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2. हितैषिण और मनीषिण

हितैषिण और मनीषिण के बीच अंतर

हितैषिणः सन्ति न ते मनीषिणो
मनीषिणः सन्ति न ते हितैषिणः ।
सुहृच्च विद्वानपि दुर्लभो जनो
यथौषधं स्वादु च रोगहारि च ॥१॥
अर्थ – हितैषिण इति हित चिन्तन करने वाले विद्वान नहीं मिलते और जो विद्वान है वह हितचितक नहीं होते, इस लिए विद्वान और हितचिंतक यह दोनों भावयुक्त पुरुष का मिलना अति कठिन है । जैसे औषधि रोग को नष्ट भी करे और स्वादु भी हो तो यह अतीव दुष्कर है ॥

स्वार्थ और प्रेम के संबंध

वृक्षं क्षीणफलं त्यजंति विहागा दग्धं बनांतं मृगा ।
मालां पर्युषितां त्यजति हि जनाः शुष्कं सरः सारसा॥
निद्रव्यं पुरुषं त्यजति गणिका भ्रष्टं नृप सेवकाः ।
सर्वः स्वार्थवशाज्जनोनुरमते कः कस्य नो वल्लभः ॥२॥
अर्थ- वृक्षमिति फलहीन वृक्ष को पक्षी, जले हुए वन को मृग, बासो पुष्पमाला को मनुष्य, सूखे तालाब को बगुले, निर्धन को वेश्या और दुष्ट राजा को सेवक छोड़ देते हैं। इस लिए सब स्वार्थ के ही प्रेमी हैं। बिना स्वार्थ के कौन किस का प्रेमी हो सकता है ॥

सच्चा धन क्या है?

अधनं खलु जीवधनं हेमार्द्धनं महाधन धान्यम् ।
अतिधनमेतत्रितयं विद्या शीलं च मित्रं च ॥३॥
अर्थ – अधनमिति पुरुष पशु रूप धन से अधन ही होते हैं। और स्वर्ण धन से अर्द्धधनी, और धान्य से महाधनी परन्तु विद्या शीलता और मित्र से अति धनी कहलाते हैं ॥

आलस्य और उसके परिणाम

अलसस्यकुतोविद्या अविद्यस्यकुतोधनम् अधनस्यकुतोमित्त्रम, मिनस्य कुतो बलम् ॥४॥
अर्थ- अलसस्येति-आलसी पुरुष को विद्या, और बिना विद्या के धन, और निर्धन का मित्र और बिना मित्र से बल नहीं हो सकता ॥

गुण और गौरव की सीमा

तावद्गुणगुरुत्वं च यावन्नार्थयते परान् ।
अर्थी चेत्पुरुषो जातः वव गुणः क्व च गौरवम् ॥५॥
अर्थ – तावदिति तभी तक गुण विद्या और गौरव है जब तक याचना न करे यदि याचक हो जाए तो फिर गुण और गौरव कहां ॥

बुद्धिमान के लिए गोपनीयता के सिद्धांत

सद्धि मंत्रौषधे धर्ममायुवित्तं च मैथुनम ।
कुभुक्तं कुतं चैव बुद्धिमान्न प्रकाशयेत ॥६॥
अर्थ- सिद्धिमिति बुद्धिमान पुरुष किसी देवता आदि की सिद्धि, मन्त्र, औषधि, अपना धर्म, आयु, धन, मैथुन कुभक्षण, कुभुस और मैथुन यह सब कार्य किसी अन्य के आगे प्रकट नहीं करते ॥
अर्थनाशं मनस्तापं गेहे दुश्चरितानि च ।
वञ्चनं चापमानं च मतिमान्न प्रकाशयेत्॥
अर्थ-नाशमिति बुद्धिमान् को चाहिये कि वह अपने धन का नाश, मनोव्यथा, अपने घर की बुराई, ठगना और अप्रतिष्ठा किसी के आगे प्रकट न करे ॥

सुख और दुःख का स्वभाव

अधिकारश्च गर्भश्च ऋणं च श्वानमैथुनम् ।
प्रवेशे सुखामाप्नोति निर्गमे दुःखमेव च ॥८॥
अर्थ – अधिकार इति – कोई उत्तम स्थान की प्राप्ति, गर्भ, ऋण और कुत्तों का मैथुन यह प्रवेश समय सुख और अन्त में दु:खदाई होते हैं ॥

इन व्यक्तियों को न सताएं

सूपकारं कविवैद्य बन्दिनं शस्त्र पाणिनम् ।
स्वामिनं मूर्खमर्मज्ञौ अष्टौ ना न प्रकोपयेत ॥६॥
अर्थ-सूपकारमिति-अपनी शुभ चाहने वाले पुरुष को चाहिए कि वह अपने रसोईदार, कवि, वैद्य, वन्दना करने वाले भाट आदि शस्त्रधारी, अपने स्वामी, मूर्ख और अपने असल भेद को जानने वाले पुरुष को न सतावे ॥

वरिष्ठों और मूर्खों का आदर

अर्थपतौ भूमिपती विद्यावृद्धे तपोधिके बहुषु ।
मूर्खेष्वरिषु च गुरुषु विदुषा नैवोत्तरं वाच्यं ॥१०॥
अर्थ- पताविति बुद्धिमान को चाहिये कि वह धनी, राजा, विद्वान्, वृद्ध तपस्वी, मूर्ख, और गुरु के आगे उत्तर प्रत्युत्तर न करे ॥

बुद्धि की श्रेष्ठता

बुद्धिहीना न सद्विया विद्याया बुद्धिरुत्तमा ।
बुद्धिहीना विनश्यति यथाते सिंहकारका: ॥११॥
अर्थ- बुद्धिहीने ति बुद्धि के बिना सद्विद्या शोभा नहीं पाती क्योंकि विद्या से बुद्धि बढ़ कर होती है जैसे बुद्धि के बिना विद्वान होते हुए भी ( वह पुरुष ) सिंह के हाथ से मारे गये थे ॥

बुद्धि का बल

बुद्धिर्यस्य बलं तस्य निबुद्धेस्तु कुतो बलम ।
वने सिंहो मदोन्मत्तः शशकेन निपातितः ॥१२॥
अर्थ- बुद्धिरिति – जिनकी बुद्धि बल है वही बली है मूर्ख क्या बलवान हो सकता है जैसे देखो वह मतवाला सिंह एक क्षुद्र शशक के बुद्धि बल से ही मारा गया था ॥

कार्यों में विलम्ब न करें

 धर्मारम्भे ऋणच्छेदे कन्यादाने धनागमे ।
शत्रुवियाऽग्निरोगेषु कालक्षेपं न कारयेत् ॥१३॥
अर्थ-धर्मारम्भ इति-धर्म करने में, ऋण (कर्जा) काटने में, कन्यादान में, शत्रु नाश में, विद्या पढ़ने में अग्नि शमन में और रोग के विनाश में समय न देखे ॥

जीवन में मृत्यु तुल्य स्थितियां

ग्रामे वासो नायकोनिर्विवेकः कौटिल्यानामेव पातं कलत्रम्
नित्यंरोगः पारवश्यं च पुंस मेतत्सर्वं जीवतामेवमृत्युः ॥
अर्थ- ग्राम इति ग्राम में निवास, नीच नृप, नारी कलह कारिणि, नित्य रोग और पराधीनता वह सब मनुष्यों के लिये जीवतावस्था में भी मृत्यु तुल्य ही है ॥
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