये उद्यत होकर बोला- ॥ “ अरी दुष्टा माँ ! तू मेरे पिताका नाम क्यों नहीं बतलाती ? तुझ व्यर्थ लज्जावतीकी मैं अभी ऐसी गति करूँगा जिससे तू आज से ही इस प्रकार अत्यन्त धीरे – धीरे बोलना भूल जायगी ” ॥
तदनन्तर पितामह श्रीब्रह्माजी ने उस बालक को रोककर तारासे स्वयं ही पूछा- ॥ “ बेटी ! ठीक ठीक बता यह पुत्र किसका है- बृहस्पतिका या चन्द्रमाका ? ” इसपर उसने लज्जापूर्वक कहा- ” चन्द्रमाका ” ॥ तब तो नक्षत्रपति भगवान् चन्द्रने उस बालकको हृदयसे लगाकर कहा- ” बहुत ठीक , बहुत ठीक , बेटा ! तुम बड़े बुद्धिमान् हो ; ” और उनका नाम ‘ बुध ‘ रख दिया । इस समय उनके निर्मल कपोलॉकी कान्ति उच्छ्वसित और देदीप्यमान हो रही थी ॥
बुध की कथा
बुध ने जिस प्रकार इलासे अपने पुत्र पुरूरवाको उत्पन्न किया था उसका वर्णन पहले ही कर चुके हैं ॥
पुरूरवा और उर्वशी की कथा
पुरूरवा अति दानशील , अति याज्ञिक और अति तेजस्वी था । ‘ मित्रावरुण के शाप से मुझे मर्त्यलोक में रहना पड़ेगा ‘ ऐसा विचार करते हुए उर्वशी अप्सरा की दृष्टि उस अति सत्यवादी , रूपके धनी और मतिमान् राजा पुरूरवापर पड़ी ॥ देखते ही वह सम्पूर्ण मान तथा स्वर्ग – सुखकी इच्छाको छोड़कर तन्मयभावसे उसीके पास आयी ॥ राजा पुरूरवाका चित्त भी उसे संसारकी समस्त स्त्रियोंमें विशिष्ट तथा कान्ति – सुकुमारता , सुन्दरता , गतिविलास और मुसकान आदि गुणोंसे युक्त देखकर उसके वशीभूत हो गया ॥ इस प्रकार वे दोनों ही परस्पर तन्मय और अनन्यचित्त होकर और सब कामोंको भूल गये ॥
निदान राजा ने नि : संकोच होकर कहा— ॥ “ हे सुभु ! मैं तुम्हारी इच्छा करता हूँ , तुम प्रसन्न होकर मुझे प्रेम – दान दो । ” राजा के ऐसा कहने पर उर्वशीने भी लज्जावश स्खलित स्वर में कहा- ॥ “ यदि आप मेरी प्रतिज्ञा को निभा सकें तो अवश्य ऐसा ही हो सकता है । ” यह सुनकर राजाने कहा- ॥ अच्छा , तुम अपनी प्रतिज्ञा मुझसे कहो ॥ इस प्रकार पूछनेपर वह फिर बोली- ॥ ” मेरे पुत्ररूप इन दो मेषों ( भेड़ों ) -को आप कभी मेरी शय्या से दूर न कर सकेंगे ॥ मैं कभी आपको नग्न न देखने पाऊँ ॥ और केवल घृत ही मेरा आहार होगा- [ यही मेरी तीन प्रतिज्ञाएँ हैं ] ” ॥ तब राजाने कहा- ” ऐसा ही होगा ” ॥
तदनन्तर राजा पुरूरवा ने दिन – दिन बढ़ते हुए आनन्द के साथ कभी अलकापुरी के अन्तर्गत चैत्ररथ आदि वनों में और कभी सुन्दर पद्मखण्डों से युक्त अति रमणीय मानस आदि सरोवरों में विहार करते हुए साठ हजार वर्ष बिता दिये ॥ उसके उपभोगसुख से प्रतिदिन अनुरागके बढ़ते रहनेसे उर्वशीको भी देवलोक में रहनेका इच्छा नहीं रही ॥ इधर उर्वशीके बिना अप्सराओं , सिद्धों और गन्धवाँको स्वर्गलोक अत्यन्त रमणीय नहीं मालूम होता था ॥ अत : उर्वशी और पुरूरवाकी प्रतिज्ञाके जानने वाल जाकर उसके शयनागार के पाससे एक मेष का हरण कर विश्वावसु ने एक दिन रात्रिके समय गन्धवोंके साथ लिया ॥
