प्रारब्ध

(अध्यात्मो. मं. 54)

व्याघ्रबुध्द्या विनिर्मुक्तो बाणः पश्चात्तु गोमती ।

न तिष्ठति भिनत्येव लक्ष्यं वेगेन निर्भरम् ।।1।।

पूर्व पन्द्रवें अध्याय में मातादि की शिक्षा और राजा दशरथ को रामपुत्र होने पर भी कर्मफल अवश्यमेव भोगनीय कहा अब सोलवें अध्याय में प्रारब्ध को कहते हैं।

अध्यात्मोपनिषद् में कहा है कि जैसे प्रथम गौ न जानकर व्याघ्रबुद्धि से छोड़ा हुआ बाण पश्चात् गौ का ज्ञान हो जाने पर भी पूर्व वेग से गौ को भेदन करे बिना नहीं हटता है। वैसे ही तीव्र प्रारब्ध भोगरूप फल को दिये से बिना दूर नहीं होता ।।1।।

(ब्रह्मवै. उत्तरार्ध-खण्ड. 4- अ. 81 – श्लो. 54-55)

यस्माद्भाद्रचतुर्थ्यां तु गुरुपत्नी क्षतिकृता ।

तस्मात्तस्मिन् दिने वत्स पापद्दश्यो युगेयुगे ।।2।।

नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि ।

अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।।3।।

ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा है कि चन्द्रमा के गुरु पत्नी को दूषित करने पर तारा ने चन्द्रमा को क्षयी रोग का शाप दिया और महादेव ने कहा कि हे चन्द्रमा ! जिस हेतु से आपने भाद्रपद की चतुर्थी में गुरुपत्नी को दूषित करा है इसी हेतु से उस दिन में आपका दर्शन सर्वयुगों में पापकारी होगा ।।12।।

किया हुआ शुभ अशुभ कर्म पुरुष को अवश्य ही भोगना पड़ता है बिना भोगे से करे हुए कर्म का नाश ब्रह्मा के करोड़ कल्प पर्यन्त भी नहीं होता है। देखो प्रकाश मान चन्द्रमा आदि देवता को भी अपने पापादि कर्मों का कष्टरूप फल भोगना ही पड़ा तो अस्मदादिक पुरुषों की तो कथा ही क्या है ।।13।।

(पद्मपु. खण्ड. 6 – अ. 276 – श्लो. 17)

सिंहः प्रसेनमवधीत्सिंहो जाम्बवता हतः ।

सुकुमारकि मा रोदीस्तव ह्येष स्यमन्तकः ।।4।।

(स्कन्द. पु. खण्ड 3-अ. 38-श्लो. 75)

अवश्यंभाविनो भावा भवन्ति महतामपि ।

नग्नत्वं नीलकण्ठस्थ महाहिशयनं हरेः ।।5।।

पद्मपुराण में कहा है कि भाद्र मास की चतुर्थी में चन्द्रदर्शन का पाप इस श्लोक को पढ़कर जल पीने से दूर होता है अर्थ यह है- मणि से खिलाती हुई धात्री ने जाम्बवती से कहा हे सुकुमारी रुदन न करो यह स्यमन्तक नाम मणि तुम्हारी ही है क्योंकि सिंह ने प्रसेन को मारा है और सिंह जामवन्त से मारा गया है अस्तु यह मणि तुम्हारी है ।।4।।

स्कन्द पुराण में कहा है कि भावी की भवितव्यता ईश्वरों को भी अनिवार्य है। नीलकण्ठ शिवजी को नग्नपना और हरि विष्णु भगवान् का शेषनाग पर शयन करना । ईश्वर इन लीलाओं से भवितव्यता की प्रबलता सूचित करते हैं ।।5।।

(नारद पञ्चरात्र 1-अ. 3- श्लो. 13)

यस्य हस्ते च यन्मृत्युर्विधात्रा लिखितः पुरा ।

न च तं खण्डितुं शक्तः स्वयं विप्णुश्च शंकरः ।। 6।।

(ब्रह्मवै. उत्तरार्ध खण्ड. 4-अ. 86-श्लो. 103) येन शुक्लीकृता हंसाः शुकाश्च हरिताः कृताः । मयूराश्चित्रिता येन स मे रक्षां करिष्यति ।।7।।

