69. मान्धाता की सन्तति , त्रिशंकु का स्वर्गारोहण तथा सगर की उत्पत्ति और विजय

मान्धाता के वंश का वर्णन

अम्बरीष का वंश

अब हम मान्धाताके पुत्रोंकी सन्तानका वर्णन करते हैं ॥ मान्धाताके पुत्र अम्बरीषके युवनाश्व पुत्र हुआ ॥ उससे हारीत हुआ जिससे अंगिरा – गोत्रीय हारीतगण हुए ॥ पूर्वकालमें रसातलमें मौनेय नामक छः करोड़ गन्धर्व रहते थे । उन्होंने समस्त नागकुलोंके प्रधान – प्रधान रत्न और अधिकार छीन लिये थे ॥

गन्धर्व और नागों का संघर्ष

गन्धर्वोंके पराक्रमसे अपमानित उन नागेश्वरोंद्वारा स्तुति किये जाने पर उसके श्रवण करनेसे जिनकी विकसित कमलसदृश आँखें खुल गयी हैं निद्राके अन्तमें जगे हुए उन जलशायी भगवान् सर्वदेवेश्वरको प्रणाम कर उनसे नागगणने कहा – “ भगवन् ! इन गन्धर्वों से उत्पन्न हुआ हमारा भय किस प्रकार शान्त होगा ? ” ॥ आदि – अन्तरहित भगवान् पुरुषोत्तमने कहा – ‘ युवनाश्वके पुत्र मान्धाताका जो यह पुरुकुत्स नामक पुत्र है उसमें प्रविष्ट होकर मैं उन सम्पूर्ण दुष्ट गन्धर्वोंका नाश कर दूँगा ‘ ॥ तब यह सुनकर भगवान् जलशायी को प्रणाम नागाधि पतिगण नागलोक में लौट आये और पुरुकुत्सको लानेके लिये [ अपनी बहिन एवं पुरुकुत्सकी भार्या ] नर्मदाको प्रेरित किया ॥

पुरुकुत्स का वीरता

तदनन्तर नर्मदा पुरुकुत्सको रसातल में ले आयी ॥ रसातलमें पहुँचनेपर पुरुकुत्स ने भगवान्के तेजसे अपने शरीरका बल बढ़ जानेसे सम्पूर्ण गन्धवको मार डाला और फिर अपने नगरमें लौट आया ॥ उस समय समस्त नागराजोंने नर्मदाको यह वर दिया कि जो कोई तेरा स्मरण करते हुए तेरा नाम लेगा उसको सर्प – विषसे कोई भय न होगा ॥ इस विषयमें यह श्लोक भी है- ॥ ‘ नर्मदाको प्रातः काल नमस्कार है और रात्रिकालमें भी नर्मदा को नमस्कार है । हे नर्मदे ! तुमको बारम्बार नमस्कार है , तुम मेरी विष और सर्पसे रक्षा करो ॥

त्रिशंकु का चाण्डाल होना और उद्धार

इसका उच्चारण करते हुए दिन अथवा रात्रि में किसी समय भी अन्धकारमें जानेसे सर्प नहीं काटता तथा इसका स्मरण करके भोजन करनेवालेका खाया हुआ विष भी घातक नहीं होता ॥ पुरुकुत्सको नागपतियोंने यह वर दिया कि तुम्हारी सन्तानका कभी अन्त न होगा । पुरुकुत्सने नर्मदासे त्रसद्दस्यु नामक पुत्र उत्पन्न किया ॥ त्रसद्दस्युसे अनरण्य हुआ , जिसे दिग्विजयके समय रावणने मारा था ॥

अनरण्यके पृषदश्व , पृषदश्वके हर्यश्व , हर्यश्वके हस्त , हस्तके सुमना , सुमनाके त्रिधन्वा , त्रिधन्वाके त्रय्यारुणि और त्रय्यारुणिके सत्यव्रत नामक पुत्र हुआ , जो पीछे त्रिशंकु कहलाया ॥ वह त्रिशंकु चाण्डाल हो गया था ॥ एक बार बारह वर्षतक अनावृष्टि रही । उस समय विश्वामित्र मुनिके स्त्री और बाल – बच्चोंके पोषणार्थ तथा अपनी चाण्डालताको छुड़ानेके लिये वह गंगाजीके तटपर एक वटके वृक्षपर प्रतिदिन मृगका मांस बाँध आता था ॥ इससे प्रसन्न होकर विश्वामित्रजीने उसे सदेह स्वर्ग भेज दिया ॥

