माता-पिता आदि की शिक्षा
(भा. स्कंध. 4- अ. 8- श्लो. 23-37-41)
नान्यं ततः पद्मपलाशलोचनादुखः च्छिदं ते मृगयामिकञ्चन ।
यो मृग्यते हस्तगृहीतपद्मया श्रियेतरैरंग विमृग्यमाणया ।।1।।
पदं त्रिभुवनोत्कृष्टं जिगीषोः साधुवर्त्म मे ।
ब्रूह्यस्मत्पितृभिर्ब्रह्मन्नन्यैरप्यनधिष्ठितम् ।।2।।
धर्मार्थकाममोक्षार्थं य इच्छेच्छ्रेय आत्मनः ।
एकमेव हरेस्तत्र कारणं पादसेवनम् ।।3।।
पूर्व चौदहवें अध्याय में ईश्वर नाम की महिमा का कथन किया। सो हरिनाम की तथा दान धर्मादि की बालकों को शिक्षा देना यह प्रथम माता पिता आदि का कर्तव्य है अस्तु अब पंदरवें अध्याय में माता-पिता आदि की शिक्षा का कथन करते हैं ।
भागवत में कहा है कि उत्तानपाद राजा सुरुचि रानी के पुत्र उत्तम को गोदी में लेकर लालन करते थे उसी काल में सुनीति रानी के पुत्र ध्रुव आकर राजा को नमस्कार कर गोद में बैठने लगे तब सुरुचि रानी ने पकड़कर नीचे पटक दिया। ध्रुव ने कहा हे मात ! हम दोनों राजा के पुत्र हैं तो आपने मेरे को राजा की गोद से क्यों पटका ? सुरुचि ने कहा तुम निर्भाग्य सुनीति के पेट से उत्पन्न होने से राजगोद में बैठने के योग्य नहीं, यदि राजगोद में बैठना हो तो मेरे पेट से जन्म लेओ, ऐसे सपत्नी (सौतेली माता) के वाक्रूप बाण से विद्धहृदय क्षत्रिय-जोश से पूर्ण हुआ ध्रुव अपनी माता सुनीति के पास गया।
सुनीति ने रोते हुए पुत्र को गोद में लेकर पूछा कि पुत्र आप तो पिता को नमस्कार कर हँसते हुए आया करते थे आज क्यों रोते हो। तब ध्रुव ने सपत्नी माता की गाथा सुनाकर कहा है माता आज मेरे दुःख की कोई सीमा नहीं है। सुनीति ने कहा हे पुत्र ! मैं निर्भाग्य इस तेरे असीम दुःख को दूर न कर सकूंगी। और आप भी रोने मात्र से दूर न कर सकोगे।
अस्तु हे पुत्र ! तिस पद्मलोचन भगवान् से बिना दूसरा कोई संसार में खोजने पर भी तेरे असीम दुःख को नाश करने वाले को नहीं देख सकती हूं। संसारी पुरुषों से खोजी जाने वाली जो लक्ष्मी सो लक्ष्मी भी हाथ में पद्म लेकर खोजती है जिस भगवान् को तिसही सर्व व्यापी दुःख छेदक विष्णु की हे पुत्र ! आप भी खोज करो ।।1।।
ऐसे माता के अमृत समान वचनों को सुनकर ध्रुव ने माता को नमस्कार कर कहा है मात ! अब मैं उस हरि के मिले से बिना अन्नजल ग्रहण न करूंगा ऐसा कहकर वन को चल दिये मार्ग में नारदजी ने देखकर कहा हे राजपुत्र ध्रुव ! आप कहाँ जाते हो ध्रुव ने सब वार्ता सुनाकर हाथ जोड़कर कहा भो ब्रह्मपुत्र देव ऋषि श्रेष्ठ मार्ग के शिक्षक आप मेरे को त्रिभुवन से उच्च पद के जय करने की इच्छा वाले को जो पद हमारे पितरों ने आज तक किसी ने न प्राप्त करा हो आप उस पद की प्राप्ति का मार्ग कहो नारद ने कहा हे ध्रुव तुम पाँच वर्ष के बालक माता के तिरस्कारी वचन सह नहीं सकते हो