नारद पञ्चरात्र में कहा है कि ब्रह्मा ने पूर्व कर्म के अनुसार जिस प्राणी की मृत्यु जिस प्राणी के हाथ में लिख दिया है तिस मृत्यु को स्वयं विष्णु और शंकर भी खंडित करने को समर्थ नहीं हो सकते ।। 6।।

ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा है कि जिस परमात्मा ने हंस श्वेत रंगवाले कर दिये हैं। शुक हरे रंगवाले कर दिये हैं और मोर नाना विचित्र रंगवाले कर दिये हैं सो परमात्मा मेरी रक्षा भी अवश्य ही करेंगे ।।7।।

(गर्गसंहिता. खण्ड. 10 – अ. 50-श्लो. 35)

जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिर्जानामि पापं न च मे निवृत्तिः ।

केनापि देवेन हृदिस्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि ||8||

(वाल्मीकि काण्ड. 6-सर्ग 111 – श्लो. 26)

शुभकृच्छुभमाप्नोति पापकृत्पापमश्नुते ।

विभीषणः सुखं प्राप्तस्त्वं प्राप्तः पापमीदृशम् ||9||

गर्ग संहिता में कहा है कि युधिष्ठिर के भेजे हुए कृष्णचन्द्र परमानन्द ने सभा में बुलाकर दुर्योधन से कहा हे दुर्योधन ! क्या आप शास्त्रज्ञ होकर धर्म-अधर्म को नहीं जानते हो जिससे आपने युधिष्ठिर को अर्धभाग राज्य का नहीं दिया है और मैं यह चाहता हूँ कि आप जैसे कुलीन कौरवों का और पाण्डवों का विवाद न हो।

तब दुर्योधन ने कहा है है कृष्णचन्द्र ! मैं धर्म को जानता हूँ परन्तु धर्म में मेरी प्रवृत्ति नहीं होती है और अधर्म को भी जानता हूँ तिससे भी मेरी निवृत्ति नहीं होती है। किसी भी दुर्गतिकारी पाप कर्म ने हृदय में स्थित हुए ने मेरे को जैसे जोड़ दिया है तैसे ही मैं करता हूँ। यह सुन श्रीकृष्णचन्द्र तीव्र प्रारब्ध को अनिवार्य जानकर लौट गये ॥18॥

बाल्मीकि रामायण में कहा है कि रामबाण से गत प्राण रणभूमि में पड़े हुए रावण का सिर गोद में रखकर रोती हुई मन्दोदरी कहती है, हे पति ! श्रीरामचन्द्र परमानन्द का कोई दोष नहीं है मैं आपके असीम पापफल को और विभीषण के असीम पुण्यफल को आँखों से देखती हूँ। पुण्यकर्त्ता पुण्यगति को प्राप्त होता है और पापकर्त्ता पापगति को प्राप्त होता है। विभीषण रामकृपा का पात्र होकर सुखरूप राज्य को प्राप्त हो गये हैं और आप हे पति ! पुत्र, बन्धु, सेना के सहित गतप्राण होकर रणभूमि में अति पापकर्म से ऐसी कष्टगति को प्राप्त हो गये हो । हा पापकर्म की कष्टगति का असीम दुःख है ||9||

(देवीभा. स्कंध. 7-अ. 20-श्लो. 19-35)

इमे प्राणाः सुतश्चायं प्रिया पत्नी मुने मम ।

येन ते कृत्यमस्त्याशु गृहाणाद्य द्विजोत्तम ।।10।।

राजन्माभूदसत्यं ते पुंसां पुत्रफलाः स्त्रियः ।

तन्मां प्रदाय वित्तेन देहि विप्राय दक्षिणाम् ।।11।।

देवी भागवत में कहा है कि हरिश्चचन्द्र राजा ने काशी में जाकर चौदह भार सुवर्ण के दक्षिणा रूप ऋण के बदले विश्वामित्र से कहा कि हे मुनीश्वर यह मेरे प्राण और यह मेरा प्रिय पुत्र और यह मेरी प्यारी पत्नी इनमें से जिससे आपका कार्य सिद्ध होता हो उसी को आज शीघ्र ही ग्रहण करें।

