99. सूर्य , नक्षत्र एवं राशियोंकी व्यवस्था तथा कालचक्र , लोकपाल और गंगाविर्भावका वर्णन

सूर्यदेव का रथ

रथ का विस्तार

सूर्यदेवके रथका विस्तार नौ हजार योजन है तथा इससे दूना उसका ईषा – दण्ड ( जूआ और रथके बीचका भाग ) है ॥ उसका धुरा डेढ़ करोड़ सात लाख योजन लम्बा है जिसमें उसका पहिया लगा हुआ है ॥ उस पूर्वाह्न , मध्याह्न और पराह्नरूप तीन नाभि , परिवत्सरादि पाँच अरे और षड् – ऋतुरूप छ : नेमिवाले अक्षयस्वरूप संवत्सरात्मक चक्रमें सम्पूर्ण कालचक्र स्थित है ॥

सूर्यदेव के घोड़े

सात छन्द ही उसके घोड़े हैं , उनके नाम सुनो- गायत्री , बृहती , उष्णिक् , जगती , त्रिष्टुप् अनुष्टुप् और पंक्ति- ये छन्द ही सूर्यके सात घोड़े कहे गये हैं ॥ भगवान् सूर्यके रथका दूसरा धुरा साढ़े पैंतालीस सहस्र योजन लम्बा है ॥ दोनों धुरोंके परिमाणके तुल्य ही उसके युगाद्ध ( जूओं ) का परिमाण है , इनमेंसे छोटा धुरा उस रथके एक युगार्द्ध ( जूए ) के सहित ध्रुवके आधारपर स्थित है और दूसरे धुरेका चक्र मानसोत्तरपर्वतपर स्थित है ॥

मानसोत्तर पर्वत के चारों ओर स्थित पुरियाँ

इस मानसोत्तरपर्वतके पूर्वमें इन्द्रकी , दक्षिणमें यमकी , पश्चिममें वरुणकी और उत्तरमें चन्द्रमाकी पुरी है ; उन पुरियोंके नाम सुनो ॥ इन्द्रकी पुरी वस्वौकसारा है , यमकी संयमनी है , वरुणकी सुखा है तथा चन्द्रमाकी विभावरी है ॥

सूर्यदेव का मार्ग

ज्योतिश्चक्रके सहित भगवान् भानु दक्षिण दिशामें प्रवेशकर छोड़े हुए बाणके समान तीव्र वेगसे चलते हैं ॥ भगवान् सूर्यदेव दिन और रात्रिकी व्यवस्थाके कारण हैं और रागादि क्लेशोंके क्षीण हो जानेपर वे ही क्रममुक्तिभागी योगिजनोंके देवयान नामक श्रेष्ठ मार्ग हैं ॥ सभी द्वीपोंमें सर्वदा मध्याहन तथा मध्यरात्रिके समय सूर्यदेव मध्य आकाशमें सामनेकी ओर रहते हैं ॥

सूर्यदेव का उदय और अस्त

इसी प्रकार उदय और अस्त भी सदा एक – दूसरेके सम्मुख ही होते हैं । समस्त दिशा और विदिशाओंमें जहाँके लोग [ रात्रिका अन्त होनेपर ] सूर्यको जिस स्थानपर देखते हैं उनके लिये वहाँ उसका उदय होता है और जहाँ दिनके अन्तमें सूर्यका तिरोभाव होता है वहीं उसका अस्त कहा जाता है ॥ सर्वदा एक रूपसे स्थित सूर्यदेवका वास्तवमें न उदय होता है और न अस्त ; बस , उनका देखना और न देखना ही उनके उदय और अस्त हैं ॥

