ब्रह्मविचार रूप आन्तरीय पूजा
देहो देवालयः प्रोक्तः स जीवः केवलः शिवः ।
त्यजेदज्ञाननिर्माल्यं सोऽहं भावेन पूजयेत् ||1||
पूर्व अध्याय में आत्म स्वरूप ब्रह्म में सर्व क्रियाजाल रूप अनात्म प्रपञ्च का निषेध रूप अपवाद कहा। अब द्वितीय अध्याय में आत्मस्वरूप ब्रह्म की प्राप्ति का साधन अद्वैत ब्रह्मविचार रूप आन्तरीय पूजा कहते हैं।
मैत्रेय्योपनिषद् में महादेवजी ने मैत्रेय ब्राह्मण से कहा है कि यह पाञ्चभौतिक देह देवालय रूप है। इस देह देवालय में जीवात्मा केवल प्रकाशस्वरूप शिव देव स्थित है। तिस प्रकाशस्वरूप आत्म शिवरूप अद्वितीय देव को साक्षात् कर अज्ञानरूप निर्माल्य त्याग कर दे और जो सत्यज्ञान आनन्द स्वरूप ब्रह्म है सो मैं हूँ। ऐसे अद्वैत भाव से पूजा करे ||1||
अभेददर्शनं ज्ञानं ध्यानं निर्विषयं मनः |
स्नानं मनोमलत्यागः शौचमिन्द्रियनिग्रहः ||2||
जीव ब्रह्म के अभेद साक्षात्कार रूप दर्शन का नाम ज्ञान है और आत्मा से भिन्न अनात्मरूप प्रपञ्च विषयों से मन के रहित होने का नाम ध्यान है। आत्म ब्रह्म स्वरूप अद्वैत के विचार से मन के पाप रूप मल के त्यागने का नाम स्नान है। और विषयों से इन्द्रियों के निग्रह करने का नाम शौचरूप पवित्रता है ||2||
अहंममेति विण्मूत्रं लेपगन्धादिमोचनम् ।
शुद्धशौचमिति प्रोक्तं मृज्ञ्जलाभ्यां तु लौकिकम् ||3||
देह में अहंता, पुत्र दारादि में ममता यह दो विष्ठा-मूत्र हैं और काम, क्रोध, मोहादि भी जान लेने। चित्त से तिस दुर्गन्ध के लेप का दूर करना ही पवित्र शौच कहा है और जल मृतिका से तो साधारण लौकिक देहशुद्धि कही है ।।3।।
चित्तशुद्धिकरं शौचं वासनात्रयनाशनम् |
ज्ञानवैराग्यमृत्तोयैः क्षालनाच्छौचमुच्यते ||4||
तीन वासना का नाश करना ही चित्त की शुद्धि करने वाला पवित्र शौच है। वह तीन वासना कौन सी है ? तीन वासना यह है देह-वासना, शास्त्र-वासना, लोक-वासना । देह अजर-अमर बना रहे यह देह-वासना है। और सर्व शास्त्रों को पढ़ने की इच्छा का नाम शास्त्र-वासना है। लोगों में मान प्रतिष्ठादि की इच्छा का नाम लोक-वासना है। अथवा पुत्र की इच्छा, धन की इच्छा, मान-पूजादि की इच्छा यह तीन वासना है, इनसे चित्त मलिन है, इन मलों का विवेक, वैराग्य, ज्ञान रूप मृतिका जलों से प्रक्षालन करने से ही पवित्र शौच कहा है ||4||
सर्वभूतस्थितं देवं सर्वेशं नित्यमर्चयेत् ।
आत्मरूपमालोक्य ज्ञानरूपं निरामयम् ||5||
अथ मां सर्वभूतेषु भूतात्मानं कृतालयम् ।
अर्हयेद्दानमानाभ्यां मैत्र्याऽभिन्नेन चक्षुषा ||6||