तब विश्वामित्र ने कहा हे राजन् ये तीनों ही मेरे किसी काम के नहीं हैं मेरे को तो चौदह भार स्वर्ण के शीघ्र ही देवो नहीं तो मैं शाप देता हूँ ।।10।।

तब रानी ने कहा हे राजन् पुरुषों को पुत्र रूप फल पर्यन्त ही स्त्रियाँ ग्राह्य है। अब आपके पुत्र हो चुका है अब जिस प्रकार आपका वाक्य असत्य न हो तैसे ही आप मेरे को धन से बाजार में बेचकर शीघ्र ही विप्र के प्रति दक्षिणा देकर सत्यप्रतिज्ञ हो । तब राजा ने प्रतिज्ञा के पालन के लिये असीम दुःख सहन करते हुए प्रिय पुत्र को और प्यारी पत्नी को काशी में बेच दिया। फिर भी पूरा धन न मिलने से आप स्वयं चौदह भार सुवर्ण के पूरे करने वाले भङ्गी के हाथ में बिक गया हा कष्ट है ।।11।।

(मार्कण्डेय. अ. 8- श्लो. 206-209)

राज्यनाशं सुहृत्त्यागं भार्यातनयविक्रयम् ।

प्रापयित्वापि नो मुक्तश्चाण्डालोयं कृतो नृपः ।।12।।

यस्याग्रेव्रजतः पूर्वं राजानो भृत्यतांगताः ।

स्वोत्तरीयैरकुर्वन्त निरजस्कं महीतलम् ।।13।।

मार्कण्डेय पुराण में रानी तारा ने कहा है कि हरिश्चन्द्र के राज्य को नाश कराकर सुहृदों का त्याग कराकर, स्त्री-पुत्र को बाजार में विक्रय कराकर ऐसी दशा को प्राप्त कराकर भी प्रारब्ध को सन्तोष न हुआ और अन्त में राजा को चाण्डाल वृत्ति वाले के आधीन कर दिया है।।12।।

जिस राजा हरिश्चन्द्र के आगे चलते हुए के पूर्व काल में राजा लोग भृत्यता को प्राप्त हुए अपने ऊपर के वस्त्रों से भूमि को कूड़े कचरे से साफ करते थे आज उसी राजा को कर्मगति ने चाण्डाल बना दिया। हा! प्रारब्ध की अनिवार्य असीम कष्ट गति है ।।13।।

(ब्रह्मवै. पु. उत्तरार्ध. खण्ड. 4- अ. 7- श्लो. 120 )

तृणेन पर्वतं हन्तुं शक्तो धाता च दैवतः ।

कीटेन सिंहशार्दूलं मशकेन गजं तथा ।।14।।

ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा है कि विधाता दैवकर्म के प्रभाव से तृण से पर्वत को हनन कराने में समर्थ है, कीट से सिंह और शार्दूल को और मच्छर से हस्ती को हनन कराने में समर्थ है।।14।।

(अध्यात्मरामा काण्ड. 2-सर्ग. 6-श्लो. 6-15)

सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता परो ददातीति कुबुद्धिरेषा ।

अहं करोमीति वृथाभिमानः स्वकर्मसूत्रग्रथितो हि लोकः ।।15।।

तस्माद्धैर्येण विद्वांस इष्टानिष्टोपपत्तिषु ।

न हृष्यन्ति न मुह्यन्ति सर्व मायेति भावनात् ।।16।।

आध्यात्म रामायण में कहा है कि श्रीरामचन्द्र परमानन्द को तृणों के ऊपर शयन करते को देखकर निषाद राजा ने कहा अहो कष्ट कैकेयी के वश होकर राजा ने रामचन्द्रजी को कैसा कष्ट दिया है तब लक्ष्मण ने कहा हे निषाद सुख दुःख का दूसरा कोई भी देने वाला नहीं है पुरुष की यह शुभ – अशुभ बुद्धि ही पुण्य पाप द्वारा सुख-दुःख को देने वाली है मैं कर्त्ता हूँ ऐसा अभिमान करना व्यर्थ है क्योंकि प्राणी अपने कर्म रूप सूत्र से बंधा हुआ है दूसरे को सुख-दुःख क्या दे सकता है ।।15।।

इस हेतु से विद्वान पुरुष धैर्य करके इष्ट-अनिष्ट की प्राप्ति होने पर हर्ष मोह को प्राप्त नहीं होते हैं क्योंकि उसने सर्व संसार को माया रूप और मिथ्या निश्चय कर लिया है ।।16।।

