85. सामवेदकी शाखा , अठारह पुराण और चौदह विद्याओंके विभागका वर्णन

सामवेद शाखाओं का विभाजन

जैमिनिका पुत्र सुमन्तु था और उसका पुत्र सुकर्मा हुआ । उन दोनों महामति पुत्र – पौत्रोंने सामवेदकी एक – एक शाखाका अध्ययन किया ॥ तदनन्तर सुमन्तुके पुत्र सुकर्माने अपनी सामवेदसंहिताके एक सहस्र शाखाभेद किये और  उन्हें उसके कौसल्य हिरण्यनाभ तथा पौष्पिंजि नामक दो महाव्रती शिष्योंने ग्रहण किया । हिरण्यनाभके पाँच सौ शिष्य थे जो उदीच्य सामग कहलाये ॥इसी प्रकार जिन अन्य द्विजोत्तमोंने इतनी ही संहिताएँ हिरण्यनाभसे और ग्रहण कीं उन्हें पण्डितजन प्राच्य सामग कहते हैं ॥ 

 पौष्पिंजिके शिष्य लोकाक्षि , नौधमि , कक्षीवान् और लांगलि थे । उनके शिष्य प्रशिष्योंने अपनी – अपनी संहिताओंके विभाग करके उन्हें बहुत बढ़ा दिया ॥ महामुनि कृति नामक हिरण्यनाभके एक और शिष्यने अपने शिष्योंको सामवेदकी चौबीस संहिताएँ पढ़ायीं ॥ फिर उन्होंने भी इस सामवेदका शाखाओंद्वारा खूब विस्तार किया ।

अथर्ववेद की शाखाएँ

 अथर्ववेदकी संहिताओंके समुच्चयका वर्णन  ॥ अथर्ववेदको सर्वप्रथम अमिततेजोमय सुमन्तु मुनिने अपने शिष्य कबन्धको पढ़ाया था , फिर कबन्धने उसके दो भाग कर उन्हें देवदर्श और पथ्य नामक अपने शिष्योंको दिया ॥  देवदर्शके शिष्य मेध , ब्रह्मबलि , शौल्कायनि और पिप्पलाद थे ॥ हे द्विज ! पथ्यके भी जाबालि , कुमुदादि और शौनक नामक तीन शिष्य थे , जिन्होंने संहिताओंका विभाग किया ॥ शौनकने भी अपनी संहिताके दो विभाग करके उनमेंसे एक बभ्रुको तथा दूसरी सैन्धव नामक अपने शिष्यको दी ॥ सैन्धवसे पढ़कर मुंजिकेशने अपनी संहिताके पहले दो और फिर तीन [ इस प्रकार पाँच ] विभाग किये । नक्षत्रकल्प , वेदकल्प , संहिताकल्प , आंगिरसकल्प और शान्तिकल्प उनके रचे हुए ये पाँच विकल्प अथर्ववेद – संहिताओंमें सर्वश्रेष्ठ हैं ॥

पुराणों का वर्णन

तदनन्तर पुराणार्थविशारद व्यासजीने आख्यान , उपाख्यान , गाथा और कल्पशुद्धिके सहित पुराणसंहिताकी रचना की ॥ रोमहर्षण सूत व्यासजीके प्रसिद्ध शिष्य थे । महामति व्यासजीने उन्हें पुराणसंहिताका अध्ययन कराया ॥ उन सूतजीके सुमति , अग्निवर्चा , मित्रायु , शांसपायन , अकृतव्रण और सावर्णि- ये छः शिष्य थे ॥ काश्यपगोत्रीय अकृतव्रण , सावर्णि और शांसपायन- ये तीनों संहिताकर्ता हैं । उन तीनों संहिताओंकी आधार एक रोमहर्षणजीकी संहिता है । इन चारों संहिताओंकी सारभूत मैंने यह विष्णुपुराणसंहिता बनायी है ॥ पुराणज्ञ पुरुष कुल अठारह पुराण बतलाते हैं ; उन सबमें प्राचीनतम ब्रह्मपुराण है ॥

महापुराणों का विवरण

प्रथम पुराण ब्राह्म है , दूसरा पाद्म , तीसरा वैष्णव , चौथा शैव , पाँचवाँ भागवत , छठा नारदीय और सातवाँ मार्कण्डेय है ॥ इसी प्रकार आठवाँ आग्नेय , नवाँ भविष्यत् , दसवाँ ब्रह्मवैवर्त्त और ग्यारहवाँ पुराण लैन कहा जाता है ॥ तथा बारहवाँ वाराह , तेरहवाँ स्कान्द , चौदहवाँ वामन , पन्द्रहवाँ कौर्म , तथा इनके पश्चात् मात्स्य , गारुड और ब्रह्माण्डपुराण हैं । ये ही अठारह महापुराण हैं ॥ इनके अतिरिक्त मुनिजनोंने और भी अनेक उपपुराण बतलाये हैं ।

इन सभीमें सृष्टि , प्रलय , देवता आदिकोंके वंश , मन्वन्तर और भिन्न – भिन्न राजवंशोंके चरित्रोंका वर्णन किया गया है ॥ जिस पुराणको मैं तुम्हें सुना रहा हूँ वह पाद्मपुराणके अनन्तर कहा हुआ वैष्णव नामक महापुराण है ॥ इसमें सर्ग , प्रतिसर्ग , वंश और मन्वन्तरादिका वर्णन करते हुए सर्वत्र केवल विष्णुभगवान्का ही वर्णन किया गया है ॥

अन्य विद्याएँ और ऋषियों के भेद

छ : वेदांग , चार वेद , मीमांसा , न्याय , पुराण धर्मशास्त्र – ये ही चौदह विद्याएँ हैं ॥ इन्हींमें आयुर्वेद , धनुर्वेद और गान्धर्व इन तीनोंको तथा चौथे अर्थशास्त्रको मिला लेनेसे कुल अठारह विद्याएँ हो जाती हैं । ऋषियोंके तीन भेद हैं – प्रथम ब्रह्मर्षि , द्वितीय देवर्षि और फिर राजर्षि ॥ इस प्रकार मैंने तुमसे वेदोंकी शाखा , शाखाओंके भेद , उनके रचयिता तथा शाखाभेदके कारणोंका भी वर्णन कर दिया ॥

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