मध्याह्नकालमें इन्द्रादिमेंसे किसीकी पुरीपर प्रकाशित होते हुए सूर्यदेव [ पार्श्ववर्ती दो पुरियोंके सहित ] तीन पुरियों और दो कोणों ( विदिशाओं ) -को प्रकाशित करते हैं , इसी प्रकार अग्नि आदि कोणोंमेंसे किसी एक कोणमें प्रकाशित होते हुए वे [ पार्श्ववर्ती दो कोणोंके सहित ] तीन कोण और दो पुरियोंको प्रकाशित करते हैं ॥ सूर्यदेव उदय होनेके अनन्तर मध्याह्नपर्यन्त अपनी बढ़ती हुई किरणोंसे तपते हैं और फिर क्षीण होती हुई किरणोंसे अस्त हो जाते हैं ॥ सूर्यके उदय और अस्तसे ही पूर्व तथा पश्चिम दिशाओंकी व्यवस्था हुई है । वास्तवमें तो , वे जिस प्रकार पूर्वमें प्रकाश करते हैं उसी प्रकार पश्चिम तथा पाश्र्ववर्तिनी [ उत्तर और दक्षिण ] दिशाओंमें भी करते हैं ॥

सूर्यदेव देवपर्वत सुमेरुके ऊपर स्थित ब्रह्माजीकी सभाके अतिरिक्त और सभी स्थानोंको प्रकाशित करते हैं ; उनकी जो किरणें ब्रह्माजीकी सभामें जाती हैं वे उसके तेजसे निरस्त होकर उलटी लौट आती हैं ॥ सुमेरुपर्वत समस्त द्वीप और वर्षोंके उत्तरमें है इसलिये उत्तरदिशामें ( मेरुपर्वतपर ) सदा [ एक ओर ] दिन और [ दूसरी ओर ] रात रहते हैं ॥ रात्रिके समय सूर्यके अस्त हो जानेपर उसका तेज अग्निमें प्रविष्ट हो जाता है ; इसलिये उस समय अग्नि दूरहीसे प्रकाशित होने लगता है ॥ इसी प्रकार दिनके समय अग्निका तेज सूर्यमें प्रविष्ट हो जाता है ; अत : अग्निके संयोगसे ही सूर्य अत्यन्त प्रखरतासे प्रकाशित होता है ॥

इस प्रकार सूर्य और अग्निके प्रकाश तथा उष्णतामय तेज परस्पर मिलकर दिन – रातमें वृद्धिको प्राप्त होते रहते हैं ॥ मेरुके दक्षिणी और उत्तरी भूम्यर्द्ध में सूर्यके प्रकाशित होते समय अन्धकारमयी रात्रि और प्रकाशमय दिन क्रमश : जलमें प्रवेश कर जाते हैं ॥ दिनके समय रात्रिके प्रवेश करनेसे ही जल कुछ ताम्रवर्ण दिखायी देता है , किन्तु सूर्य – अस्त हो जानेपर उसमें दिनका प्रवेश हो जाता है ; इसलिये दिनके प्रवेशके कारण ही रात्रिके समय वह शुक्लवर्ण हो जाता है ॥

इस प्रकार जब सूर्य पुष्करद्वीपके मध्यमें पहुँचकर पृथ्वीका तीसवाँ भाग पार कर लेता है तो उसकी वह गति एक मुहूर्तकी होती है । [ अर्थात् उतने भागके अतिक्रमण करनेमें उसे जितना समय लगता है वही मुहूर्त कहलाता है ] ॥ कुलाल – चक्र ( कुम्हारके चाक ) के सिरेपर घूमते हुए जीवके समान भ्रमण करता हुआ यह सूर्य पृथिवीके तीसों भागोंका अतिक्रमण करनेपर एक दिन रात्रि करता है ॥

उत्तरायण और दक्षिणायन

 उत्तरायणके आरम्भ में सूर्य सबसे पहले मकरराशिमें जाता है , उसके पश्चात् वह कुम्भ और मीन राशियों में एक राशिसे दूसरी राशिमें जाता है ॥ इन तीनों राशियोंको भोग चुकनेपर सूर्य रात्रि और दिनको समान करता हुआ वैषुवती गतिका अवलम्बन करता है , [ अर्थात् वह भूमध्य – रेखाके बीचमें ही चलता है ] ॥ उसके अनन्तर नित्यप्रति रात्रि क्षीण होने लगती है और दिन बढ़ने लगता है । फिर [ मेष तथा वृष राशिका अतिक्रमण कर ] मिथुनराशिसे निकलकर उत्तरायणकी अन्तिम सीमापर उपस्थित हो वह कर्कराशिमें पहुँचकर दक्षिणायनका आरम्भ करता है ॥

