122. सात्त्विक राजस और तामस का गुणों वर्णन एवं चौबीस तत्वों के विचार

सात्त्विक राजस और तामस का गुणों वर्णन

सर्गकालके प्राप्त होनेपर गुणोंकी साम्यावस्थारूप प्रधान जब विष्णुके क्षेत्रज्ञरूपसे अधिष्ठित हुआ तो उससे महत्तत्त्वकी उत्पत्ति हुई । उत्पन्न हुए महान् को प्रधानतत्त्वने आवृत किया ; महत्तत्त्व सात्त्विक , राजस और तामस भेदसे तीन प्रकारका है । किन्तु जिस प्रकार बीज छिलकेसे समभावसे ढँका रहता है वैसे ही यह त्रिविध महत्तत्त्व प्रधान – तत्त्वसे सब ओर व्याप्त है । फिर त्रिविध महत्तत्त्वसे ही वैकारिक ( सात्त्विक ) तैजस ( राजस ) और तामस भूतादि तीन प्रकारका अहंकार उत्पन्न हुआ ।

तामस अहंकार से भूत-तन्मात्राओं की उत्पत्ति

वह त्रिगुणात्मक होनेसे भूत और इन्द्रिय आदिका कारण है और प्रधानसे जैसे महत्तत्त्व व्याप्त है , वैसे ही महत्तत्त्वसे वह ( अहंकार ) व्याप्त है । भूतादि नामक तामस अहंकारने विकृत होकर शब्द- तन्मात्रा और उससे शब्द – गुणवाले आकाशकी रचना की । उस भूतादि तामस अहंकारने शब्द तन्मात्रारूप आकाशको व्याप्त किया । फिर [ शब्द तन्मात्रारूप ] आकाशने विकृत होकर स्पर्श – तन्मात्राको रचा । उस ( स्पर्श – तन्मात्रा ) से बलवान् वायु हुआ , उसका गुण स्पर्श माना गया है । शब्द – तन्मात्रारूप आकाशने स्पर्श – तन्मात्रावाले वायुको आवृत किया है ।

फिर [ स्पर्श- तन्मात्रारूप ] वायुने विकृत होकर रूप – तन्मात्राकी सृष्टि की । ( रूप – तन्मात्रायुक्त ) वायुसे तेज उत्पन्न हुआ है , उसका गुण रूप कहा जाता है । स्पर्श – तन्मात्रारूप वायुने रूप- तन्मात्रावाले तेजको आवृत किया । फिर [ रूप – तन्मात्रामय ] तेजने भी विकृत होकर रस – तन्मात्राकी रचना की । उस ( रस – तन्मात्रारूप ) – से रस – गुणवाला जल हुआ । रस – तन्मात्रावाले जलको रूप – तन्मात्रामय तेजने आवृत किया । [ रस – तन्मात्रारूप ] जलने विकारको प्राप्त होकर गन्ध – तन्मात्राकी सृष्टि की , उससे पृथिवी उत्पन्न हुई है जिसका गुण गन्ध माना जाता है ।

उन – उन आकाशादि भूतोंमें तन्मात्रा है । [ अर्थात् केवल उनके गुण शब्दादि ही हैं । इसलिये वे तन्मात्रा ( गुणरूप ) ही कहे गये हैं । तन्मात्राओंमें विशेष भाव नहीं है इसलिये उनकी अविशेष संज्ञा है । वे अविशेष तन्मात्राएँ शान्त , घोर मूढ़ नहीं हैं [ अर्थात् उनका सुख – दुःख या मोहरूपसे अनुभव नहीं हो सकता ] इस प्रकार तामस अहंकारसे यह भूत – तन्मात्रारूप सर्ग हुआ है ।

इन्द्रियों और उनके अधिष्ठाता देवताओं की उत्पत्ति

दस इन्द्रियाँ तैजस अर्थात् राजस और उनके अधिष्ठाता देवता वैकारिक अर्थात् सात्त्विक उत्पन्न हुए कहे जाते हैं । इस प्रकार इन्द्रियोंके अधिष्ठाता दस देवता और ग्यारहवाँ मन वैकारिक ( सात्त्विक ) हैं ।

 त्वक् , चक्षु , नासिका , जिा और श्रोत्र ये पाँचों बुद्धिकी सहायतासे शब्दादि विषयोंको ग्रहण करनेवाली पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं । पायु ( गुदा ) , उपस्थ ( लिंग ) , हस्त , पाद और वाक् – ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं । इनके कर्म [ मल – मूत्रका ] त्याग , शिल्प , गति और वचन बतलाये जाते हैं ।आकाश , वायु , तेज , जल और पृथिवी- ये पाँचों भूत उत्तरोत्तर ( क्रमश 🙂 शब्द स्पर्श आदि पाँच गुणोंसे युक्त हैं । ये पाँचों भूत शान्त घोर और मूढ हैं [ अर्थात् सुख , दुःख और मोहयुक्त हैं ] अतः ये विशेष कहलाते हैं * । इन भूतोंमें पृथक् – पृथक् नाना शक्तियाँ हैं । अतः वे परस्पर पूर्णतया मिले बिना संसारकी रचना नहीं कर सके ।

