श्राद्धकर्म में योग्य ब्राह्मण
श्राद्धकाल में जैसे गुणशील ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये वह बतलाता हूँ , सुनो । त्रिणाचिकेत १ , त्रिमधुर , त्रिसुपर्ण ३ , छहों वेदांगों के जानने वाले , वेदवेत्ता , श्रोत्रिय , योगी और ज्येष्ठसामग तथा ऋत्विक , भानजे , दौहित्र , जामाता , श्वशुर , मामा , तपस्वी , पंचाग्नि तपनेवाले , शिष्य , सम्बन्धी और माता – पिता के प्रेमी इन ब्राह्मणों को श्राद्धकर्म में नियुक्त करे । इनमेंसे [ त्रिणाचिकेत आदि ] पहले कहे हुओंको पूर्वकालमें नियुक्त करे और [ ऋत्विक् आदि ] पीछे बतलाये हुओंको पितरोंकी तृप्तिके लिये उत्तरकर्ममें भोजन करावे ॥
मित्रघाती , स्वभावसे ही विकृत नखोंवाला , नपुंसक , काले दाँतोंवाला , कन्यागामी , अग्नि और वेदका त्याग करनेवाला , सोमरस बेचनेवाला , लोकनिन्दित , चोर , चुगलखोर , ग्रामपुरोहित , वेतन लेकर पढ़ानेवाला अथवा पढ़नेवाला , पुनर्विवाहिता का पति , माता – पिताका त्याग करनेवाला , शूद्रकी सन्तानका पालन करनेवाला , शूद्राका पति तथा देवोपजीवी ब्राह्मण श्राद्ध में निमन्त्रण देनेयोग्य नहीं है ॥
श्राद्ध के लिए ब्राह्मणों का निमंत्रण और सत्कार
श्राद्ध के पहले दिन बुद्धिमान् पुरुष श्रोत्रिय आदि विहित ब्राह्मणोंको निमन्त्रित करे और उनसे यह कह दे कि ‘ आपको पितृ – श्राद्ध में और आपको विश्वेदेव – श्राद्ध में नियुक्त होना है ‘ ॥ उन निमन्त्रित ब्राह्मणोंके सहित श्राद्ध करनेवाला पुरुष उस दिन क्रोधादि तथा स्त्रीगमन और परिश्रम आदि न करे , क्योंकि श्राद्ध करनेमें यह महान् दोष माना गया है ॥ श्राद्धमें निमन्त्रित होकर या भोजन करके अथवा निमन्त्रण करके या भोजन कराकर जो पुरुष स्त्री – प्रसंग करता है वह अपने पितृगणको मानो वीर्यके कुण्डमें डुबोता है ॥ अतः श्राद्धके प्रथम दिन पहले तो उपरोक्त गुणविशिष्ट द्विज श्रेष्ठोंको निमन्त्रित करे और यदि उस दिन कोई अनिमन्त्रित तपस्वी ब्राह्मण घर आ जायँ तो उन्हें भी भोजन करावे ॥
घर आये हुए ब्राह्मणों का पहले पाद – शुद्धि आदि से सत्कार करे ; फिर हाथ धोकर उन्हें आचमन करानेके अनन्तर आसनपर बिठावे । अपनी सामर्थ्यानुसार पितृगणक लिये अयुग्म और देवगणके लिये युग्म ब्राह्मण नियुक्त करे अथवा दोनों पक्षोंके लिये एक – एक ब्राह्मणकी ही नियुक्ति करे ॥ और इसी प्रकार वैश्वदेव के सहित मातामह – श्राद्ध करे अथवा पितृपक्ष और मातामह , पक्ष दोनोंके लिये भक्तिपूर्वक एक ही वैश्वदेव – श्राद्ध करे ॥ देव – पक्षके ब्राह्मणोंको पूर्वाभिमुख बिठाकर और पितृ – पक्ष तथा मातामह – पक्ष के ब्राह्मणों को उत्तर मुख बिठाकर भोजन करावे ॥
श्राद्ध के विशेष नियम