जिस प्रकार कुलाल – चक्रके सिरेपर स्थित जीव अति शीघ्रतासे घूमता है उसी प्रकार सूर्य भी दक्षिणायनको पार करनेमें अति शीघ्रतासे चलता है ॥ अतः वह अति शीघ्रतापूर्वक वायुवेगसे चलते हुए अपने उत्कृष्ट मार्गको थोड़े समयमें ही पार कर लेता है ॥  दक्षिणायनमें दिनके समय शीघ्रतापूर्वक चलनेसे उस समयके साढ़े तेरह नक्षत्रोंको सूर्य बारह मुहूर्तोंमें पार कर लेता है , किन्तु रात्रिके समय ( मन्दगामी होनेसे ) उतने ही नक्षत्रोंको अठारह मुहूर्तोंमें पार करता है ॥

ज्योतिष चक्र

कुलाल – चक्रके मध्यमें स्थित जीव जिस प्रकार धीरे – धीरे चलता है उसी प्रकार उत्तरायणके समय सूर्य मन्दगतिसे चलता है ॥ इसलिये उस समय वह थोड़ी – सी भूमि भी अति दीर्घकालमें पार करता है , अतः उत्तरायणका अन्तिम दिन अठारह मुहूर्तका होता है , उस दिन भी सूर्य अति मन्दगतिसे चलता है और ज्योतिश्चक्रार्धके साढ़े तेरह नक्षत्रोंको एक दिनमें पार करता है किन्तु रात्रिके समय वह उतने ही ( साढ़े तेरह ) नक्षत्रोंको बारह मुहूर्तों में ही पार कर लेता है ॥ अतः जिस प्रकार नाभिदेशमें चक्रके मन्द – मन्द घूमनेसे वहाँका मृत् – पिण्ड भी मन्दगतिसे घूमता है उसी प्रकार ज्योतिश्चक्रके मध्य में स्थित ध्रुव अति मन्द गतिसे घूमता है ॥

जिस प्रकार कुलाल – चक्रकी नाभि अपने स्थानपर ही घूमती रहती है , उसी प्रकार ध्रुव भी अपने स्थानपर ही घूमता रहता है । इस प्रकार उत्तर तथा दक्षिण सीमाओंके मध्यमें मण्डलाकार घूमते रहनेसे सूर्यकी गति दिन अथवा रात्रिके समय मन्द अथवा शीघ्र हो जाती है ॥ जिस अयनमें सूर्यकी गति दिनके समय मन्द होती है उसमें रात्रिके समय शीघ्र होती है तथा जिस समय रात्रि – कालमें शीघ्र होती है । उस समय दिनमें मन्द हो जाती है ॥

सूर्यको सदा एक बराबर मार्ग ही पार करना पड़ता है ; एक दिन – रात्रिमें यह समस्त राशियोंका भोग कर लेता है ॥ सूर्य छः राशियोंको रात्रिके समय भोगता है और छ : को दिनके समय । राशियोंके परिमाणानुसार ही दिनका बढ़ना – घटना होता है तथा रात्रिकी लघुता – दीर्घता भी राशियोंके परिमाणसे ही होती है ॥ राशियोंके भोगानुसार ही दिन अथवा रात्रिकी लघुता अथवा दीर्घता होती है । उत्तरायणमें सूर्यकी गति रात्रिकालमें शीघ्र होती है तथा दिनमें मन्द दक्षिणायनमें उसकी गति इसके विपरीत होती है ॥

सन्ध्या काल

रात्रि उषा कहलाती है तथा दिन व्युष्टि ( प्रभात ) कहा जाता है ; इन उषा तथा व्युष्टिके बीचके समयको सन्ध्या कहते हैं ॥ इस अति दारुण और भयानक सन्ध्याकालके उपस्थित होनेपर मन्देहा नामक भयंकर राक्षसगण सूर्यको खाना चाहते हैं ॥ उन राक्षसोंको प्रजापतिका यह शाप है कि उनका शरीर अक्षय रहकर भी मरण नित्यप्रति हो ॥ अतः सन्ध्याकालमें उनका सूर्यसे अति भीषण युद्ध होता है ;  उस समय द्विजोत्तमगण जो ब्रह्मस्वरूप ॐकार तथा गायत्रीसे अभिमन्त्रित जल छोड़ते हैं , उस वज्रस्वरूप जलसे वे दुष्ट राक्षस दग्ध हो जाते हैं ।

