सत्वत वंश की कथा
सत्वत के भजन , भजमान , दिव्य , अन्धक , देवावृध महाभोज और वृष्णि नामक पुत्र हुए ॥
भजमान के वंश
भजमान के निमि , कृकण और वृष्णि तथा इनके तीन सौतेले भाई शतजित् , सहस्रजित् और अयुतजित् – ये छः पुत्र हुए ॥
देवावृध और बभ्रु
देवावृधके बभ्रु नामक पुत्र हुआ ॥ इन दोनों ( पिता – पुत्रों ) के विषयमें यह श्लोक प्रसिद्ध है— ‘ जैसा हमने दूरसे सुना था वैसा ही पास जाकर भी देखा ; वास्तव में बभ्रु मनुष्यों में श्रेष्ठ है और देवावृध तो देवताओं के समान है ॥ बभ्रु और देवावृध [ -के उपदेश किये हुए मार्गका अवलम्बन करने ] -से क्रमशः छः हजार चौहत्तर ( ६०७४ ) मनुष्योंने अमरपद प्राप्त किया था ॥
महाभोज और वृष्णि के वंश
महाभोज बड़ा धर्मात्मा था , उसकी सन्तानमें भोजवंशी तथा मृत्तिकावरपुर निवासी मार्तिकावर नृपतिगण हुए ॥ वृष्णिके दो पुत्र सुमित्र और युधाजित् हुए , उनमेंसे सुमित्रके अनमित्र , अनमित्रके निघ्न तथा निघ्नसे प्रसेन और सत्राजित्का जन्म हुआ ।
सत्राजित और स्यमन्तक मणि
उस सत्राजित के मित्र भगवान् आदित्य हुए ॥ एक दिन समुद्र तटपर बैठे हुए सत्राजित्ने सूर्यभगवान्की स्तुति की । उसके तन्मय होकर स्तुति करने से भगवान् भास्कर उसके सम्मुख प्रकट हुए । उस समय उनको अस्पष्ट मूर्ति धारण किये हुए देखकर सत्राजित्ने सूर्यसे कहा- ॥
” आकाशमें अग्निपिण्डके समान आपको जैसा मैंने देखा है वैसा ही सम्मुख आनेपर भी देख रहा हूँ । यहाँ आपकी प्रसादस्वरूप कुछ विशेषता मुझे नहीं दीखती । ” सत्राजित के ऐसा कहने पर भगवान् सूर्य ने अपने गले से स्यमन्तक नामकी उत्तम महामणि उतारकर अलग रख दी ॥ तब सत्राजित्ने भगवान् सूर्य को देखा – उनका शरीर किंचित् ताम्रवर्ण , अति उज्ज्वल और लघु था तथा उनके नेत्र कुछ पिंगलवर्ण थे ॥ तदनन्तर सत्राजित्के प्रणाम तथा स्तुति आदि कर चुकने पर सहस्रांशु भगवान् आदित्य ने उससे कहा- ” तुम अपना अभीष्ट वर माँगो ” ॥
सत्राजित्ने उस स्यमन्तकमणिको ही माँगा ॥ तब भगवान् सूर्य उसे वह मणि देकर अन्तरिक्षमें अपने स्थानको चले गये ॥फिर सत्राजित्ने उस निर्मल मणिरत्न से अपना कण्ठ सुशोभित होने के कारण तेज से सूर्य के समान समस्त दिशाओंको प्रकाशित करते हुए द्वारका में प्रवेश किया ॥ द्वारकावासी लोगोंने उसे आते देख , पृथिवी का भार उतारनेके लिये अंश रूप से अवतीर्ण हुए मनुष्यरूपधारी आदिपुरुष भगवान् पुरुषोत्तम से प्रणाम करके कहा- ॥ “
भगवन् ! आपके दर्शनोंके लिये निश्चय ही ये भगवान् सूर्यदेव आ रहे हैं ” उनके ऐसा कहनेपर भगवान्ने उनसे कहा- ॥ “ ये भगवान् सूर्य नहीं हैं , सत्राजित् है । यह सूर्यभगवान्से प्राप्त हुई स्यमन्तक नामकी महामणिको धारणकर यहाँ आ रहा है ॥ तुमलोग अब विश्वस्त होकर इसे देखो । ” भगवान्के ऐसा कहने पर द्वारकावासी उसे उसी प्रकार देखने लगे ॥ सत्राजित्ने वह स्यमन्तकमणि अपने घर में रख दी ॥