महत्तत्त्व से अण्ड की उत्पत्ति

इसलिये एक – दूसरेके आश्रय रहनेवाले और एक ही संघातकी उत्पत्तिके लक्ष्यवाले महत्तत्त्वसे लेकर विशेषपर्यन्त प्रकृतिके इन सभी विकारोंने पुरुषसे अधिष्ठित होनेके कारण परस्पर मिलकर सर्वथा एक होकर प्रधान – तत्त्वके अनुग्रहसे अण्डकी उत्पत्ति की । जलके बुलबुलेके समान क्रमशः भूतोंसे बढ़ा हुआ वह गोलाकार और जलपर स्थित महान् अण्ड ब्रह्म ( हिरण्यगर्भ ) रूप विष्णुका अति उत्तम प्राकृत आधार हुआ । उसमें वे अव्यक्त – स्वरूप जगत्पति विष्णु व्यक्त हिरण्यगर्भरूपसे स्वयं ही विराजमान हुए ।

उन महात्मा हिरण्यगर्भका सुमेरु उल्ब ( गर्भको ढँकनेवाली झिल्ली ) , अन्य पर्वत , जरायु ( गर्भाशय ) तथा समुद्र गर्भाशयस्थ रस था । उस अण्डमें ही पर्वत और द्वीपादिके सहित समुद्र , ग्रह – गणके सहित सम्पूर्ण लोक तथा देव , असुर और मनुष्य आदि विविध प्राणिवर्ग प्रकट हुए । वह अण्ड पूर्व – पूर्वकी अपेक्षा दस – दस – गुण अधिक जल , अग्नि , वायु , आकाश और भूतादि अर्थात् तामस – अहंकारसे आवृत है तथा भूतादि महत्तत्त्वसे घिरा हुआ है । और इन सबके सहित वह महत्तत्त्व भी अव्यक्त प्रधानसे इस प्रकार जैसे नारियलके फलका भीतरी बीज आवृत है । बाहरसे कितने ही छिलकोंसे ढँका रहता है वैसे ही यह अण्ड इन सात प्राकृत आवरणोंसे घिरा हुआ है ।

उसमें स्थित हुए स्वयं विश्वेश्वर भगवान् विष्णु ब्रह्मा होकर रजोगुणका आश्रय लेकर इस संसारकी रचनामें प्रवृत्त होते हैं । तथा रचना जानेपर सत्त्वगुण विशिष्ट अतुल पराक्रमी भगवान् विष्णु उसका कल्पान्तपर्यन्त युग – युगमें पालन करते हैं । फिर कल्पका अन्त होनेपर अति दारुण तमः प्रधान रुद्ररूप धारण कर वे जनार्दन विष्णु ही समस्त भूतोंका भक्षण कर लेते हैं । इस प्रकार समस्त भूतोंका भक्षण कर संसारको जलमय करके वे परमेश्वर शेषशय्यापर शयन करते हैं । जगनेपर ब्रह्मारूप होकर वे फिर जगत्की रचना करते हैं ।

सृष्टि, स्थिति, और संहार में विष्णु का कार्य

वह एक ही भगवान् जनार्दन जगत्की सृष्टि , स्थिति और संहारके लिये ब्रह्मा , विष्णु और शिव इन तीन संज्ञाओंको धारण करते हैं । वे प्रभु विष्णु स्रष्टा ( ब्रह्मा ) होकर अपनी ही सृष्टि करते हैं , पालक विष्णु होकर पाल्यरूप अपना ही पालन करते हैं और अन्तमें स्वयं ही संहारक ( शिव ) तथा स्वयं ही उपसंहृत ( लीन ) होते हैं ।

पृथिवी , जल , तेज , वायु और आकाश तथा समस्त इन्द्रियाँ और अन्तःकरण आदि जितना जगत् है सब पुरुषरूप है और क्योंकि वह अव्यय विष्णु ही विश्वरूप और सब भूतोंके अन्तरात्मा इसलिये ब्रह्मादि प्राणियों में स्थित सर्गादिक भी उन्हींके उपकारक हैं । [ अर्थात् जिस प्रकार ऋत्विजोंद्वारा किया हुआ हवन यजमानका उपकारक होता है , उसी तरह परमात्माके रचे हुए समस्त प्राणियोंद्वारा होनेवाली सृष्टि भी उन्हींकी उपकारक है ] । वे सर्वस्वरूप श्रेष्ठ , वरदायक और वरेण्य ( प्रार्थनाके योग्य ) भगवान् विष्णु ही ब्रह्मा आदि अवस्थाओंद्वारा रचनेवाले हैं , वे ही रचे जाते हैं , वे ही पालते हैं , वे पालित होते हैं तथा वे ही संहार करते हैं और स्वयं ही संहृत होते हैं ]।

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