अग्निहोत्रमें जो ‘ सूर्यो ज्योतिः ‘ इत्यादि मन्त्रसे प्रथम आहुति दी जाती है उससे सहस्त्रांशु दिननाथ देदीप्यमान हो जाते हैं ॥ ॐकार विश्व , तैजस् और प्राज्ञरूप तीन धामोंसे युक्त भगवान् विष्णु है तथा सम्पूर्ण वाणियों ( वेदों ) -का अधिपति है , उसके उच्चारणमात्रसे ही वे राक्षसगण नष्ट हो जाते हैं ॥ सूर्य विष्णुभगवान्का अति श्रेष्ठ अंश और विकाररहित अन्तर्ज्योतिः स्वरूप है । ॐकार उसका वाचक है और वह उसे उन राक्षसोंके वधमें अत्यन्त प्रेरित करनेवाला है ॥

दिन-रात का विभाजन

उस ॐ कारकी प्रेरणासे अति प्रदीप्त होकर वह ज्योति मन्देहा नामक सम्पूर्ण पापी राक्षसोंको दग्ध कर देती है ॥ इसलिये सन्ध्योपासन कर्मका उल्लंघन कभी न करना चाहिये । जो पुरुष सन्ध्योपासन नहीं करता वह भगवान् सूर्यका घात करता है ॥ तदनन्तर [ उन राक्षसोंका वध करनेके पश्चात् ] भगवान् सूर्य संसारके पालनमें प्रवृत्त हो बालखिल्यादि ब्राह्मणोंसे सुरक्षित होकर गमन करते हैं ॥ पन्द्रह निमेषकी एक काष्ठा होती है और तीस काष्ठाकी एक कला गिनी जाती है । तीस कलाओंका एक मुहूर्त होता है और तीस मुहूर्तोंके सम्पूर्ण रात्रि – दिन होते हैं ॥

दिनोंका ह्रास अथवा वृद्धि क्रमशः प्रातः काल , मध्याह्नकाल आदि दिवसांशोंके ह्रास – वृद्धिके कारण होते हैं ; किन्तु दिनोंके घटते – बढ़ते रहनेपर भी सन्ध्या सर्वदा समान भावसे एक मुहूर्तकी ही होती है ॥ उदयसे लेकर सूर्यकी तीन मुहूर्तकी गतिके कालको ‘ प्रातःकाल ‘ कहते हैं , यह सम्पूर्ण दिनका पाँचवाँ भाग होता है ॥ इस प्रातः कालके अनन्तर तीन मुहूर्तका समय ‘ संगव ‘ कहलाता है तथा संगवकालके पश्चात् तीन मुहूर्तका ‘ मध्याह्न ‘ होता है ॥

मध्याह्नकालसे पीछेका समय ‘ अपराह्न ‘ कहलाता है इस काल – भागको भी बुधजन तीन मुहूर्तका ही बताते हैं ॥ अपराह्नके बीतनेपर ‘ सायाह्न ‘ आता है । इस प्रकार [ सम्पूर्ण दिनमें ] पन्द्रह मुहूर्त और [ प्रत्येक दिवसांशमें ] तीन मुहूर्त होते हैं ॥ वैषुवत दिवस पन्द्रह मुहूर्तका होता है , किन्तु उत्तरायण और दक्षिणायनमें क्रमशः उसके वृद्धि और ह्रास होने लगते हैं । इस प्रकार उत्तरायणमें दिन रात्रिका ग्रास करने लगता है और दक्षिणायनमें रात्रि दिनका ग्रास करती रहती है ।।

विषुव काल

शरद् और वसन्त ऋतुके मध्यमें सूर्यके तुला अथवा मेषराशिमें जानेपर ‘ विषुव ‘ होता है । उस समय दिन और रात्रि समान होते हैं ॥ सूर्यके कर्कराशिमें उपस्थित होनेपर दक्षिणायन कहा जाता है और उसके मकरराशिपर आनेसे उत्तरायण कहलाता है ॥ जो तीस मुहूर्तके एक रात्रि – दिन कहे हैं , ऐसे पन्द्रह रात्रि – दिवसका एक ‘ पक्ष ‘ कहा जाता है ॥ दो पक्षका एक मास होता है , दो सौरमासकी एक ऋतु और तीन ऋतुका एक अयन होता है तथा दो अयन ही [ मिलाकर ] एक वर्ष कहे जाते हैं ॥