प्रसेन की मृत्यु और मणि की प्राप्ति
वह मणि प्रतिदिन आठ भार सोना देती थी ॥ उसके प्रभावसे सम्पूर्ण राष्ट्रमें रोग , अनावृष्टि तथा सर्प , अग्नि , चोर या दुर्भिक्ष आदिका भय नहीं रहता था ॥ भगवान् अच्युतको भी ऐसी इच्छा हुई कि यह दिव्य रत्न तो राजा उग्रसेन के योग्य है ॥ किन्तु जातीय विद्रोहके भयसे समर्थ होते हुए भी उन्होंने उसे छीना नहीं ॥ सत्राजित्को जब यह मालूम हुआ कि भगवान् मुझसे यह रत्न माँगने वाले हैं तो उसने लोभवश उसे अपने भाई प्रसेन को दे दिया ॥
किन्तु इस बातको न जानते हुए कि पवित्रतापूर्वक धारण करनेसे तो यह मणि सुवर्ण दान आदि अनेक गुण प्रकट करती है और अशुद्धावस्था में धारण करनेसे घातक हो जाती है , प्रसेन उसे अपने गलेमें बाँधे हुए घोड़ेपर चढ़कर मृगयाके लिये वनको चला गया ॥ वहाँ उसे एक सिंहने मार डाला ॥ जब वह सिंह घोड़े के सहित उसे मारकर उस निर्मल मणि को अपने मुँहमें लेकर चलनेको तैयार हुआ तो उसी समय ऋक्षराज जाम्बवान्ने उसे देखकर मार डाला ॥ तदनन्तर उस निर्मल मणिरत्न को लेकर जाम्बवान् अपनी गुफा में आया ॥ और उसे सुकुमार नामक अपने बालक के लिये खिलौना बना लिया ॥
प्रसेनके न लौटने पर सब यादवों में आपस में यह कानाफँसी होने लगी कि ” कृष्ण इस मणिरत्नको लेना चाहते थे , अवश्य ही इन्हींने उसे ले लिया है निश्चय यह इन्हींका काम है ” ॥ इस लोकापवादका पता लगनेपर सम्पूर्ण यादवसेनाके सहित भगवान्ने प्रसेनके घोड़ेके चरण – चिह्नोंका अनुसरण किया और आगे जाकर देखा कि प्रसेनको घोड़ेसहित सिंहने मार डाला है ॥
फिर सब लोगोंके बीच सिंहके चरण – चिह्न देख लिये जानेसे अपनी सफाई हो जानेपर भी भगवान्ने उन चिह्नोंका अनुसरण किया और थोड़ी ही दूरीपर ऋक्षराज द्वारा मारे हुए सिंहको देखा ; किन्तु उस रत्नके महत्त्वके कारण उन्होंने जाम्बवान्के पद चिह्नोंका भी अनुसरण किया ॥ और सम्पूर्ण यादव – सेना को पर्वत के तटपर छोड़कर ऋक्षराजके चरणों का अनुसरण करते हुए स्वयं उनकी गुफामें घुस गये ॥ भीतर जानेपर भगवान्ने सुकुमार को बहलाती हुई धात्रीकी यह वाणी सुनी- ॥
सिंह ने प्रसेन को मारा और सिंहको जाम्बवान्ने ; तू रो मत यह स्यमन्तकमणि तेरी ही है सुकुमार है ॥ यह सुननेसे स्यमन्तक का पता लगनेपर भगवान्ने भीतर जाकर देखा कि सुकुमारके लिये खिलौना बनी हुई स्यमन्तकमणि धात्रीके हाथपर अपने तेजसे देदीप्यमान हो रही है ॥ स्यमन्तकमणि की ओर अभिलाषापूर्ण दृष्टिसे देखते हुए एक विलक्षण पुरुष को वहाँ आया देख धात्री ‘ त्राहि – त्राहि ‘ करके चिल्लाने लगी ॥ उसकी आर्त – वाणीको सुनकर जाम्बवान् क्रोधपूर्ण हृदयसे वहाँ आया ॥