(गरुड़पु. खण्ड. 1-अ. 11-श्लो. 8)

अवश्यं भावि भावानां प्रतिकारो भवेद्यदि ।

तदा दुःखैर्न युज्येरन्नलरामयुधिष्ठिराः ।।17।।

गरुड़ पुराण में कहा है कि अवश्य ही होने वाले भावी कर्म की यदि निवृत्ति हो सकती तो नल राजा, श्रीरामचन्द्र, युधिष्ठिर बुद्धि के सागर महान् दुखों से युक्त क्यों होते। परन्तु तीव्र प्रारब्ध का नाश भोगने से ही होता है ऐसा श्रुति कहती है ।।17।।

( महाभा. पर्व. 3-अ. 27 – श्लो. 36 )

नूनं च तव वैनास्ति मन्युर्भरतसत्तम ।

यत्ते भातृ॑श्च मां चैव दृष्ट्वा न व्यथते मनः ।।18।।

(महाभा. पर्व. 3-अ. 29 – श्लो. 14)

मन्योर्हि विजयं कृष्णे प्रशंसन्तीह साधवः ।

क्षमावतो जयो नित्यं साधोरिह सतां मतम् ।।19।।

महाभारत में द्रौपदी ने कहा है कि हे भरतकुल श्रेष्ठ युधिष्ठिर क्रोधहीन क्षत्रिय मैंने आज तक न देखा न सुना था। आज आपको नेत्रों से देख लिया है क्योंकि आपको निश्चय ही कभी भी क्रोध नहीं आता है जो आपका मन दीन भ्राताओं को और मेरे को देखकर व्यथित नहीं होता है। हे राजन् आपके क्षमा रूप व्रत ने इन्द्र के समान बलवाले भीमसेन अर्जुन को हम सर्व को भिक्षु बना दिया है अब आगे को आपकी क्रोधहीनता और क्षमावंतता न जाने हमारी क्या दशा करेंगी ।।18।।

तब युधिष्ठिर ने शान्तिकारक धर्मयुक्त बचनों से कहा कि हे द्रौपदी इस कल्याणकारी मनुष्य देह में क्रोध के विजय करने की ही साधु महात्मा प्रशंसा करते हैं क्योंकि सर्व शास्त्रों में क्रोधजित क्षमा वाले साधु महात्मा की ही सर्वदा जय होती है और यही श्रेष्ठ महात्माओं का मत है क्योंकि भृगु के लात मारने पर त्रिलोकीनाथ विष्णु जितक्रोध और क्षमा व्रत के प्रभाव से सर्व देवताओं में अधिक पूजनीय सर्व ऋषियों द्वारा माने गये हैं इस हेतु से जित क्रोध क्षमा व्रत करके मैं सर्व को जीतना चाहता हूँ ।।19।।

( महाभा. पर्व. 3-अ. 31 – श्लो. 24)

धर्म एवं ल्पवो नान्यः स्वर्गं द्रौपदि गच्छताम् ।

सैव नौः सागरस्येव वणिजः पारमिच्छतः ।।20।।

(महाभा. पर्व, 7-अ. 71 – श्लो. 19 )

शोचतो हि महाराज अघमेवाभिवर्धते ।

तस्माच्छोकं परित्यज्य श्रेयसे प्रयतेदुधः ।।21।।

महाभारत में कहा है कि हे द्रौपदि जैसे सागर के पार जाने की इच्छा वाले वणिक

व्यापारियों को नौका ही एक साधन है तैसे ही स्वर्ग को जाने की इच्छा वाले पुरुषों को धर्म ही एक नौका है और कोई दूसरा साधन स्वर्ग की प्राप्ति का नहीं है। सत्य भाषण से धर्म उत्पन्न होता है, दानादि से धर्म बढ़ता है, अक्रोध क्षमादि से धर्म स्थिर रहता है और क्रोध से धर्म नाश हो जाता है इससे अक्रोध क्षमा ही धर्म का मुख्य साधन है ।।20।।

अभिमन्यु की मृत्यु के शोक से मूर्छित हुए युधिष्ठिर को उठकर व्यासजी ने कहा राजन्! शोक से पापों की वृद्धि होती है तिस हेतु से बुद्धिमान् शोक को त्यागकर अपने कल्याण के लिये प्रयत्न करें ।।21।।