अहो ! क्षात्रजोश की असीमा और हे ध्रुव ! जिस विष्णु को प्रसन्न कर तुम मिलना चाहते हो सो विष्णु वज्र के समान कठोर हृदय वाला है, दुःसाध्य है, शीघ्र प्रसन्न होने वाला नहीं है इससे गृह को लौट जावो। ध्रुव ने कहा चाहे भूमि उलट जाय परन्तु मैं हरि के मिले से बिना घर को नहीं लौटूंगा। यह सुन नारद ने प्रीति से ध्रुव को गोद में लेकर कहा हे ध्रुव ! आपको शीघ्र ही हरि का दर्शन होगा आप मथुरा में जायें ।
जो पुरुष अपना कल्याण चाहता है जिसको धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चार पुरुषार्थों की प्राप्ति के लिये एक हरि विष्णु के पाद सेवन ही कारण है ।।3।।
(गोपालोत्तरतापिन्यु. मं. 1)
मथुरायां स्थितिर्ब्रह्मन्सर्वदा मे भविष्यति ।
शंखचक्रगदापद्मवनमालाधरस्य बै ।।4।।
( योगद. पाद. 2-सू. 46)
स्थिरसुखासनम् ।।5।।
(त्रिपाद्वीभूतिमहानारायणो. मं. 7)
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।।6।।
(गीता. अ. 9-श्लो. 22)
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।।7।।
(भा. स्कंध. 4- अ. 9-श्लो. 31-35-47)
अहोबत ममानात्म्यं मन्दभाग्यस्य पश्यत ।
भवच्छिदः पादमूलं गत्वाऽयाचे पदन्तवत् ।।8।।
स्वाराज्यं यच्छतो मौढ्यान्मानो मे भिक्षि बन ।
ईश्वरात्क्षीणपुण्येन फलीकारानिवाधनः ।।9।।
यस्य प्रसन्नो भगवान्गुणैर्मेत्र्यादिभिर्हरिः ।
तस्मै मन्ति भूतानि निम्नमाप इव स्वयम् ।।10।।
क्योंकि गोपालोत्तर तापिन्युपनिषद् में कृष्णचन्द्रजी ने ब्रह्मा से कहा है कि हे ब्रह्मन ! शंख, चक्र, गदा, पद्म, वनमाला धार कर मैं मथुरा में सर्वदा वास करूंगा ।।4।।
ऐसी मथुरा में जाकर हे ध्रुव ! तुम जैसा योग दर्शन में कहा है कि जिसमें बहुत काल तक स्थिर सुख होवे सो ही आसन है वैसा ही आसन लगाकर त्रिपाद्विभूति महानारायणो पनिषद् ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ‘ यह मन्त्र एकाग्र चित्त से सर्वदा जपना। ऐसे कल्याणकारी उपदेश को सुनकर ध्रुव ने नारद के चरणों में मस्तक लगाकर पुनः पुनः नमस्कार कर मथुरा में जाकर जैसे नारद ने कहा था वैसे ही किया। छैः मास से पहिले ही विष्णु ने तुष्ट होकर ध्याननिष्ठ ध्रुव बालक के सिर पर सशंखहस्तकमल रखकर उत्थान किया।
तब ध्रुव ने उठकर विष्णु के पादपद्म स्पर्श करे। अब तो उसके आनन्द की सीमा न रही। बहुत सी नमस्कार स्तुति कर ध्रुव ने कहा भो पाप हारि हरि ! आपसे भक्ति और साधु महात्मा का संग मैं सर्वदा चाहता हूँ। विष्णु ने कहा हे ध्रुव आपके प्रथम संकल्प के •अनुसार जिस लोक को आज तक किसी ने प्राप्त न कराया सो ध्रुवलोक आपको दिया और अभी राज्य देने को आपके पिता खोज रहे हैं आप जाकर पिता का मनोरथ पूर्ण करें ।।5।।6।।
क्योंकि जो पुरुष अनन्य चित्त से चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं। मेरे में ही नित्य अभियुक्त हैं तिन पुरुषों को जो वस्तु प्राप्त नहीं सो मैं प्राप्त करता हूँ और उनकी प्राप्त हुई देवसंपत्ति की रक्षा करता हूँ। हे ध्रुव ! आप जैसे भक्तों का सब कुछ मेरे को ही करना पड़ता है। ऐसा गीतार्थ कहकर विष्णु अन्तर्ध्यान हो गये ।। 7।।