फिर परस्पर रोष बढ़ जाने से उन दोनों का इक्कीस दिनतक घोर युद्ध हुआ ॥ पर्वतके पास भगवान्की प्रतीक्षा करनेवाले यादव सैनिक सात – आठ दिनतक उनके गुफा से बाहर आनेकी बाट देखते रहे ॥ किन्तु जब इतने दिनोंतक वे उसमें से न निकले तो उन्होंने समझा कि ‘ अवश्य ही श्रीमधुसूदन इस गुफामें मारे गये , नहीं तो जीवित रहनेपर शत्रुके जीतनेमें उन्हें इतने दिन क्यों लगते ? ‘ ऐसा निश्चय कर वे द्वारकामें चले आये और वहाँ कह दिया कि श्रीकृष्ण मारे गये ॥ उनके बन्धुओंने यह सुनकर समयोचित सम्पूर्ण और्ध्वदैहिक कर्म कर दिये ॥ इधर , अति श्रद्धापूर्वक दिये हुए विशिष्ट पात्रसहित इनके अन्न और जलसे युद्ध करते समय श्रीकृष्णचन्द्रके बल और प्राणकी पुष्टि हो गयी ॥
तथा अति महान् पुरुषके द्वारा मर्दित होते हुए उनके अत्यन्त निष्ठुर प्रहारों के आघात से पीडित शरीरवाले जाम्बवान्का बल निराहार रहनेसे क्षीण हो गया ॥ अन्तमें भगवान्से पराजित होकर जाम्बवान्ने उन्हें प्रणाम करके कहा- ॥ ” भगवन् ! आपको तो देवता , असुर , गन्धर्व , यक्ष , राक्षस आदि कोई भी नहीं जीत सकते , फिर पृथिवीतलपर रहनेवाले अल्पवीर्य मनुष्य अथवा मनुष्योंके अवयवभूत हम जैसे तिर्यक् योनिगत जीवोंकी तो बात ही क्या है ? अवश्य ही आप हमारे प्रभु श्रीरामचन्द्रजी के समान सकल लोक प्रतिपालक भगवान् नारायणके ही अंशसे प्रकट हुए हैं । ” जाम्बवान्के ऐसा कहनेपर भगवान्ने पृथिवीका भार उतारनेके लिये अपने अवतार लेनेका सम्पूर्ण वृत्तान्त उससे कह दिया और उसे प्रीतिपूर्वक अपने हाथसे छूकर युद्धके ॥ श्रमसे रहित कर दिया ॥
तदनन्तर जाम्बवान्ने पुनः प्रणाम करके उन्हें प्रसन्न किया और घरपर आये हुए भगवान्के लिये अर्घ्यस्वरूप अपनी जाम्बवती नामकी कन्या दे दी तथा उन्हें प्रणाम । करके मणिरत्न स्यमन्तक भी दे दिया । भगवान् अच्युतने भी उस अति विनीतसे लेनेयोग्य न होनेपर भी अपने कलंक – शोधनके लिये वह मणिरत्न ले लिया और जाम्बवतीके सहित द्वारकामें आये ॥ उस समय भगवान् कृष्णचन्द्रके आगमनसे जिनके हर्षका वेग अत्यन्त बढ़ गया है उन द्वारकावासियोंमेंसे बहुत ढली हुई अवस्थावालोंमें भी उनके दर्शनके प्रभावसे तत्काल ही मानो नवयौवनका संचार हो गया ॥
तथा सम्पूर्ण यादवगण और उनकी स्त्रियाँ ‘ अहोभाग्य ! अहोभाग्य !! ‘ ऐसा कहकर उनका अभिवादन करने लगीं ॥ भगवान्ने भी जो – जो बात जैसे जैसे हुई थी वह ज्यों – की – त्यों यादव – समाजमें सुना और सत्राजित्को स्यमन्तकमणि देकर मिथ्या कलंकसे छुटकारा पा लिया । फिर जाम्बवतीको अपने अन्तःपुरमें पहुँचा दिया ॥