(याज्ञस्मृ. अ. 3-श्लो. 11 )

श्लेष्माश्रु बान्धवैर्मुक्तं प्रेतो भुङ्क्ते यतोऽवशः ।। 22।।

अतो न रोदितव्यं हि क्रिया कार्या स्वशक्तितः ।। 22।।

और याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा है कि प्रिय बन्धु की मृत्यु हो जाने पर रोते हुए सम्बन्धियों के मुखनेत्रों से जो श्लेष्म और आँसू गिरते हैं तिनको वो मृतक परवश हुआ प्रेत होकर खाता है इस कारण से मरे हुए के निमित्त रुदन करना योग्य नहीं है । मरे हुए बन्धु की शास्त्रविधि से स्वशक्ति के अनुसार क्रिया ही करवाना योग्य है ।।22।।

(अध्यात्मरामा काण्ड. 1अ. 7 श्लो. 98)

निःसारे खलु संसारे वियोगो ज्ञानिनां यदा ।

भवेद्वैराग्यहेतुः स शान्तिं सौख्यं तनोति च ।। 23।।

अध्यात्म रामायण में कहा है कि पिता की मृत्यु से और श्री रामचन्द्रजी के वियोग रूप दावानल से दग्ध होते हुए भरत को अमृतवाक्यवृष्टि से सिंचन करते हुए वसिष्ठजी कहते हैं कि इस निःसारसंसार में ज्ञानी विचारशील पुरुषों को जब प्रिय बन्धुओं का वियोग होता है सो वियोग वैराग्य का हेतु हैं और सोही वैराग्य तीव्र होने पर पुरुष को शान्ति और जीवनमुक्ति सुख को विस्तार करने वाला होता है ।। 23।।

(रघु. सर्ग. 8-श्लो. 88)

अबगच्छति मूढचेतनः प्रियानाशं हृदि शल्यमर्पितम् ।

स्थिरधीस्तदेव मन्यते कुशलद्वारतया समुद्धृतम् ।।24।।

स्वशरीरशरीरिणावपि श्रुतसंयोगविपर्वयौयदा ।

विरहः किमिवानुतापयेद्वद बाही विषयैर्विपश्चितम् ।।25।।

रघुवंश में कहा है कि इन्दुमती रानी की मृत्यु से राजा अज के अधीर होने पर वसिष्ठजी ने यह शिक्षा शिष्य द्वारा दी कि हे राजन् ! संसार में अज्ञानी और ज्ञानी दो प्रकार के पुरुष होते हैं। इसमें अज्ञानी मूढ़ पुरुष प्रियबन्धु आदि के नाश होने पर हृदय में शल्यकारी वाण के समान दुःख को प्राप्त होते हैं और स्थिर बुद्धिवाला ज्ञानी पुरुष तिस प्रियबन्धुनाश को कल्याणारी मानकर मोहकारी वेदना से अपने को रहित जानकर आनन्दित होता है। 112411

यदि अति सम्बन्धी प्रिय स्वशरीर का और जीवात्मा का शास्त्रों में संयोग-वियोग सुना जाता है तो हे राजन् ! कहो बुद्धिमान् पुरुष को बाह्य विषय से वियोग क्या तापका हेतु हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता ।।25।।

(महाभा. पर्व. 7-अ. 59 श्लो. 1-22 )

रामं दशरथिं चैव मृतं सृजय शुश्रुम ।

यं प्रजा अन्वमोदन्त पिता पुत्रानिवौरसान् ।।26।।

सर्वभूतमनः कान्तो रामो राज्यमकारयत् ।

रामो रामो राम इति प्रजानामभवत्कथा ।।27।।

महाभारत में कहा है कि पुत्र मृत्यु के शोक से तपे संजय राजा को नारदजी सुधावाक्यवृष्टि से सिंचन करते हुए कहते हैं कि हे सृजय ! दशरथ के पुत्र श्रीरामचन्द्र परमानन्द कौशलचन्द्र को भी हमने मृत्यु को प्राप्त हुए सुना है जिस रामचन्द्रजी को देखकर प्रजा ऐसे आनन्दित होती थी जैसे पिता अपने औरस पुत्रों को देखकर अति आनन्दित होता है ।।26।।