भागवत में कहा है कि भगवान् विष्णु के अन्तर्ध्यान हो जाने पर ध्रुव ने विचारा अहो कष्ट है, मुझ मन्दभागी की विष्णु को देखते हुए भी मेरी आत्मविचार में शून्यता ही रही और मैं बालबुद्धि संसार दुःखछेदक ब्रह्मानन्द रूप मोक्ष के कारण विष्णु के पादपद्मों को प्राप्त होकर भी मैंने नाशवान् लोक की ही याचना करी ।। 8।।
अहो कष्ट है, स्वाराज्य रूप निजानन्द देने वाले विष्णु भगवान् से मुझ निर्बुद्धि ने दुर्गतिप्रद मानमोहकारी ऐश्वर्य की भिक्षा मांगी। जैसे चक्रवर्ती राजा के प्रसन्न हुए से कोई पुण्यहीन निर्धन भट्टी झोंकने वाले भटियारा ने भट्टी जलाने के लिए चावलों का बीस भार भूसा मांगा, ऐसा मैंने भी मांगा। आत्मविद्या की अपेक्षा से उच्च ध्रुवलोक भी नीचा माना गया है ।।9।।
जिस पुरुष पर मैत्री करूणादि गुणों से हरि भगवान् प्रसन्न होते हैं उस पुरुष के लिये जैसे निम्न भूमि में जल स्वयं आ जाता है तैसे ही सर्व भूतप्राणी नमते हुए शरण में आते हैं ।।10।।
(मार्कण्डेय. पु. अ. 20 – श्लो. 3-42)
दुर्वृताः सन्ति शतशो दानवाः पापबुद्धयः ।
तेभ्यो न स्याद्यथा बाधा मुनीनां त्व तथा कुरु ।।11।।
न मे मात्रा न मे स्वस्रा प्राप्ता प्रीतिर्नृपेदृशी ।
श्रुत्वा मुनिपरित्राणे हतं पुत्रं यथा मया ।।12।।
मार्कण्डेय पुराण में कहा है कि ऋतुराज पुत्र को राज्य देकर शत्रुजित राजा ने कहा हे पुत्र ! बनों में ऋषियों को दुःखकारी दुराचारी पापबुद्धि वाले दानव बहुत से विचरते हैं तिन ! असुरों से जैसे ऋषि मुनियों को बाधा न हो तैसे तुम बनों में जाकर ऋषि मुनियों की रक्षा करो।
तब पिता की आज्ञा से ऋतुध्वज अकारण दुःखकारी असुरों से ऋषियों की रक्षा के लिये वनों में गये तब किसी ने ऋतुध्वज के माता-पिता से झूठा ही जाकर कह दिया कि आपका पुत्र वन में असुरों से मारा गया है। यह सुनकर ऋतुध्वज की माता ने राजा से कहा हे नृप ! जैसे ऋषि मुनियों की रक्षा करने में पुत्र का मरण सुनकर मेरे को अति आनन्द प्राप्त हुआ है ऐसा आनन्द माता भागिनी आदि के मिलने पर भी कभी नहीं हुआ था। आज मैं संसार में अपने को पुत्रवती मानती हूँ ।।12।।
(मार्कण्डेय. पु. अ. 25 श्लो. 11)
शुद्धोऽसि रे तात न तेऽस्ति नाम कृतं च ते कल्पनयाधुनैव ।
पिञ्चात्मकं देहमिदं न तेऽस्ति नैवास्य त्वं रोदिषि कस्य हेतोः ।।13।।
(मार्कण्डेय. पु. अ. 37 – श्लो. 23)
सङ्ग सर्वात्मना त्याज्यः स चेत्यक्तुं न शक्यते ।
स सद्भिः सहकर्तव्यः सतां सङ्गो हि भेषजम् ।।14।।
मदालसा अपने पुत्र को लोरी देती (झुलाती) खेलाती हुई संसारी दुःखहारी मोक्षकारी शिक्षा देती है कि हे पुत्र ? तू शुद्ध स्वरूप है, यह मायाकृत नामरूप आदि तेरे नहीं हैं, यह सर्वतेरी कल्पना से रचे हुए हैं। अभी देखने में आते हैं सदा रहने वाले नहीं हैं और अनित्य जड़ दुःखरूप यह पंचभूतात्मक देह तेरा नहीं है और तू सुखरूप इस दुःख रूप देह का नहीं है। हे पुत्र ! अहंता ममता और माया से रहित हुआ तू किस हेतु से रोता है। संसार स्वप्न का कारण मोह और अज्ञानरूप निद्रा को त्यागकर रुदन करने का कोई हेतु नहीं है।