सत्राजित्ने भी यह सोचकर कि मैंने ही कृष्णचन्द्रको र्थं मिथ्या कलंक लगाया था , डरते – डरते उन्हें पत्नीरूपसे अपनी कन्या सत्यभामा विवाह दी ॥ उस कन्याको अक्रूर , कृतवर्मा और शतधन्वा आदि यादवोंने पहले वरण किया था ॥ अतः श्रीकृष्णचन्द्र के साथ उसे विवाह देनेसे उन्होंने अपना अपमान समझकर सत्राजित्से वैर बाँध लिया ॥ तदनन्तर अक्रूर और कृतवर्मा आदिने शतधन्वासे कहा — ॥
“ यह सत्राजित् बड़ा ही दुष्ट है , देखो , इसने हमारे और आपके माँगनेपर भी हमलोगोंको कुछ भी न समझकर अपनी कन्या कृष्णचन्द्रको दे दी ॥ अतः अब इसके जीवनका प्रयोजन ही क्या है ; इसको मारकर आप स्यमन्तक महामणि क्यों नहीं ले लेते हैं ? पीछे , यदि अच्युत आपसे किसी प्रकारका विरोध करेंगे तो हमलोग भी आपका साथ देंगे । ” उनके ऐसा कहनेपर शतधन्वाने कहा- ” बहुत अच्छा , ऐसा ही करेंगे ” ॥ इसी समय पाण्डवोंके लाक्षागृहमें जलनेपर , यथार्थ बातको जानते हुए भी भगवान् कृष्णचन्द्र दुर्योधनके प्रयत्नको शिथिल करनेके उद्देश्यसे कुलोचित कर्म करनेके लिये वारणावत नगरको गये ॥
उनके चले जानेपर शतधन्वाने सोते हुए सत्राजित्को मारकर वह मणिरत्न ले लिया ॥ पिताके वधसे क्रोधित हुई सत्यभामा तुरन्त ही रथपर चढ़कर वारणावत नगरमें पहुँची और भगवान् कृष्णसे बोली- ” भगवन् । पिताजीने मुझे आपके करकमलोंमें सौंप दिया- इस बातको सहन न कर सकनेके कारण शतधन्वाने मेरे पिताजीको मार दिया है और उस स्यमन्तक नामक मणिरत्नको ले लिया है जिसके प्रकाशसे सम्पूर्ण त्रिलोकी भी अन्धकारशून्य हो जायगी ॥
इसमें आपहीकी हँसी है इसलिये सब बातोंका विचार करके जैसा उचित समझें , करें ” ॥ सत्यभामाके ऐसा कहनेपर भगवान् श्रीकृष्णने मन ही – मन प्रसन्न होनेपर भी उनसे क्रोधसे आँखें लाल करके कहा- ॥ “ सत्ये ! अवश्य इसमें मेरी ही हँसी है , उस दुरात्माके इस कुकर्मको मैं सहन नहीं कर सकता , क्योंकि यदि ऊँचे वृक्षका उल्लंघन न किया जा सके तो उसपर घोंसला बनाकर रहनेवाले पक्षियोंको नहीं मार दिया जाता । [ अर्थात् बड़े आदमियोंसे पार न पानेपर उनके आश्रितों को नहीं दबाना चाहिये । ]
इसलिये अब तुम्हें हमारे सामने इन शोक – प्रेरित वाक्योंके कहनेकी और आवश्यकता नहीं है । [ तुम शोक छोड़ दो , मैं इसका भली प्रकार बदला चुका दूँगा । ] ” सत्यभामासे इस प्रकार कह भगवान् वासुदेवने द्वारकामें आकर श्रीबलदेवजीसे एकान्तमें कहा- ॥’वनमें आखेटके लिये गये हुए प्रसेनको तो सिंहने मार दिया था ॥
अब शतधन्वाने सत्राजित्को भी मार दिया है ॥ इस प्रकार उन दोनोंके मारे जानेपर मणिरत्न स्यमन्तकपर हम दोनोंका समान अधिकार होगा ॥ इसलिये उठिये और रथपर चढ़कर शतधन्वाके मारनेका प्रयत्न कीजिये । ‘ कृष्णचन्द्रके ऐसा कहनेपर बलदेवजीने भी ‘ बहुत अच्छा ‘ कह उसे स्वीकार किया ॥ कृष्ण और बलदेवको [ अपने वधके लिये ] उद्यत जान शतधन्वाने कृतवर्माके पास जाकर सहायताके लिये प्रार्थना की ॥ तब कृतवर्माने इससे कहा- ॥