संवत्सर और युग

[ सौर , सावन , चान्द्र तथा नाक्षत्र – इन ] चार प्रकारके मासोंके अनुसार विविधरूपसे कल्पित संवत्सरादि पाँच प्रकारके वर्ष ‘ युग ‘ कहलाते हैं यह युग ही [ मलमासादि ] सब प्रकारके काल – निर्णयका कारण कहा जाता है ॥ उनमें पहला संवत्सर , दूसरा परिवत्सर , तीसरा इद्वत्सर , चौथा अनुवत्सर और पाँचवाँ वत्सर है । यह काल ‘ युग ‘ नामसे विख्यात है ॥ श्वेतवर्षके उत्तरमें जो शृंगवान् नामसे विख्यात पर्वत है उसके तीन श्रृंग हैं , जिनके कारण यह श्रृंगवान् कहा जाता है ॥

उनमेंसे एक श्रृंग उत्तरमें , एक दक्षिणमें तथा एक मध्यमें है । मध्यशृंग ही ‘ वैषुवत ‘ है । शरद् और वसन्त ऋतुके मध्यमें सूर्य इस वैषुवतशृंगपर आते हैं ;  मेष अथवा तुलाराशिके आरम्भमें तिमिरापहारी सूर्यदेव विषुवत्पर स्थित होकर दिन और रात्रिको समान परिमाण कर देते हैं । उस समय ये दोनों पन्द्रह – पन्द्रह मुहूर्तके होते हैं ॥

जिस समय सूर्य कृत्तिकानक्षत्रके प्रथम भाग अर्थात् मेषराशिके अन्तमें तथा चन्द्रमा निश्चय ही विशाखाके चतुर्थांश [ अर्थात् वृश्चिकके आरम्भ ] में हों ; अथवा जिस समय सूर्य विशाखाके तृतीय भाग अर्थात् तुलाके अन्तिमांशका भोग करते हों और चन्द्रमा कृत्तिकाके प्रथम भाग अर्थात् मेषान्तमें स्थित जान पड़ें तभी यह ‘ विषुव ‘ नामक अति पवित्र काल कहा जाता है ; इस समय देवता , ब्राह्मण और पितृगणके उद्देश्यसे संयतचित्त होकर दानादि देने चाहिये ।

यह समय दानग्रहणके लिये मानो देवताओंके खुले हुए मुखके समान है । अतः ‘ विषुव ‘ कालमें दान करनेवाला मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है ॥ यागादिके काल – निर्णयके लिये दिन , रात्रि , पक्ष , कला , काष्ठा और क्षण आदिका विषय भली प्रकार जानना चाहिये । राका और अनुमति दो प्रकारकी पूर्णमासी ‘ तथा सिनीवाली और कुहू दो प्रकारकी अमावास्या होती हैं ॥ माघ – फाल्गुन , चैत्र – वैशाख तथा ज्येष्ठ – आषाढ़- ये छः मास उत्तरायण होते हैं और श्रावण – भाद्र , आश्विन – कार्तिक तथा अगहन – पौष – ये छः दक्षिणायन कहलाते हैं ॥

मैंने पहले तुमसे जिस लोकालोकपर्वतका वर्णन किया है , उसीपर चार व्रतशील लोकपाल निवास करते हैं ॥ सुधामा , कर्दमके पुत्र शंखपाद और हिरण्यरोमा तथा केतुमान्- ये चारों निर्द्वन्द्व , निरभिमान , निरालस्य और निष्परिग्रह लोकपालगण लोकालोक पर्वतकी चारों दिशाओंमें स्थित हैं ॥ जो अगस्त्यके उत्तर तथा अजवीथिके दक्षिणमें वैश्वानरमार्गसे भिन्न [ मृगवीथि नामक ] मार्ग है वही पितृयानपथ है ॥ उस पितृयानमार्गमें महात्मा मुनिजन रहते हैं ।