हे नृप ! कोई तो पितृ – पक्ष और मातामह – पक्ष के श्राद्धों को अलग – अलग करनेके लिये कहते हैं और कोई महर्षि दोनों का एक साथ एक पाकमें ही अनुष्ठान करनेके पक्षमें हैं ॥ विज्ञ व्यक्ति प्रथम निमन्त्रित ब्राह्मणों के बैठने के लिये कुशा बिछाकर फिर अर्घ्यदान आदि से विधिपूर्वक पूजा कर उनकी अनुमतिसे देवताओंका आवाहन करे ॥ तदनन्तर श्राद्धविधि को जाननेवाला पुरुष यव – मिश्रित जल से देवताओंको अर्घ्यदान करे और उन्हें विधिपूर्वक धूप , दीप , गन्ध तथा माला आदि निवेदन करे ॥
ये समस्त उपचार पितृगणके लिये अपसव्य भाव से निवेदन करे ; और फिर ब्राह्मणों की अनुमति से दो भागों में बँटे हुए कुशाओं का दान करके मन्त्रोच्चारणपूर्वक पितृगणका आवाहन करे , तथा हे राजन् ! अपसव्य – भावसे तिलोदकसे अर्ध्यादि दे ॥ हे नृप ! उस समय यदि कोई भूखा पथिक अतिथि रूपसे आ जाय तो निमन्त्रित ब्राह्मणोंकी आज्ञासे उसे भी यथेच्छ भोजन करावे ॥
श्राद्ध की विधि
अनेक अज्ञात – स्वरूप योगिगण मनुष्यों के कल्याण की कामना से नाना रूप धारण कर पृथिवीतल पर विचरते रहते हैं ॥ अतः विज्ञ पुरुष श्राद्धकाल में आये हुए अतिथि का अवश्य सत्कार करे । हे नरेन्द्र ! उस समय अतिथि का सत्कार न करने से वह श्राद्ध क्रियाके सम्पूर्ण फल को नष्ट कर देता है ॥ हे पुरुषश्रेष्ठ ! तदनन्तर उन ब्राह्मणों की आज्ञा से शाक और लवणहीन अन्न से अग्नि में तीन बार आहुति दे ॥
हे राजन् ! उनमें से ‘ अग्नये कव्यवाहनाय स्वाहा ‘ इस मन्त्रसे पहली आहुति , ‘ सोमाय पितृमते स्वाह्य ‘ इससे दूसरी और ‘ वैवस्वता स्वाहा ‘ इस मन्त्रसे तीसरी आहुति दे । तदनन्तर आहुतियों से बचे हुए अन्न को थोड़ा – थोड़ा सब ब्राह्मणों के पात्रों में परोस दे ॥ फिर रुचिके अनुकूल अति संस्कारयुक्त मधुर अन्न सबको परोसे और अति मृदुल वाणीसे कहे कि ‘ आप भोजन कीजिये ‘॥
श्राद्ध से तृप्ति
ब्राह्मणों को भी तद्गतचित्त और मौन होकर प्रसन्नमुख से सुखपूर्वक भोजन करना चाहिये तथा यजमान को क्रोध और उतावलेपनको छोड़कर भक्तिपूर्वक परोसते रहना चाहिये ॥ फिर ‘ रक्षोघ्न ‘ मन्त्रका पाठ कर श्राद्धभूमि पर तिल छिड़के तथा अपने पितृरूपसे उन द्विजश्रेष्ठों का ही चिन्तन करे ॥ [ और कहे कि ] ‘ इन ब्राह्मणों के शरीरों में स्थित मेरे पिता , पितामह और प्रपितामह आदि आज तृप्ति लाभ करें ॥ होमद्वारा सबल होकर मेरे पिता , पितामह और प्रपितामह आज तृप्ति लाभ करें ॥
मैंने जो पृथिवी पर पिण्डदान किया है उससे मेरे पिता , पितामह और प्रपितामह तृप्ति लाभ करें ॥ [ श्राद्धरूप से कुछ भी निवेदन न कर सकनेके कारण ] मैंने भक्तिपूर्वक जो कुछ कहा है उस मेरे भक्तिभाव से ही मेरे पिता , पितामह और प्रपितामह तृप्ति लाभ करें ॥ मेरे मातामह ( नाना ) , उनके पिता और उनके भी पिता तथा विश्वेदेवगण परम तृप्ति लाभ करें तथा समस्त राक्षसगण नष्ट हों ॥
यहाँ समस्त हव्य कव्य के भोक्ता यज्ञेश्वर भगवान् हरि विराजमान हैं , अतः उनकी सन्निधिके कारण समस्त राक्षस और असुरगण यहाँसे तुरन्त भाग जायँ ‘ ॥ तदनन्तर ब्राह्मणों के तृप्त हो जानेपर थोड़ा – सा अन्न पृथिवीपर डाले और आचमनके लिये उन्हें एक – एक बार और जल दे ॥ फिर भलीप्रकार तृप्त हुए उन ब्राह्मणोंकी आज्ञा होनेपर समाहितचित्तसे पृथिवीपर अन्न और तिलके पिण्ड – दान करे ॥