‘ मैं बलदेव और वासुदेवसे विरोध करनेमें समर्थ नहीं हूँ । ‘ उसके ऐसा कहनेपर शतधन्वाने अक्रूरसे सहायता माँगी , तो अक्रूरने भी कहा- ॥ ‘ जो अपने पाद – प्रहारसे त्रिलोकीको कम्पायमान कर देते हैं , देवशत्रु असुरगणकी स्त्रियोंको वैधव्यदान देते हैं तथा अति प्रबल शत्रु सेनासे भी जिनका चक्र अप्रतिहत रहता है उन चक्रधारी भगवान् वासुदेवसे तथा जो अपने मदोन्मत्त नयनोंकी चितवनसे सबका दमन करनेवाले और भयंकर शत्रुसमूहरूप हाथियोंको खींचनेके लिये अखण्ड महिमाशाली प्रचण्ड हल धारण करनेवाले हैं उन श्रीहलधरसे युद्ध करनेमें तो निखिल – लोक – वन्दनीय देवगणमें भी कोई समर्थ नहीं है फिर मेरी तो बात ही क्या है ? ॥
इसलिये तुम दूसरेकी शरण लो ‘ अक्रूरके ऐसा कहनेपर शतधन्वाने कहा- ॥ अच्छा , यदि मेरी रक्षा करनेमें आप अपनेको सर्वथा असमर्थ समझते हैं तो मैं आपको यह मणि देता हूँ इसे लेकर इसीकी रक्षा कीजिये ॥ इसपर अक्रूरने कहा- ॥ ‘ मैं इसे तभी ले सकता हूँ जब कि अन्तकाल उपस्थित होनेपर भी तुम किसीसे भी यह बात न कहो ॥ शतधन्वाने कहा- ‘ ऐसा ही होगा । ‘ इसपर अक्रूरने वह मणिरत्न अपने पास रख लिया ॥
तदनन्तर शतधन्वा सौ योजनतक जानेवाली एक अत्यन्त वेगवती घोड़ीपर चढ़कर भागा ॥ और शैव्य , सुग्रीव , मेघपुष्प तथा बलाहक नामक चार घोड़ोंवाले रथपर चढ़कर बलदेव और वासुदेवने उसका पीछा किया ॥ सौ योजन मार्ग पार कर जानेपर पुनः आगे ले जानेसे उस घोड़ीने मिथिला देश के वनमें प्राण छोड़ दिये ॥ तब शतधन्वा उसे छोड़कर पैदल ही भागा ॥ उस समय श्रीकृष्णचन्द्रने बलभद्रजीसे कहा- ॥ आप अभी रथमें ही रहिये मैं इस पैदल दौड़ते हुए दुराचारीको पैदल जाकर ही मारे डालता हूँ । यहाँ [ घोड़ीके मरने आदि ] दोषोंको देखनेसे घोड़े भयभीत हो रहे हैं , इसलिये आप इन्हें और आगे न बढ़ाइयेगा ॥ तब बलदेवजी ‘ अच्छा ‘ ऐसा कहकर रथमें ही बैठे रहे ॥
अक्रूर का द्वारका लौटना
श्रीकृष्णचन्द्रने केवल दो ही कोस तक पीछाकर अपना चक्र फेंक दूर होनेपर भी शतधन्वाका सिर काट डाला ॥ किन्तु उसके शरीर और वस्त्र आदिमें बहुत कुछ ढूँढ़नेपर भी जब स्यमन्तकमणिको न पाया तो बलभद्रजीके पास जाकर उनसे कहा- ॥ ” हमने शतधन्वाको व्यर्थ ही मारा , क्योंकि उसके पास सम्पूर्ण संसारको सारभूत स्यमन्तकमणि तो मिली ही नहीं । ‘ यह सुनकर बलदेवजीने [ यह समझकर कि श्रीकृष्णचन्द्र उस मणिको छिपानेके लिये ही ऐसी बातें बना रहे हैं ] क्रोधपूर्वक भगवान् वासुदेवसे कहा- ॥