सर्वभूत प्राणियों के मन को आनन्द से पूर्ण करते हुए श्री रामचन्द्र राज्यपालन करते भये। जिस श्रीरामचन्द्रजी की धर्मकारी प्रजा के मुख से राम राम ये ही सर्वदा कथा होती थी और हे राजन् जिस श्रीरामचन्द्र ने भूमि हतराक्षस कर दी थी सो राम भी शरीर की अनित्यता को दिखलाते हुए परलोक पधार गये हैं ।।27।।

(महाभा. पर्व. 7-अ. 72 श्लो. 72)

माशुचः पुरुषव्याघ्र पूर्वैरेव सनातनः ।

धर्मकृद्भिः कृतो धर्मः क्षत्रियाणां रणेक्षयः ।।27।।

महाभारत में कृष्णचन्द्र ने अर्जुन से कहा हे पुरुष श्रेष्ठ अभिमन्यु शूरवीर का महारथियों से रक्ष में मारे हुए का शोक न करो क्योंकि पूर्वज धर्म स्थापक महात्माओं ने यह सनातन धर्म नियत कर दिया है कि क्षत्रियों की रण में मृत्यु होना श्रेष्ठ है ।।28।।

( महाभा. पर्व 8-अ. 69- श्लो. 33 )

विवाहकाले रतिसंप्रयोगे प्राणात्यये सर्वधनापहारे ।

विप्रस्य चार्थे ह्यनृतं वदेत पंचानृतान्याहुरपातकानि ।।29।।

महाभारत में कहा है कि द्रोणाचार्य का प्रण था कि अश्वत्थामा की मृत्यु सुनकर मैं युद्ध न करूँगा तब कृष्णचन्द्र ने युधिष्ठिर से कहा कि आप द्रोणाचार्य को सुना कर कहो कि ‘अश्वत्थामा हत’ धर्म पुत्र ने कहा मिथ्या भाषण से महापाप होता है । तब कृष्णचन्द्रजी ने कहा कि विवाह काल में, रतिकाल में, प्राण जाने पर, सर्व धन नाश होने पर और ब्राह्मण की रक्षा के लिए असत्य भाषण का दोष नहीं है यह पाँच असत्य भाषण पापजनक नहीं हैं। तब युधिष्ठिर ने कहा ‘अश्वत्थामा हतो नरो वा गजो वा’ ऐसा सुनकर द्रोणाचार्य शक्तिहीन होकर युद्ध से उपरत हो गये ।। 29।।

(महाभा. पर्व. 8-अ. 69 श्लो. 81 )

यदा मानं लभते माननार्हस्तदा स वै जीवति जीवलोके ।

यदावमानं लभते महान्तं तदा जीवन्मृत इत्युच्यते सः ।।30।।

कर्णबाण से पीड़ित युधिष्ठिर ने कहा हे अर्जुन ! आपने कहा था कि मैं एक क्षण में त्रिलोकी को नाश कर सकता हूँ आज तक कर्ण का ही नाश न हुआ तो गाण्डीव धनुष को गेर दो । अर्जुन का प्रण था कि जो कहे कि गाण्डीव धनुष्य गेर दो ऐसे कहने वाले का शिर काट देना। इसी प्रण के अनुसार ही अर्जुन युधिष्ठिर का सिर काटने लगे तब कृष्णचन्द्रजी ने कहा हे अर्जुन ! आपको यह ज्ञान नहीं है किसको कैसे मारा जाता है, युधिष्ठिर जैसे धर्मात्मा पूजनीय को शस्त्र से मारना उचित नहीं है क्योंकि माननीय पुरुष जब मान को प्राप्त होता है तब इस लोक में वो अपने को जीवित मानता है।

और जब वो ही माननीय पुरुष किसी महान अपमान को प्राप्त होता है तब जीता ही अपने को मरे के समान जानता है। तब अर्जुन ने युधिष्ठिर से कहा कि आप तो युद्ध में बहुत पीछे रहने वाले हो, युद्ध को क्या जान सकते हो, युद्ध को तो भीम अथवा मैं ही जान सकता हूँ। इस प्रकार के तिरस्कारी बचनों से अर्जुन ने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की। यह सुन? युधिष्ठिर ने कहा है अर्जुन! इन अपशब्दों के कहने से तो शस्त्र से मार देता तो अच्छा था ।।30।।