त्रिशंकु का वंश

त्रिशंकु से हरिश्चन्द्र , हरिश्चन्द्र से रोहिताश्व , रोहिताश्व से हरित , हरित से चंचु , चंचु से विजय और वसुदेव , विजय से रुरुक और रुरुक से वृक का जन्म हुआ ॥

वृक का पुत्र बाहु

वृक के बाहु नामक पुत्र हुआ जो हैहय और तालजंघ आदि क्षत्रियोंसे पराजित होकर अपनी गर्भवती पटरानीके सहित वनमें चला गया था ॥ पटरानी की सौतने उसका गर्भ रोकने की इच्छा से उसे विष खिला दिया ॥ उसके प्रभाव से उसका गर्भ सात वर्षतक गर्भाशय ही में रहा ॥ अन्तमें , बाहु वृद्धावस्था के कारण और्व मुनि के आश्रम के समीप मर गया ॥ तब उसकी पटरानीने चिता बनाकर उसपर पति का शव स्थापित कर उसके साथ सती होने का निश्चय किया ॥ उसी समय भूत , भविष्यत् और वर्तमान तीनों कालके जाननेवाले भगवान् और्वने अपने आश्रम से निकलकर उससे कहा- ॥’ अयि साध्वि ! इस व्यर्थ दुराग्रहको छोड़ ।

तेरे उदर में सम्पूर्ण भूमण्डलका स्वामी , अत्यन्त बल – पराक्रमशील , अनेक यज्ञों का अनुष्ठान करनेवाला और शत्रुओंका नाश करनेवाला चक्रवर्ती राजा है ॥ तू ऐसे दुस्साहसका उद्योग न कर । ‘ ऐसा कहे जाने पर वह अनुमरण ( सती होने ) -के आग्रह से विरत हो गयी ॥ और भगवान् और्व उसे अपने आश्रम पर ले आये ॥ वहाँ कुछ ही दिनों में , उसके उस गर ( विष ) -के साथ ही एक अति तेजस्वी बालकने जन्म लिया ॥ भगवान् और्वने उसके जातकर्म आदि संस्कार कर उसका नाम ‘ सगर ‘ रखा तथा उसका उपनयनसंस्कार होनेपर और्वने ही उसे वेद , शास्त्र एवं भार्गव नामक आग्नेय शस्त्रोंकी शिक्षा दी ॥

सगर का वीरता और प्रतिज्ञा

बुद्धिका विकास होनेपर उस बालकने अपनी माता से कहा- ॥ ” माँ ! यह तो बता , इस तपोवनमें हम क्यों रहते हैं और हमारे पिता कहाँ हैं ? ” इसी प्रकारके और भी प्रश्न पूछनेपर माताने उससे सम्पूर्ण वृत्तान्त कह दिया ॥ तब तो पिताके राज्यापहरणको सहन न कर सकनेके कारण उसने हैहय और तालजंघ आदि क्षत्रियोंको मार डालनेकी प्रतिज्ञा की और प्राय : सभी हैहय एवं तालजंघवंशीय राजाओंको नष्ट कर दिया ॥ उनके पश्चात् शक , यवन , काम्बोज , पारद और पह्नवगण भी हताहत होकर सगर के कुलगुरु वसिष्ठजीकी शरणमें गये ॥

सगर का शासन

वसिष्ठजीने उन्हें जीवन्मृत ( जीते हुए ही मरेके समान ) करके सगर से कहा ” बेटा ! इन जीते – जी मरे हुओंका पीछा करनेसे क्या लाभ है ? ॥ देख , तेरी प्रतिज्ञाको पूर्ण करनेके लिये मैंने ही इन्हें स्वधर्म और द्विजातियोंके संसर्गसे वंचित कर दिया है ” ॥ राजाने ‘ जो आज्ञा ‘ कहकर गुरुजीके कथनका अनुमोदन किया और उनके वेष बदलवा दिये ॥

उसने यवनों के सिर मुड़वा दिये , शकोंको अर्द्धमुण्डित कर दिया , पारदोंके लम्बे – लम्बे केश रखवा दिये , पहवोंके मूँछ – दाढ़ी रखवा दीं तथा इनको और इनके समान अन्यान्य क्षत्रियोंको भी स्वाध्याय और वषट्कारादिसे बहिष्कृत कर दिया ॥ अपने धर्मको छोड़ देनेके कारण ब्राह्मणोंने भी इनका परित्याग कर दिया ; अतः ये म्लेच्छ हो गये ॥ तदनन्तर महाराज सगर अपनी राजधानीमें आकर अप्रतिहत सैन्यसे इस सम्पूर्ण सप्तद्वीपवती पृथिवीका शासन करने लगे ॥

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