पुत्र का निरूपण
पुन्नाम्रो नरकाद्यस्मात्पितरं त्रायते सुतः ।
तस्मात्पुत्र इति प्रोक्तः स्वयमेव स्वयंभुवा ।।1।।
महता सुकृतेनापि संप्राप्तस्य दिवि किल ।
अपुत्रस्यामराः स्वर्गे द्वारं नोद्घाटयन्ति हि ।।2।।
प्रथम अध्याय में स्त्री का कथन करा अब द्वितीय अध्याय में पुत्र का निरूपण करतेहैं।
महाभारत में कहा है कि जिस कारण से पुंनामक नरक से पुत्र पिता की रक्षा करता है। तिस कारण से स्वयं स्वयंभू भगवान् ने इस लोक में सेवा-शुश्रूषा और परलौकिक पिण्डक्रिया कर्म – धर्म रूप से जो पिता के हित में बर्तता है उसको पुत्र कहा है ।।1।।
ऐसे पुत्र से रहित पुरुष को महान् पुण्य से देवलोक में प्राप्त होए को भी निश्चित ही देवता लोग स्वर्ग में प्रवेश करने के लिये द्वार को नहीं खोलते हैं और श्रुति में कहा है कि पुत्रहीन पुरुष को परलोक की प्राप्ति नहीं होती है और पुत्र के दर्शन करने से पुरुष को महान आनन्द की प्राप्ति होती है ।।2।।
एको हि गुणवान्पुत्रो निर्गुणेन शतेन किम् ।
चन्द्रो हन्ति तमांस्येको न च ज्योतिः सहस्रकम् ।।3।।
अभिवादने दक्षं तं पितॄणां वचने रतम् ।
नाद्याहं यदि पश्यामि का शान्तिर्हृदयस्य मे ||4||
गरुड़पुराण में कहा है कि गुणवान् पुत्र एक भी कुलवर्धक आनन्द कल्याणकारी होता है और गुणहीन धर्म-कर्म से रहित सौ पुत्र भी किस काम के हैं। जैसे चन्द्रमा अकेला ही संसार के सर्व अन्धकारों को नष्ट कर देता है और तारागण हजार भी अन्धकार को नाश नहीं कर सकते हैं ||3||
महाभारत में कहा है कि गुणवान् पितृभक्त अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु को सप्त महारथियों से मारे जाने पर अर्जुन जब सायंकाल को युद्ध से लौटकर आये तब कृष्णचन्द्रजी से पूछते हैं कि हे कृष्णचन्द्र ! आज मेरा चित्त काँपता है न जाने भ्राता युधिष्ठिर का भी शरीर अच्छा होगा या नहीं और भी आज जिस स्थान में मेरे को आते देखकर शूरवीर गर्जनाकर हर्षकारी शब्द सुनाते थे कि आज हमने अमुक को जीता है, अमुक को युद्ध में मारा है आज वे बुलाये से भी नहीं बोलते हैं।
कृष्णचन्द्र ने कहा- आप युधिष्ठिर की चिन्ता न करें। तब जहाँ अभिमन्यु श्रद्धाभक्तिपूर्वक हर्षकारी शब्दों से हजारों शूरवीरों के साथ नमस्कार करा करते थे वहां जाकर अभिमन्यु को न देखकर अर्जुन एकदम अधीर होकर कृष्णचन्द्रजी से कहते हैं भो केशव ! आज मैं जब तक नमस्कार दण्डवत् करने में चतुर बुद्धिमान और पितरों के वचनों में श्रद्धा प्रीति वाले सुपुत्र अभिमन्यु को न देख लेऊंगा तब तक मेरे हृदय को क्या शान्ति होगी। हे कृष्णचन्द्र । यदि हर्षकारी अभिमन्यु सुपुत्र को न देख लेऊंगा तो मैं भी प्राण त्यागकर यमलोक में चला जाऊंगा ऐसे सुपुत्रों का वियोग महान् कष्टकारी होता है ।।4।।
श्रुत्वैतद्दारुणं वाक्यं कैकेय्या रोमहर्षणम् ।
निपपातो महीपालो वज्राहत इवाचलः ||5||
व्यथितः कैकयीं प्राह किं मामेवं प्रभाषते ।
पित्रार्थे जीवितं दास्ये पिबेयं विषमुल्वणम् ||6||
सीतां त्यक्ष्येऽथ कौसल्यां राज्यं चापि त्यजाम्यहम् ।
अनाज्ञप्तोऽपि कुरुते पितुः कार्य स उत्तमः ||7||
उक्तः करोति यः पुत्र स मध्यमो उदाहृतः ।
उक्तोऽपि कुरुते नैव स पुत्रो मल उच्यते ||8||
अध्यात्मरामायण में कहा है कि श्रीरामचन्द्रजी को मुनि वेश पूर्वक चौदह वर्ष का बनवास और भरत को अयोध्या का राज्य यह दो वरदान मेरे को तोषकारी हैं ऐसे कैकेयी के दारूण कष्टप्रद रोमाञ्चकारी वाक्य को सुनकर दशरथ महाराज इन्द्र के वज्रहत पर्वत के समान मूर्छित होकर गिर पड़े ||5||
तब कैकेयी ने सुमंत द्वारा बुलाकर श्री रामचन्द्रजी से कहा हे राम आप यदि पिता की आज्ञा पालन करो तो आपके पिता का जीवन रह सकता है। तब ऐसे असीम कष्टकारी वाक्य से व्यथित हो राम ने कैकेयी को कहा हे माता ! आप क्यों मेरे को ऐसा कहती हो ? पिता के हर्ष के निमित्त मैं प्राण दे सकता हूँ और प्राणहारी भयंकर विष को पी सकता हूँ सीता, कौशल्या तथा राज्य को भी छोड़ सकता हूँ ||6||
हे मातः ! शास्त्रों में सुना है कि तीन प्रकार के पुत्र होते हैं एक तो जो पुत्र पिता की आज्ञा के बिना ही पिता का अभीष्ट कार्य करता है सो उत्तम पुत्र कहा है और जो पुत्र पिता से कहे से भी कार्य नहीं करता है सो पुत्र पापात्मा कनिष्ठ कहा है वो जानो मलरूप ही है। हे मातः ! जो आपने कनिष्ठ पुत्र की संभावना से वाक्य कहे हैं उनसे मेरे को असीम कष्ट हुआ है। क्योंकि धर्मपरायण रघुवंश में उत्पन्न हुआ आज मैं कनिष्ठ पुत्रों की गणना में गिना गया हूँ। हे मातः ! मेरे निमित्त से रघुवंश को कलंकित न करो। पिताजी जो-जो मेरे को आज्ञा देवेंगे सो मैं सर्व करूंगा सत्य कहता हूँ ।।7।।8।।
प्रतिकूलं पितुर्यश्च न सः पुत्रो संता मतः ।
स पुत्रः पुत्रवद्यश्च वर्तते पितृमातृषु ।।9।।
वायु पुराण में कहा है कि पिता की आज्ञा से प्रतिकूल विरुद्ध कार्य करने वाला जो पुत्र है सो श्रेष्ठ शास्रज्ञ महात्माओं के मत में पुत्र नहीं माना जाता है। पुत्र सोई है जो माता पिताओं की आज्ञा में पुत्र के समान पुत्र भाव से वर्तता है माता-पिताओं का अनिष्ट कार्यकारी वेन कंसादि पुत्र नहीं कहे जाते हैं वे जानो पाप ही दुःख देने के लिये पुत्र नाम से प्रकट होते हैं और कल्याणकारी राम जैसे ही पुत्र माने जाते हैं || 9 ||