‘ तुमको धिक्कार है , तुम बड़े ही अर्थलोलुप हो ; भाई होनेके कारण ही मैं तुम्हें क्षमा किये देता हूँ । तुम्हारा मार्ग खुला हुआ है , तुम खुशीसे जा सकते हो । अब मुझे तो द्वारकासे , तुमसे अथवा और सब सगे सम्बन्धियोंसे कोई काम नहीं है । बस , मेरे आगे इन थोथी शपथका अब कोई प्रयोजन नहीं । ‘ इस प्रकार उनकी बातको काटकर बहुत कुछ मनानेपर भी वे वहाँ न रुके और विदेहनगरको चले गये ।। विदेहनगरमें पहुँचनेपर राजा जनक उन्हें अर्ध्य देकर अपने घर ले आये और वे वहीं रहने लगे ॥ इधर भगवान् वासुदेव द्वारकामें चले आये ॥ जितने दिनोंतक बलदेवजी राजा जनकके यहाँ रहे उतने दिनतक धृतराष्ट्रका पुत्र दुर्योधन उनसे गदायुद्ध सीखता रहा ॥
अनन्तर बभ्रु और उग्रसेन आदि यादवोंके , जिन्हें यह ठीक मालूम था कि ‘ कृष्णने स्यमन्तकमणि नहीं ली है ‘ , विदेहनगरमें जाकर शपथपूर्वक विश्वास दिलानेपर बलदेवजी तीन वर्ष पश्चात् द्वारकामें चले आये ॥ अक्रूरजी भी भगवद्ध्यान – परायण रहते हुए उस मणिरत्नसे प्राप्त सुवर्णके द्वारा निरन्तर यज्ञानुष्ठान करने लगे ॥ यज्ञ – दीक्षित क्षत्रिय और वैश्योंके मारनेसे ब्रह्महत्या होती है , इसलिये अक्रूरजी सदा यज्ञदीक्षारूप कवच धारण ही किये रहते थे ॥ उस मणिके प्रभावसे बासठ वर्षतक द्वारकामें रोग , दुर्भिक्ष , महामारी या मृत्यु आदि नहीं हुए ॥ फिर अक्रूर – पक्षीय भोजवंशियोंद्वारा सात्वतके प्रपौत्र शत्रुघ्नके मारे जानेपर भोजके साथ अक्रूर भी द्वारकाको छोड़कर चले गये ॥
उनके जाते ही , उसी दिनसे द्वारकामें रोग , दुर्भिक्ष , सर्प , अनावृष्टि और मरी आदि उपद्रव होने लगे ॥ तब गरुडध्वज भगवान् कृष्ण बलभद्र और उग्रसेन आदि यदुवंशियोंके साथ मिलकर सलाह करने लगे ॥ ‘ इसका क्या कारण है जो एक साथ ही इतने उपद्रवोंका आगमन हुआ , इसपर विचार करना चाहिये । ‘ उनके ऐसा कहनेपर अन्धक नामक एक वृद्ध यादवने कहा- ॥ ‘ अक्रूरके पिता श्वफल्क जहाँ – जहाँ रहते थे वहाँ – वहाँ दुर्भिक्ष , महामारी और अनावृष्टि आदि उपद्रव कभी नहीं होते थे ॥ एक बार काशिराजके देशमें अनावृष्टि हुई थी । तब श्वफल्कको वहाँ ले जाते ही तत्काल वर्षा होने लगी ॥ उस समय काशिराजकी रानीके गर्भमें एक कन्यारत्न थी ॥
वह कन्या प्रसूतिकालके समाप्त होनेपर भी गर्भसे बाहर न आयी ॥ इस प्रकार उस गर्भको प्रसव हुए बिना बारह वर्ष व्यतीत हो गये ॥ तब काशिराजने अपनी उस गर्भस्थिता पुत्रीसे कहा- ॥ ‘ बेटी ! तू उत्पन्न क्यों नहीं होती ? बाहर आ , मैं तेरा मुख देखना चाहता हूँ ॥ अपनी इस माताको तू इतने दिनोंसे क्यों कष्ट दे रही है ? ‘ राजाके ऐसा कहनेपर उसने गर्भमें रहते हुए ही कहा- ‘ पिताजी ! यदि आप प्रतिदिन एक गौ ब्राह्मणको दान देंगे तो अगले तीन वर्ष बीतनेपर मैं अवश्य गर्भसे बाहर आ जाऊँगी । ‘ इस बातको सुनकर राजा प्रतिदिन ब्राह्मणको एक गौ देने लगे ॥ तब उतने समय ( तीन वर्ष ) बीतनेपर वह उत्पन्न हुई ॥ पिताने उसका नाम गान्दिनी रखा ॥