(शिवपु. संहिता 3-अ. 28 – श्लो. 11 )

स्वामिन्देहि यतः स्थानं विमुखं कुरु मातिथिम |

गृहधर्मविचार्यत्वमन्यथा धर्मसंक्षय ।।31।।

(महाभा. पर्व 3-अ. 61-श्लो. 16)

वयमक्षाः सुदुर्बुद्धे तव बासो जिहीर्षवः ।

आगता न हि नः प्रीतिः सवाससि गते त्वयि ।।32।।

शिवपुराण में कहा है कि एक भील वन में स्त्री सहित कुटी बनाकर रहते थे। एक दिन यति ने सायंकाल में आकर कहा कि मेरे को एक रात्रि का विश्राम दें, भील ने कहा दो मूर्ति के बास से अधिक हमारे पास वास स्थान नहीं है। तब भीलनी ने कहा हे पति स्वामिन् ! यति को स्थान देओ अतिथि को निराश न करो।

आप ग्रहस्थ धर्म को विचारें अन्यथा करने से धर्म का नाश होता है। यह सुन भील यति को कुटिया में वास देकर आप बाहर रहकर सिंह से मारा गया, तब भीलनी भी पति के साथ चित्ता में दग्ध हो गई परन्तु इस विश्रामदान के बल से भील नल राजा हुए और भीलनी दमयन्ती रानी हुई और यति ने हंस होकर दोनों का सम्बन्ध कराया ।।31।।

महाभारत में कहा है जब द्यूत (जुये) में राज्य हार कर पुष्कर भ्राता से नल राजा एक वस्त्र देकर पुर से बाहर निकाले गये तब तीन दिन के भूखे नल ने पक्षी रूपधारी पक्षियों पर धोती गेरकर पकड़ना चाहा। तब पक्षियों ने धोती ले जाते हुए कहा कि हे दुर्बुद्धि नल ! हम तेरे वस्त्रों को हरने की इच्छा से आये हुए पास हैं तुम्हारे को एक वस्त्र के सहित पुर से बाहर निकलते हुए देखकर भी हमको तोष नहीं आया था।

अब तुम्हारा वस्त्र छीनकर तुम को नम करने से कुछ तोष आया है क्योंकि जो हमारा (जुओं का) संग करके भी सवस्त्र रह जाय तो हमारे को लज्जा आती है। तब नग्न हुए नल सोती हुई दमयन्ती का अर्ध वस्त्र छेदन कर चल दिये और जैसे कैसे भी प्रारब्ध का कष्ट भोगता हुआ अयोध्या में ऋतुपर्ण राजा के अश्वपाल होकर रहा ।।32।।

(ऋ. मण्डल 10. सू. 34-मं. 10)

जाया तप्यते कितवस्य हीना माता पुत्रस्य चरतः क्वस्वित् ।

ऋणावा विभ्यद्धनमिच्छमानोऽन्येषामस्तमुपनक्तमेति ।।33।।

( महाभा. पर्व. 3-अ. 69-श्लो. 37 )

क्व नु त्वं कितवच्छित्वा वस्त्रार्थं प्रस्थितो मम ।

उत्सृज्य विपिने सुप्तामनुरक्तां प्रियां प्रिय ।।34।।

ऋग्वेद में कहा है कि द्युत खेलने वालों की स्त्री शोक से तप्त रहती है और पुत्रवती माता भी पुत्र के धन हारकर कहीं जाने पर पुत्र के दुष्ट आचरण से तप्त रहती है और द्यूत खेलने वाला ऋण के भय से धन की इच्छा से दूसरों के घर में रात्रि को धन चुराता पकड़ा हुआ महाकष्ट को पाता है। अहोकष्ट है द्यूत क्रीड़ा का असीम दुःख ।।33।।