उसे आकाश में ले जाते समय उर्वशीने उसका शब्द सुना ॥ तब वह बोली- ” मुझ अनाथा के पुत्रको कौन लिये जाता है , अब मैं किसकी शरण जाऊँ ? ‘ ‘ ॥ किन्तु यह सुनकर भी इस भयसे कि रानी मुझे नंगा देख लेगी , राजा नहीं उठा ॥ तदनन्तर गन्धर्वगण दूसरा भी मेष लेकर चल दिये ॥ उसे ले जाते समय उसका शब्द सुनकर भी उर्वशी ‘ हाय ! मैं अनाथा और भर्तृहीना हूँ तथा एक कायरके अधीन हो गयी हूँ । ‘ इस प्रकार कहती हुई वह आर्त्तस्वरसे विलाप करने लगी ॥
तब राजा यह सोचकर कि इस समय अन्धकार [ अतः रानी मुझे नग्न न देख सकेगी ] , क्रोधपूर्वक ‘ अरे दुष्ट ! तू मारा गया ‘ यह कहते हुए तलवार लेकर पीछे दौड़ा ॥ इसी समय गन्धर्वोंने अति उज्ज्वल विद्युत् प्रकट कर दी ॥ उसके प्रकाशमें राजा को वस्त्रहीन देखकर प्रतिज्ञा टूट जाने से उर्वशी तुरन्त ही वहाँ से चली गयी ॥ गन्धर्वगण भी उन मेषोंको वहीं छोड़कर स्वर्गलोकमें चले गये ॥ किन्तु जब राजा उन मेषों को लिये हुए अति प्रसन्नचित्तसे अपने शयनागार में आया तो वहाँ उसने उर्वशीको न देखा ॥ उसे न देखनेसे वह उस वस्त्रहीन अवस्था में ही पागल के समान घूमने लगा ॥
घूमते – घूमते उसने एक दिन कुरुक्षेत्र के कमल – सरोवर में अन्य चार अप्सराओं के सहित उर्वशीको देखा ॥ उसे देखकर वह उन्मत्तके समान ‘ हे जाये ! ठहर , अरी हृदयकी निष्ठुरे ! खड़ी हो जा , अरी कपट रखनेवाली ! वार्तालापके लिये तनिक ठहर जा’- ऐसे अनेक वचन कहने लगा ॥ उर्वशी बोली- ” महाराज ! इन अज्ञानियोंकी – सी चेष्टाओंसे कोई लाभ नहीं ॥ इस समय मैं गर्भवती हूँ ।
एक वर्ष उपरान्त आप यहीं आ जावें , उस समय आपके एक पुत्र होगा और एक रात मैं भी आपके साथ रहूँगी । ” उर्वशीके ऐसा कहनेपर राजा पुरूरवा प्रसन्न चित्त से अपने नगर को चला गया ॥ तदनन्तर उर्वशीने अन्य अप्सराओंसे कहा- ॥ ” ये वही पुरुषश्रेष्ठ हैं जिनके साथ मैं इतने दिनोंतक प्रेमाकृष्ट – चित्तसे भूमण्डलमें रही थी ॥ इसपर अन्य अप्सराओंने कहा- ॥ ” वाह ! वाह ! सचमुच इनका सहवास हो ” ॥ रूप बड़ा ही मनोहर है , इनके साथ तो सर्वदा हमारा भी वर्ष समाप्त होनेपर राजा पुरूरवा वहाँ आये ॥
पुरूरवा का यज्ञ और उर्वशी के साथ पुनर्मिलन