और उसे अपने उपकारक श्वफल्कको घर आनेपर अर्घ्यरूपसे दे दिया ॥ उसीसे श्वफल्कके द्वारा इन अक्रूरजीका जन्म हुआ है । इनकी ऐसी गुणवान् माता पितासे उत्पत्ति है तो फिर उनके चले जानेसे यहाँ दुर्भिक्ष और महामारी आदि उपद्रव क्यों न होंगे ? ॥ अतः उनको यहाँ ले आना चाहिये , अति गुणवान्के अपराधकी अधिक जाँच – पड़ताल करना ठीक नहीं है । यादववृद्ध अन्धकके ऐसे वचन सुनकर कृष्ण , उग्रसेन और बलभद्र आदि यादव श्वफल्कपुत्र अक्रूरके अपराधको भुलाकर उन्हें अभयदान देकर अपने नगरमें ले आये ॥ उनके वहाँ आते ही स्यमन्तकमणिके प्रभावसे अनावृष्टि , महामारी , दुर्भिक्ष और सर्पभय आदि सभी उपद्रव शान्त हो गये ॥ तब श्रीकृष्णचन्द्रने विचार किया ॥
अक्रूरका जन्म गान्दिनीसे श्वफल्कके द्वारा हुआ है यह तो बहुत सामान्य कारण है ॥ किन्तु अनावृष्टि , दुर्भिक्ष , महामारी आदि उपद्रवोंको शान्त कर देनेवाला इसका प्रभाव तो अति महान् है ॥ अवश्य ही इसके पास वह स्यमन्तक नामक महामणि है ॥ उसीका ऐसा प्रभाव सुना जाता है ॥ इसे भी हम देखते हैं कि एक यज्ञके पीछे दूसरा और दूसरेके पीछे तीसरा इस प्रकार निरन्तर अखण्ड यज्ञानुष्ठान करता रहता है । और इसके पास यज्ञके साधन [ धन भी बहुत कम हैं ; इसलिये इसमें सन्देह नहीं कि इसके पास स्यमन्तकमणि अवश्य है । ऐसा निश्चयकर किसी और प्रयोजनके उद्देश्यसे उन्होंने सम्पूर्ण यादवको अपने महलमें एकत्रित किया ॥
” समस्त यदुवंशियोंके वहाँ आकर बैठ जानेके बाद प्रथम प्रयोजन बताकर उसका उपसंहार होनेपर प्रसंगान्तरसे अक्रूरके साथ परिहास करते हुए भगवान् कृष्णने उनसे कहा- ॥ ” हे दानपते । जिस प्रकार शतधन्वाने तुम्हें सम्पूर्ण संसारकी सारभूत वह स्यमन्तक नामकी महामणि सौंपी थी वह हमें सब मालूम है । वह सम्पूर्ण राष्ट्रका उपकार करती हुई तुम्हारे पास है तो रहे , उसके प्रभावका फल तो हम सभी भोगते हैं , किन्तु ये बलभद्रजी हमारे ऊपर सन्देह करते थे , इसलिये हमारी प्रसन्नताके लिये आप एक बार उसे दिखला दीजिये । ” भगवान् वासुदेवके ऐसा कहकर चुप हो जानेपर रत्न साथ ही लिये रहनेके कारण अक्रूरजी सोचने लगे- ॥
” अब मुझे क्या करना चाहिये , यदि और किसी प्रकार कहता हूँ तो केवल वस्त्रोंके ओटमें टटोलनेपर ये उसे देख ही लेंगे और इनसे अत्यन्त विरोध करनेमें हमारा कुशल नहीं है । ” ऐसा सोचकर निखिल संसारके कारणस्वरूप श्रीनारायणसे अक्रूरजी बोले- ॥ ” भगवन् ! शतधन्वाने मुझे वह मणि सौंप दी थी । उसके मर जानेपर मैंने यह सोचते हुए बड़ी ही कठिनतासे इसे इतने दिन अपने पास रखा है कि भगवान् आज , कल या परसों इसे माँगेंगे ॥