ऐसी मोक्षकारी शिक्षा और उपदेश से मदालसा ने बहुत से अपने पुत्रों को जीवनमुक्त करदिया। तब अलर्क पुत्र होने पर ऋतुध्वज राजा ने मदालसा से कहा कि तुम पुत्रों को गृह से निकालने की क्या शिक्षा देती हो मदालसा ने कहा हे राजन् ! जिस माता-पिता की शिक्षा से पुत्र को फिर संसार में दूसरा माता-पिता न करना पड़े ऐसी शिक्षा मैं पुत्रों को देती हूँ। यह सुन ऋतुध्वज राजा ने कहा कि इस पुत्र को राज्यपालन के लिये हम पालेंगे।
तब मदालसा ने एक पत्र लिखकर सुवर्ण के ताबीज में बन्दकर अलर्क के गले में बांधकर कहा हे पुत्र ! जब तुम्हारे को अति कष्ट आ पड़े तब इस ताबीज में से पत्र खोलकर पढ़ लेना । पत्र का अर्थ यह है कि संग सर्व प्राणियों का त्याज्य है। यदि सर्व का संग त्याग करने की शक्ति न हो तो संग साधु-महात्माओं का ही करना योग्य है। क्योंकि महात्मा सत्पुरुषों का संग संसार दुःखरूपी रोग नाश करने वाली औषधि है ।।13।।
अलर्क को राजभोगादि में आसक्त सुनकर उसके ज्येष्ठ भ्राता सुबाहु ने विचारा कि सहोदर अनुज भ्राता को संसार चक्र से निकालना ही योग्य है। ऐसा विचारकर सुबाहु ने सेना सहित काशीराज को साथ लेकर अलर्क के पुर को घेर लिया। अलर्क काशीराज की महान् सेना से व्यथित हुआ माता के पत्र को पढ़कर दत्तात्रेय महात्मा की शरण को प्राप्त हो सर्व दुःख उनको सुनाकर हाथ जोड़कर कहता भया भो भगवान् ! मेरे दुःखनाशक सुख का मार्ग कहो ।।14।।
(शिवपु. धर्मसंहिता. अ. 42-श्लो. 98)
श्लोकार्थेन तु वक्ष्यामि यदुक्तं ग्रन्थकोटिभिः ।
ममेति परमं दुःखं निर्ममेति परं सुखम् ।।15।।
(मार्कडेपु. अ. 43- श्लो. 65-80)
अनर्थोप्यर्थतां याति पुरुषस्य शुभोदये ।
तथेदमुपकाराय व्यसनं सङ्गमात्तव ।।16।।
निर्जितेन्द्रियवर्गस्तु त्यक्त्वा सङ्गमशेषतः ।
मनो ब्रह्मणि संधास्ये तज्जये परमो जयः ।।17।।
तब भगवान् दत्तात्रेय ने शिवपुराण की शिक्षा कही हे अलर्क ! जिस दुःखहारी सुखकारी रहस्य को करोड़ों ग्रंथों ने कथन करा है तिस रहस्य को मैं अर्ध श्लोक से कहता हूँ यह मेरा है यह मेरा है ऐसी ममता ही महान् संसार के दुःख को देने वाली है और सुखस्वरूप आत्मा से भिन्न मेरा कोई भी द्रव्य नहीं है ऐसी निर्ममता ही संसार में परम सुखरूप है ।।15।।
ऐसी दत्तात्रेय के संग की शिक्षा से निर्ममत्व होकर अलर्क में कहा भो भगवन् ! जैसे पुरुष के पुण्य उदय होने पर अनर्थ भी सुखरूप अर्थता को प्राप्त हो जाता है तैसे ही यह मेरे को कष्टरूप व्यसन आप महात्माओं के संग से सुखरूप उपकार के लिये हो गया ।।16।।