उस समय उर्वशी ने उन्हें ‘ आयु ‘ नामक एक बालक दिया ॥ तथा उनके साथ एक रात रहकर पाँच पुत्र उत्पन्न करने के लिये गर्भ धारण किया ॥ और कहा – ‘ हमारे पारस्परिक स्नेहके कारण सकल गन्धर्वगण महाराजको वरदान देना चाहते हैं अतः आप अभीष्ट वर माँगिये ॥ राजा बोले– “ मैंने समस्त शत्रुओंको जीत लिया है , मेरी इन्द्रियोंकी सामर्थ्य नष्ट नहीं हुई है , मैं बन्धुजन , असंख्य सेना और कोशसे भी सम्पन्न हूँ , इस समय उर्वशीके सहवासके अतिरिक्त मुझे और कुछ भी प्राप्तव्य नहीं है ।
अतः मैं इस उर्वशीके साथ ही काल – यापन करना चाहता हूँ । ” राजाके ऐसा कहनेपर गन्धर्वोंने उन्हें एक अग्निस्थाली ( अग्नियुक्त पात्र ) दी और कहा “ इस अग्निके वैदिक विधिसे गार्हपत्य , आहवनीय और दक्षिणाग्नि रूप तीन भाग करके इसमें उर्वशी के सहवासकी कामनासे भलीभाँति यजन करो तो अवश्य ही तुम अपना अभीष्ट प्राप्त कर लोगे । ” गन्धर्वोंके ऐसा कहनेपर राजा उस अग्निस्थाली को लेकर चल दिये ॥
[ मार्गमें ] वनके अन्दर उन्होंने सोचा कैसा मूर्ख हूँ ? मैंने यह क्या किया जो इस अग्निस्थालीको तो ले आया और उर्वशी को नहीं लाया ‘ ॥ ऐसा सोचकर उस अग्निस्थाली को वनमें ही छोड़कर वे अपने नगर में चले आये ॥ आधीरात बीत जानेके बाद निद्रा टूटनेपर राजाने सोचा- ॥ ‘ उर्वशी की सन्निधि प्राप्त करनेके लिये ही गन्धर्वोंने मुझे वह अग्निस्थाली दी थी और मैंने उसे वनमें ही छोड़ दिया ॥ अतः अब मुझे उसे लानेके लिये जाना चाहिये ‘ ऐसा सोच उठकर वे वहाँ गये , किन्तु उन्होंने उस स्थाली को वहाँ न देखा ॥ अग्निस्थालीके स्थानपर राजा पुरूरवाने एक शमीगर्भ पीपलके वृक्षको देखकर सोचा – ॥
‘ मैंने यहीं तो वह अग्निस्थाली फेंकी थी । वह स्थाली ही शमीगर्भ पीपल हो गयी है ॥ अतः इस अग्निरूप अश्वत्थको ही अपने नगरमें ले जाकर इसकी अरणि बनाकर उससे उत्पन्न हुए अग्निकी ही उपासना करूँ ‘ ॥ ऐसा सोचकर राजा उस अश्वत्थको लेकर अपने नगरमें आये और उसकी अरणि बनायी ॥ तदनन्तर उन्होंने उस काष्ठको एक – एक अंगुल करके गायत्री मन्त्रका पाठ किया ॥
सारांश
उसके पाठसे गायत्री की अक्षर – संख्या के बराबर एक एक अंगुलकी अरणियाँ हो गयीं ॥ उनके मन्थनसे तीनों प्रकार के अग्नियों को उत्पन्न कर उनमें वैदिक विधिसे हवन किया ॥ तथा उर्वशी के सहवासरूप फलकी इच्छा की ॥ तदनन्तर उसी अग्निसे नाना प्रकारके यज्ञों का यजन करते हुए उन्होंने गन्धर्व – लोक प्राप्त किया और फिर उर्वशीसे उनका वियोग न हुआ ॥ पूर्वकाल में एक ही अग्नि था , उस एक ही से इस मन्वन्तर में तीन प्रकारके अग्नियों का प्रचार हुआ ॥