जीवन में अनुशासन, परोपकार और भावनाओं का महत्व-
1. अशुद्धता और अनुशासनहीनता
कुवैलिनं दंतमलावधारिणं बाशिनं नित्यकठोर भाषिणम् ।
सूर्योदये चास्तमये च शायिनं विमुञ्चति श्रीरपि चक्रपाणिकम ॥१॥
अर्थ – कुचलिनमिति-जो मनुष्य सदा मैला कुचला रहता हो और जो मंजन आदि से दातों को साफ न रखता हो और बहु भोजी वा कठोर भाषी हो और सूर्योदय व सांझ समय सोने वाला हो, उसके पास लक्ष्मी नहीं रहती चाहे साक्षात् विष्णु भगवान् भी क्यों न हों॥
2. पराया धन और संपत्ति
परान्नं परवस्त्रं च परशय्या परस्त्रियः ।
परवेश्मनि वासच शक्रस्यापि श्रियं हरेत् ॥२॥
अर्थ- परान्नमिति-दूसरे का अन्न, दूसरे का वस्त्र, दूसरे की शय्या दूसरे की स्त्री और दूसरे के घर में वास, यह सब लक्ष्मी वा ऐश्वर्य को नष्ट करने वाले होते हैं चाहे साक्षात् इन्द्र भी क्यों न हो ॥
3. संताप, चिंताएँ और विद्या
क्षुधासमं नास्ति शरीर पीडनं
चिन्तासमं नास्ति शरीर शोषणम् ।
विद्यासम’ नास्ति शरीरभूषण’,
क्षमासम’ नास्ति शरीररक्षणम ॥३॥
अर्थ- क्षुधासममिति भूख के समान अन्य कोई संताप देने वाली वस्तु नहीं है और चिता के समान शरीर को सुखाने वाली अन्य कोई वस्तु नहीं है और विद्या के समान शरीर का भूषण और क्षमा के तुल्य शरीर की रक्षा नहीं है।
4. विभिन्न अवस्थाओं में मनुष्य की स्थिति
क्षुधातुराणां न बलं न बुद्धिश्चितातुराणां न सुखं न निद्रा ।
कामातुराणां न भयं न लज्जा द्रव्या- तुराणां न गुरुर्न बन्धुः ॥४॥
अर्थ- क्षुधातुराणामिति-भूखे मनुष्य को बल और बुद्धि कहां और चिन्तातुर को सुख और निद्रा कहीं कामान्ध को भय और लज्जा और धनाभिलाषियों का गुरु और बन्धु कोई नहीं है ॥
5. क्रोध का महत्व
क्रोधो मूलमनर्थानां क्रोधः संसारवर्द्धनः ।
धर्मक्षय करः क्रोधस्तस्मात्क्रोधं विवर्जयेत ॥५॥
अर्थ- क्रोध इति सभी अनर्थ और उपद्रवों की जड़ क्रोध है क्रोध हो बार बार जन्म और मृत्युदाता है और क्रोध ही नाश करने वाला है इसलिए क्रोध का त्याग करे ॥
6. क्रोध और कालकूट विष
क्रोधस्य कालकूटस्य विद्यते महदंतरम् ।
स्वाश्रयं दहति क्रोधः कालकूटो नचाश्रयम् ॥६॥
अर्थ – क्रोधादिति-क्रोध और कालकूट विष में बड़ा फर्क है, क्रोध तो क्रोधी को नष्ट कर देता है परन्तु कालकूट विष अपने आश्रय को नष्ट नहीं करता अर्थात् शिवजी महाराज कालकूट को धारण किये हुये भी सदा अमर ही कहलाते हैं ॥
7. क्रोध, अभिमान, छल कपट और लोभ
क्रोधात्प्रीतिविनाशः स्यानमानाद्विनयसंहतिः ।
मायायाः प्रत्ययोच्छित्तिर्लोभात्सर्वगुणक्षया ॥७॥
अर्थ – क्रोधादिति-क्रोध से प्रीति, अभिमान से नम्रता, छल कपट से विश्वास और लोभ से सब गुण नष्ट हो जाते हैं ॥
8. अनुचित कार्य और मृत्यु द्वार
अनुचितकर्मारंभः स्वजन विरोधोबलीयसास्पर्द्धा ।
प्रमदाजनविश्वासो मृत्युद्वाराणि चत्वारि ॥८॥
अर्थ-अनुचितेति-अयोग्य कार्य का करना, अपने सम्बंधियो से विरोध, बलवान से ईर्षा और स्त्रियों पर विश्वास यह चारों मृत्यु द्वार है ।
9. मित्रता और शत्रुता
न कश्चित्कस्यचिन्मित्रं न कश्चित्कस्यचिद्रिपुः ।
दहिनां गुणदोषाः स्युमित्राणि रिपवस्तथा ॥९॥
अर्थ-नेति ना किसी का कोई मित्र और न शत्रु है। केबल प्राणियों के गुण दोष ही मित्र शत्रु हैं ।