महाभारत में कहा है कि पतिहीन दमयन्ती कष्ट पाती हुई जैसे-कैसे भी अपने पिता भीम के जाकर नल राजा की खोज के लिये धन का लोभ देकर एक ब्राह्मण को नल राजा की परीक्षा करने का पत्र लिखकर दिया कि ‘अहो कष्ट है- द्यूतब्यसनी आप मेरे अर्ध वस्त्र को छेदन करके घोर वन में सोती हुई को आप में प्रीति वाली को छोड़कर हे प्यारे प्राणनाथ आप कहाँ चले गये’ इस दमयन्ती के पत्र को फिरते-फिरते ब्राह्मण ने अयोध्या में जाकर सुनाया और कहा कि अमुक दिन दमयन्ती का स्वयंबर है जिस राजा को जाना हो सो जाये ।।34।।

( महाभा. पर्व. 3-अ. 70 – श्लो. 10-11 )

विषमस्थेन मूढ़ेन परिभ्रष्टसुखेन च ।

यत्सा तेन परित्यक्ता तत्र न क्रोद्धुमर्हति ।।35।।

प्राणयात्रां परिप्रेप्सोः शकुनैर्हृतवाससः ।

आधिभिर्दह्यमानस्य श्यामा न क्रोद्धुमर्हति ।।36।।

ऐसे दमयन्ती के पत्र को सुनकर नल ने उत्तर पत्र लिखकर दिया कि ‘तिस मूढ़, सर्व सुखों से नष्ट हुए कष्ट में मन हुए ने यदि उस प्यारी श्यामा को त्याग दिया तो भी तिस पति पर कुलीन स्त्री को क्रोध करना योग्य नहीं ।13511 प्राण मात्र की रक्षा चाहने वाला और पक्षियों से हरण किया गया है वस्त्र जिसका ऐसे मानसी दुःखों से दह्यमान पति के ऊपर शुभगुणसम्पन्न श्यामा स्त्री को क्रोध करना उचित नहीं है ऐसा पत्र लिखकर ब्राह्मण को दे दिया। ।।36।।

( महाभा. पर्व. 3-अ. 71 – श्लो. 31 )

प्रच्छन्ना हि महात्मानश्चरन्ति पृथिवीमिमाम् ।

दैवेन विधिना युक्ताः शास्रोक्तैश्च निरूपणैः ।।37।।

( महाभा. पर्व. 3- अ. 72 श्लो. 8)

सर्वः सर्वं न जानाति सर्वज्ञो नास्ति कश्चनः ।

नैकत्र परिनिष्ठाऽस्ति ज्ञानस्य पुरुषे क्वचित् ।।38।।

तब अयोध्या के राजा ऋतुपर्ण ने दमयन्ती का स्वयंवर सुनकर अपने सारथियों से कहा कि कोई ऐसा सारथी है जो एक दिन में भीम राजा के पुर में मेरे को पहुँचा दे तब नल ने कहा यदि घोड़े अच्छे हों तो मैं पहुँचा सकता हूँ। राजा ने नल को सर्व हृष्ट-पुष्ट घोड़े दिखलाये। नल ने सर्व को छोड़कर शुभ जाति के कृश घोड़ों को देखकर के कहा इनको उठाकर जोड़ो राजा ने उठाकर जुतवाये।

नल ने राजा से कहा आप सावधान होकर बैठ जायें। तब राजा ने वायु के समान रथ का वेग देख कर विचारा कि महान् शक्तियुक्त पुरुष प्रारब्ध के वश से शास्त्र – उक्त विधियों से युक्त इस संसार में छिपे हुए विचरते हैं न जाने यह सारथी नल राजा ही हों ।।37।।

राजा ने कहा हे सारथी ! सर्व लोग सर्व विद्या के ज्ञाता नहीं होते हैं क्योंकि ईश्वर से बिना कोई सर्वज्ञ नहीं है, सर्व ज्ञान की किसी एक पुरुष में स्थिति नहीं हो सकती है। मैं भी गणनाविद्या के प्रभाव से वृक्षों के फल पत्रों को गिन सकता हूँ। तब किसी आमले के फल पत्रों की गणना से परीक्षा कर नल ने ऋतुपर्ण से गणनाविद्या ली और भीम के पुर में जाकर दमयन्ती की परीक्षा से नल राजा के प्रसिद्ध होने पर ऋतुपर्ण नल से अश्वविद्या लेकर अयोध्या को चले गये। नल राजा भी प्रारब्ध के असीम दुःख को भोगकर राज्य को प्राप्त हो गये । अस्तु तीव्र प्रारब्ध का भोगने से ही नाश कहा है ।।38।।

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