जो लोग अग्निहोत्री होकर प्राणियोंकी उत्पत्तिके आरम्भक ब्रह्म ( वेद ) की स्तुति करते हुए यज्ञानुष्ठानके लिये उद्यत हो कर्मका आरम्भ करते हैं वह ( पितृयान ) उनका दक्षिणमार्ग है ॥ वे युग युगान्तरमें विच्छिन्न हुए वैदिक धर्मकी सन्तान , तपस्या , वर्णाश्रम – मर्यादा और विविध शास्त्रोंके द्वारा पुनः स्थापना करते हैं ॥पूर्वतन धर्मप्रवर्तक ही अपनी उत्तरकालीन सन्तानके यहाँ उत्पन्न होते हैं और फिर उत्तरकालीन धर्म प्रचारकगण अपने यहाँ सन्तानरूपसे उत्पन्न हुए अपने पितृगणके कुलोंमें जन्म लेते हैं ॥ इस प्रकार , वे व्रतशील महर्षिगण चन्द्रमा और तारागणकी स्थितिपर्यन्त सूर्यके दक्षिणमार्गमें पुनः पुनः आते जाते रहते हैं ॥

नागवीथिके उत्तर और सप्तर्षियोंके दक्षिणमें जो सूर्यका उत्तरीय मार्ग है उसे देवयानमार्ग कहते हैं ॥ उसमें जो प्रसिद्ध निर्मलस्वभाव और जितेन्द्रिय ब्रह्मचारिगण निवास करते हैं वे सन्तानकी इच्छा नहीं करते , अतः उन्होंने मृत्युको जीत लिया है ॥ सूर्यके उत्तरमार्गमें अस्सी हजार ऊर्ध्वरेता मुनिगण प्रलयकालपर्यन्त निवास करते हैं ॥ उन्होंने लोभके असंयोग , मैथुनके त्याग , इच्छा और द्वेषकी अप्रवृत्ति , कर्मानुष्ठानके त्याग , काम – वासनाके असंयोग और शब्दादि विषयोंके दोषदर्शन इत्यादि कारणोंसे शुद्धचित्त होकर अमरता प्राप्त कर ली है । भूतोंके प्रलयपर्यन्त स्थिर रहनेको ही अमरता कहते हैं । त्रिलोकीकी स्थितितकके इस कालको ही अपुनर्मार ( पुनर्मृत्युरहित ) कहा जाता है ॥ ब्रह्महत्या और अश्वमेधयज्ञसे जो पाप और पुण्य होते हैं उनका फल प्रलयपर्यन्त कहा गया है ॥

विष्णु का परमपद

जितने प्रदेशमें ध्रुव स्थित है , पृथिवीसे लेकर उस प्रदेशपर्यन्त सम्पूर्ण देश प्रलयकालमें नष्ट हो जाता है ॥ सप्तर्षियोंसे उत्तर – दिशामें ऊपरकी ओर जहाँ ध्रुव स्थित है वह अति तेजोमय स्थान ही आकाशमें विष्णुभगवान्‌का तीसरा दिव्यधाम है ॥  पुण्य – पापके क्षीण हो जानेपर दोष – पंकशून्य संयतात्मा मुनिजनोंका यही परमस्थान है ॥ पाप – पुण्यके निवृत्त हो जाने तथा देह – प्राप्तिके सम्पूर्ण कारणोंके नष्ट हो जानेपर प्राणिगण जिस स्थानपर जाकर फिर शोक नहीं करते वही भगवान् विष्णुका परमपद है ॥

जहाँ भगवान्की समान ऐश्वर्यतासे प्राप्त हुए योगद्वारा सतेज होकर धर्म और ध्रुव आदि लोक – साक्षिगण निवास करते हैं वही भगवान् विष्णुका परमपद है ॥ जिसमें यह भूत , भविष्यत् और वर्तमान चराचर जगत् ओत – प्रोत हो रहा है वही भगवान् विष्णुका परमपद है ॥ जो तल्लीन योगिजनोंको आकाश मण्डलमें देदीप्यमान सूर्यके समान सबके प्रकाशकरूपसे । प्रतीत होता है तथा जिसका विवेक – ज्ञानसे ही प्रत्यक्ष होता है वही भगवान् विष्णुका परमपद है ॥

