दान का लक्षण

मत्स्य पुराण में कहा है कि जो द्रव्य अपने को सुख रूप में प्रिय है और न्यायरूप में धर्म से प्राप्त किया है सो द्रव्य शुभ गुण सम्पन्न विद्वान के प्रति देना उचित है। यह दान का लक्षण है।

बलि का सर्वस्व दान

स्कन्ध पुराण में कहा है कि बलि के सर्वस्व दान करने के वचन सुनकर ब्रह्मा ने विष्णु (वामन रूप से कहा कि आप ऐसा क्यों करते हैं। तब वामन भगवान् ने कहा हे ब्राह्मण ! जिस प्राणी पर मैं कृपा करता हूँ उस का सर्वधन प्रथम हर लेता हूँ क्योंकि जिस धन के मद से पुरुष श्रद्धा भक्ति, नम्र भाव से हीन होकर लोगों का और अपमान करता है ऐसे धन का हरण ही उस भक्त के लिये कल्याणकारी है। यह भागवत में भी कहा है।

अन्नदान का अद्वितीय महत्व

गर्ग संहिता में कहा है कि अन्नदान के समान दान न पूर्व हुआ है, न अब है, न आगे होगा, क्योंकि देवताओं की, ऋषियों की, पितरों की, पुरुषों की, सर्व की, तृप्ति अन्न से ही होती है।

विभिन्न युगों में दान का महत्व

मनुस्मृति में कहा है कि सतयुग में चित्त की एकाग्रता रूपी तप करना ही कल्याणकारी था, त्रेतायुग में आत्मा का ब्रह्मस्वरूप अद्वैत, ज्ञान ही कल्याणकारी था, द्वापर युग में यज्ञ ही शुभ कार्य था, कलियुग में एक दान करना ही कल्याणकारी कहा है। अन्य युगों के धर्म अन्य युगों में कष्ट साध्य हैं।

विभिन्न युगों में दान की विधि

मनुस्मृति में कहा है कि सतयुग में जिसको दान देना होता था उसको स्वयं सदा से जाकर दिया करते थे, त्रेतायुग में कुछ श्रद्धा कम होने से गृह में बुलाकर दान दिया करते थे, द्वापर युग में और भी श्रद्धा कम होने से याचना करने पर दान दिया जाता था और कलियुग में तो सेवा करा कर दान दिया जाता है।

दान के प्रकार

किसी भी युग में दान दिया जाये तो स्वयं जाकर देना चाहिये सो सतयुगी श्रमदान कहा जाता है गृह में बुलाकर जो दान दिया जाता है सो मध्यम कहा है और याचना करने पर जो दान किया जाता है सो अधम दान कहा है। सेवा कराकर जो दान दिया जाता है उस कपट दान का सेवा से बिना कोई फल नहीं हैं।

ग्रहण के समय दान

ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा है कि सूर्य चन्द्रमा के ग्रहण में स्पर्शकाल से लेकर मोक्षकाल पर्यन्त स्नान दान अवश्य ही करना चाहिये।

दान का निषेध

ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा है कि जो द्रव्य ब्राह्मणों को स्वयं अथवा पिता आदि से दान करा हुआ है, उस ब्राह्मण धन को जो पुरुष हरण करता है वो साठ हजार वर्ष पर्यन्त विष्ठा में कीट होकर जन्मता है अस्तु दान देकर लेना निषेध कहा है और जैसे ऊसर भूमि में बोया हुआ बीज फलीभूत नहीं होता है, वैसे ही दुर्जन को दिया दान फलीभूत नहीं होता है। शुभ भूमि के समान विद्वान, सदाचारी को दान दिया हुआ ही फलीभूत होता है।

पिण्डदान का महत्व

अथर्ववेद में कहा है कि जैसे हजारों गौओं के समूह में से छिपी हुई अपनी माता गौ को बछड़ा खोज कर प्राप्त हो जाता है वैसे ही विधिपूर्वक मन्त्रों से दिये हुये पिण्डों को लेकर मन्त्र जिस स्थान से जिस योनि में जन्तु स्थित हैं, वहां ही उस प्राणी को खोज कर पिण्डों को प्राप्त करा देता है।

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Megha patidar is a passionate website designer and blogger who is dedicated to Hindu mythology, drawing insights from sacred texts like the Vedas and Puranas, and making ancient wisdom accessible and engaging for all.

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