पितृतीर्थसे तिलयुक्त जलांजलि दे तथा मातामह आदिको भी उस पितृतीर्थ से ही पिण्ड – दान करे ॥ ब्राह्मणों के उच्छिष्ट ( जूठन ) – के निकट दक्षिणकी ओर अग्रभाग करके बिछाये हुए कुशाओंपर पहले अपने पिताके लिये पुष्प – धूपादि से पूजित पिण्डदान करे ॥ तत्पश्चात् एक पिण्ड पितामहके लिये और एक प्रपितामह के लिये दे और फिर कुशाओं के मूलमें हाथ में लगे अन्न को पोंछकर [ ‘ लेपभागभुजस्तृप्यन्ताम् ‘ ऐसा उच्चारण करते हुए ] लेपभोजी पितृगणको तृप्त करे ॥ इसी प्रकार गन्ध और मालादियुक्त पिण्डों से मातामह आदि का पूजन कर फिर द्विजश्रेष्ठों को आचमन करावे ॥
और हे नरेश्वर ! इसके पीछे भक्तिभाव से तन्मय होकर पहले पितृपक्षीय ब्राह्मणों का ‘ सुस्वधा ‘ यह आशीर्वाद ग्रहण करता हुआ यथाशक्ति दक्षिणा दे ॥ फिर वैश्वदेविक ब्राह्मणों के निकट जा उन्हें दक्षिणा देकर कहे कि ‘ इस दक्षिणा से विश्वेदेवगण प्रसन्न हों ‘ ॥ उन ब्राह्मणों के ‘ तथास्तु ‘ कहनेपर उनसे आशीर्वाद के लिये प्रार्थना करे और फिर पहले पितृपक्ष के और पीछे देवपक्षके ब्राह्मणोंको विदा करे ॥ विश्वेदेवगण के सहित मातामह आदि के श्राद्ध में भी ब्राह्मण – भोजन , दान और विसर्जन आदिकी यही विधि बतलायी गयी है ॥
पितृ और मातामह दोनों ही पक्षों के श्राद्धों में पादशौच आदि सभी कर्म पहले देवपक्ष के ब्राह्मणों के करे ; परन्तु विदा पहले पितृपक्षीय अथवा मातामहपक्षीय ब्राह्मणों की ही करे ॥ तदनन्तर प्रीतिवचन और सम्मानपूर्वक ब्राह्मणों को विदा करे और उनके जानेके समय द्वारतक उनके पीछे पीछे जाय तथा जब वे आज्ञा दें तो लौट आवे ॥ फिर विज्ञ पुरुष वैश्वदेव नामक नित्यकर्म करे और अपने पूज्य पुरुष , बन्धुजन तथा भृत्यगणके सहित स्वयं भोजन करे ॥ बुद्धिमान् पुरुष इस प्रकार पैत्र्य और मातामह श्राद्ध का अनुष्ठान करे । श्राद्ध से तृप्त होकर पितृगण समस्त कामनाओंको पूर्ण कर देते हैं ॥
श्राद्ध का महत्त्व
दौहित्र ( लड़कीका लड़का ) , कुतप ( दिनका आठवाँ मुहूर्त ) और तिल – ये तीन तथा चाँदीका दान और उसकी बातचीत करना- ये सब श्राद्धकाल में पवित्र माने गये हैं ॥ हे राजेन्द्र ! श्राद्धकर्ता के लिये क्रोध , मार्गगमन और उतावलापन – ये तीन बातें वर्जित हैं ; तथा श्राद्ध में भोजन करनेवालोंको भी इन तीनों का करना उचित नहीं है ॥
हे राजन् ! श्राद्ध करने वाले पुरुष से विश्वेदेवगण , पितृगण , मातामह तथा कुटुम्बीजन- सभी सन्तुष्ट रहते हैं ॥ हे भूपाल ! पितृगण का आधार चन्द्रमा है और चन्द्रमा का आधार योग है , इसलिये श्राद्ध में योगिजन को नियुक्त करना अति उत्तम है ॥ हे राजन् ! यदि श्राद्ध भोजी एक सहस्र ब्राह्मणों के सम्मुख एक योगी भी हो तो वह यजमानके सहित उन सबका उद्धार कर देता है ॥