 उस विष्णुपदमें ही सबके आधारभूत परम तेजस्वी ध्रुव स्थित हैं , तथा ध्रुवजीमें समस्त नक्षत्र , नक्षत्रोंमें मेघ और मेघोंमें वृष्टि आश्रित है । उस वृष्टिसे ही समस्त सृष्टिका पोषण और सम्पूर्ण देव मनुष्यादि प्राणियोंकी पुष्टि होती है ॥ तदनन्तर गौ आदि प्राणियोंसे उत्पन्न दुग्ध और घृत आदिकी आहुतियोंसे परितुष्ट अग्निदेव ही प्राणियोंकी स्थितिके लिये पुनः वृष्टिके कारण होते हैं ॥ इस प्रकार विष्णुभगवान्‌का यह निर्मल तृतीय लोक ( ध्रुव ) ही त्रिलोकीका आधारभूत और वृष्टिका आदिकारण है ॥

इस विष्णुपदसे ही देवांगनाओंके अंगरागसे पाण्डुरवर्ण हुई – सी सर्वपापापहारिणी श्रीगंगाजी उत्पन्न हुई हैं ॥ विष्णुभगवान्के वाम चरण कमलके अँगूठेके नखरूप स्रोतसे निकली हुई उन गंगाजीको ध्रुव दिन – रात अपने मस्तकपर धारण करता है ॥ तदनन्तर जिनके जलमें खड़े होकर प्राणायाम परायण सप्तर्षिगण उनकी तरंगभंगीसे जटाकलापके कम्पायमान होते हुए , अघमर्षण – मन्त्रका जप करते हैं तथा जिनके विस्तृत जलसमूहसे आप्लावित होकर चन्द्रमण्डल क्षयके अनन्तर पुन : पहलेसे भी अधिक कान्ति धारण करता है , वे श्रीगंगाजी चन्द्रमण्डलसे निकलकर मेरुपर्वतके ऊपर गिरती हैं और संसारको पवित्र करनेके लिये चारों दिशाओंमें जाती हैं ॥

चारों दिशाओंमें जानेसे वे एक ही सीता , अलकनन्दा , चक्षु और भद्र – इन चार भेदोंवाली हो जाती हैं ॥ जिसके अलकनन्दा नामक दक्षिणीय भेदको भगवान् शंकरने अत्यन्त प्रीतिपूर्वक सौ वर्षसे भी अधिक अपने मस्तकपर धारण किया था , जिसने श्रीशंकरके जटाकलापसे निकलकर पापी सगरपुत्रोंके अस्थिचूर्णको आप्लावित कर उन्हें स्वर्गमें पहुँचा दिया । जिसके जलमें स्नान करनेसे शीघ्र ही समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और अपूर्व पुण्यकी प्राप्ति होती है ॥

जिसके प्रवाहमें पुत्रोंद्वारा पितरोंके लिये श्रद्धापूर्वक किया हुआ एक दिनका भी तर्पण उन्हें सौ वर्षतक दुर्लभ तृप्ति देता है ॥ जिसके तटपर राजाओंने महायज्ञोंसे यज्ञेश्वर भगवान् पुरुषोत्तमका यजन करके इहलोक और स्वर्गलोकमें परमसिद्धि लाभ की है ॥ जिसके जलमें स्नान करनेसे निष्पाप हुए यतिजनोंने भगवान् केशवमें चित्त लगाकर अत्युत्तम निर्वाणपद प्राप्त किया है ॥ जो अपना श्रवण , इच्छा , दर्शन , स्पर्श , जलपान , स्नान तथा यशोगान करनेसे ही नित्यप्रति प्राणियोंको पवित्र करती रहती है ॥ तथा जिसका ‘ गंगा , गंगा ‘ ऐसा नाम सौ योजनकी दूरीसे भी उच्चारण किये जानेपर [ जीवके ] तीन जन्मोंके संचित पापोंको नष्ट कर देता है ॥ त्रिलोकीको पवित्र करनेमें समर्थ वह गंगा जिससे उत्पन्न हुई है , वही भगवान्‌का तीसरा परमपद है ॥

 

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