अब मैं इन्द्रिय वर्ग को जीतकर सर्व के संग को त्याग करके वन में जाकर मन को ब्रह्म में लगाकर स्थिर करूँगा। क्योंकि मन के जय होने पर ही पुरुष की परम जय होती है इस प्रकार सर्व से निर्ममत्व और निर्भय होकर अलर्क के वन को जाने को तैयार हो जाने पर सुबाहु ने कहा हे भ्राता ! रागजनक और दुर्गतिकारी राजलक्ष्मी आदि अनात्म पदार्थों से आपको मोक्षकारी वैराग्य कराने के लिये मैंने ऐसा प्रयत्न कर आपके साथ सहोदय भ्रातापने का कर्त्तव्य पालन करा है ।।17।।
(मार्कण्डेय. पु. अ. 44- श्लो. 13)
उष्ट्वा मदालसागर्भे पीत्वा तस्यास्तथा स्तनम् ।
नानन्यनारीसुतैर्यातं वर्त्म यात्विति पार्थिव ।।18।।
सुबाहु ने कहा हे भूपाल ! यह अलर्क मुक्तिपद शिक्षाकारी मदालसा माता के गर्भ में वासकर तथा तिसके स्तनपान करके अन्य स्त्रियों के पुत्रों से जो मोक्ष मार्ग प्राप्त नहीं करा जाता है सो मार्ग अलर्क को प्राप्त करना योग्य ही है क्योंकि मदालसा जैसी माता के गर्भ में वासकर फिर गर्भ में वास नहीं करना पड़ता। अब निर्ममत्व होकर राज्य करने पर इसका कोई शत्रु नहीं होगा ।।18।।
(गरुड़पु. काण्ड. 1-अ. 115 – श्लो. 80 )
माता शत्रुः पिता बैरी बाला येन न पाठिताः ।
सभामध्ये न शोभन्ते हंसमध्ये बका यथा ।।19।।
गरुड़पुराण में कहा है कि जिस माता-पिता ने अपने बालकों को शुभ शिक्षा न पढ़ाई वे माता-पिता बालकों के बैरी और शत्रु कहे जाते हैं क्योंकि जैसे हंसों की पंक्ति में बैठकर बर्क (बगुले) शोभा नहीं पाते हैं तैसे ही माता-पिता से अशिक्षित मूर्ख बालक बुद्धिमान विद्वान पुरुषों की सभा में बैठकर शोभा नहीं पाते हैं ।।19।।
(बाल्मीकि काण्ड 2-संग. 63-श्लो. 7-8)
गुरुलाघवमर्थानामारम्भे कर्मणां फलम् ।
दोषं वा यो न जानाति स बाल इतीहोच्यते ।।20।।
कश्चिदाभ्रवणं छित्त्वा पलाशांश्च निषिञ्चति ।
पुष्पं दृष्ट्वा फले गृध्रुः सशोचति फलागमे ।।21।।
वाल्मीकि रामायण में कहा है श्रीरामचन्द्रजी के वन में जाने पर कौशल्या के गृह में रोते हुए दशरथ ने राम माता से कहा मैं बालक हूँ। राम माता ने कहा आप वृद्ध होकर बालक कहकर मेरे से हास करते हो। तब दशरथ ने कहा कि मैं शास्त्र की रीति से तो बालक ही हूँ क्योंकि जैसे सर्व कर्मों के आरम्भ में द्रव्य के न्यून अधिक खर्च को और कर्मों के फल को और कर्मों में हिंसा आदि दोषों को जो पुरुष नहीं जानता है सो बालक जैसे किसी मूर्ख पुरुष ने फल की इच्छा से पुष्पों की शुभ अशुभता देखकर सर्व आम्र के वन को छेदन करा दिया।
फूल मात्र की शोभा देखकर पलाश के वन को जल से सींचा परन्तु जब दूसरों के आम्रवृक्षों में अमृत के समान फल आये और अपने पलाशों में निस्सार फल आये देखकर वो मूर्ख पुरुष पुनः पुनः शोचता (पछताता) है। ऐसा ही मैंने श्रीरामचन्द्र आनन्दकन्द कौशलचन्द्र को वन में भेजना रूप आम्रबन का छेदन करा है। और विषय सुख रूप फूल शोभा से मृत्यु फल देने वाली कैकेयी रूप पलाश वन को सींचा है ।।21।।