इसकी चौकसीके क्लेशसे सम्पूर्ण भोगोंमें अनासक्तचित्त होनेके कारण मुझे सुखका लेशमात्र भी नहीं मिला ॥ भगवान् ये विचार करते कि , यह सम्पूर्ण राष्ट्रके उपकारक इतने से भारको भी नहीं उठा सकता , इसलिये स्वयं मैंने आपसे कहा नहीं ॥अब लीजिये आपकी वह स्यमन्तकमणि यह रही , आपकी जिसे इच्छा हो उसे ही इसे दे दीजिये ” ॥ तब अक्रूरजीने अपने कटि – वस्त्रमें छिपायी हुई । एक छोटी – सी सोनेकी पिटारीमें स्थित वह स्यमन्तकमणि प्रकट की और उस पिटारीसे निकालकर यादवसमाजमें रख दी ॥ उसके रखते ही वह सम्पूर्ण स्थान उसकी तीव्र कान्तिसे देदीप्यमान होने लगा ॥
तब अक्रूरजीने कहा— ” मुझे यह मणि शतधन्वाने दी थी , यह जिसकी हो वह ले ले ॥ उसको देखनेपर सभी यादवोंका विस्मयपूर्वक ‘ साधु , साधु ‘ यह वचन सुना गया ॥ उसे देखकर बलभद्रजीने ‘ अच्युतके ही समान इसपर मेरा भी अधिकार है ‘ इस प्रकार अपनी अधिक स्पृहा दिखलायी ॥ तथा ‘ यह मेरी ही पैतृक सम्पत्ति है ‘ इस तरह सत्यभामाने भी उसके लिये अपनी उत्कट अभिलाषा प्रकट की ॥ बलभद्र और सत्यभामाको देखकर कृष्णचन्द्रने अपनेको बैल और पहियेके बीचमें पड़े हुए जीवके समान दोनों ओरसे संकटग्रस्त देखा ॥
समस्त यादवोंके सामने वे अक्रूरजीसे बोले- ॥ “ इस मणिरत्नको मैंने अपनी सफाई देनेके लिये ही इन यादवोंको दिखवाया था । इस मणिपर मेरा और बलभद्रजीका तो समान अधिकार है और सत्यभामाकी यह पैतृक सम्पत्ति है ; और किसीका इसपर कोई अधिकार नहीं है ॥ यह मणि सदा शुद्ध और ब्रह्मचर्य आदि गुणयुक्त रहकर धारण करनेसे सम्पूर्ण राष्ट्रका हित करती है और अशुद्धावस्थामें धारण करनेसे अपने आश्रयदाताको भी मार डालती है ॥ मेरे सोलह हजार स्त्रियाँ हैं ,इसलिये मैं इसके धारण करनेमें समर्थ नहीं हूँ , इसीलिये सत ्यभामा भी इसकी कैसे धारण कर सकती है ? ॥
आर्य बलभद्रको भी इसके कारणसे मंदिरापान आदि सम्पूर्ण भोगोंको त्यागना पड़ेगा । इसलिये हे दानपते ! ये यादवगण , बलभद्रजी , मैं और सत्यभामा सब मिलकर आपसे प्रार्थना करते हैं कि इसे धारण करनेमें आप ही समर्थ हैं ॥ आपके धारण करनेसे यह सम्पूर्ण राष्ट्रका हित करेगी , इसलिये सम्पूर्ण राष्ट्रके मंगलके लिये आप ही इसे पूर्ववत् धारण कीजिये ; इस विषयमें आप और कुछ भी न कहें ।
” भगवान्के ऐसा कहनेपर दानपति अक्रूरने ‘ जो आज्ञा ‘ कह वह महारत्न ले लिया । तबसे अक्रूरजी सबके सामने उस अति देदीप्यमान मणिको अपने गलेमें धारणकर सूर्यके समान किरण – जालसे युक्त होकर विचरने लगे ॥ भगवान्के मिथ्या – कलंक – शोधनरूप इस प्रसंगका जो कोई स्मरण करेगा उसे कभी थोड़ा – सा भी मिथ्या कलंक न लगेगा , उसकी समस्त इन्द्रियाँ समर्थ रहेंगी तथा वह समस्त पापोंसे मुक्त हो जायगा ।