ब्रह्मविद्योपनिषद में कहा है कि सर्व भूत-प्राणियों में व्यापक रूप से स्थित प्रकाशमान् देव, सर्व के ईश्वर, ज्ञानस्वरूप, सर्व दुःखों से रहित ब्रह्म को अपना आत्मा जानकर अद्वैत भाव से पूजन करे ||5||
भागवत में अद्वैतवादी श्री कपिलदेव भगवान् ने अपनी देवहूति माता से कहा है कि हे मातः ! आत्म ब्रह्मस्वरूप तत्वज्ञान का जिज्ञासुजन अद्वैतवादी सद्गुरु की शिक्षा से मेरे को सर्वभूत-प्राणियों में सर्वभूत-प्राणियों का आत्मस्वरूप होने से सर्व प्राणी कृत- आलय को यथाशक्ति वस्तुदान, मधुर भाषण आदि के दान-मान से और मैत्री, करूणा आदि गुणों से, सर्व में व्यापक आत्मा एक है ऐसी अद्वैतदृष्टि से सच्चिदानंद शुद्ध बुद्ध विभु अक्रिय अविनाशी का सजातीय विजातीय स्वगत रूप त्रिविध भेद से रहित जानकर पूजन करे ||6||
अहिंसा प्रथमं पुष्पं द्वितीयं करणग्रहः ।
तृतीयकं भूतदया चतुर्थं क्षान्तिरेव च ।।7।।
शमस्तु पञ्चमं पुष्पं ध्यानं चैव तु सप्तमम् ।
सत्यं चैवाष्टमं पुष्पमेतैस्तुष्यति केशवः ||8||
पद्मपुराण में कहा है कि ब्रह्मा, विष्णु, शिव के प्रेरक केशव अन्तर्यामी परमात्मा के सन्तोषकारी यह आठ पुष्प हैं। मन वाणी शरीर से किसी भी प्राणी को पीड़ा न देनी यह अहिंसा नाम का प्रथम पुष्प है। इन्द्रियों को विषयों से निग्रह करना यह दम नाम का द्वितीय पुष्प है और सर्व भूत-प्राणियों पर दया करनी यह दया नाम का तृतीय पुष्प है। निर्बल प्राणियों के अपकार करने पर भी क्रोध न कर क्षमा करनी यह क्षमा नाम का चतुर्थ पुष्प है।
विषयों से मन का निग्रह करना यह शम नाम का पाञ्चमा पुष्प है और एव च के ग्रहण से यथालाभ वस्तु में संतोष करना यह संतोष नाम का षष्ठ पुष्प है। धेयाकार चित्त की वृत्ति का करना रूप ध्यान सप्तम पुष्प है और कपट से रहित जैसा देखा है और जैसा सुना है। वैसा सत्य भाषण करणा रूप अष्टम पुष्प है। इन अष्ट पुष्पों द्वारा अन्तर्यामी केशव भगवान् कल्याणकारी सन्तुष्ट होते हैं ||7||8||
ब्रह्मणा चाथ सूर्येण विष्णुनाथ शिवेन च ।
अभेदात्पूजितेन स्यात्पूजितं च चराचरम् ।।9।।
मत्स्यपुराण में कहा है कि ब्रह्मा के साथ सूर्य का सूर्य के साथ विष्णु का अद्वैत रूप अभेद से पूजा करने से और विष्णु के साथ अभेद रूप से शिव का पूजन करने से और गणेश के साथ देवी का अद्वैतरूप अभेद से पूजन करने से सर्व भूतप्राणी चराचर का पूजन हो जाता है। सर्वश्रुति स्मृति पुराणों में जीव ब्रह्म की एकतारूप अद्वैत के निश्चय करने से ही पुरुष को सर्व अनर्थ की निवृत्ति और परमानंद की प्राप्ति रूप मोक्ष की घोषणा करी है। अद्वैत के निश्चय से बिना और कोई संसार में कैवल्यमोक्ष की प्राप्ति का मार्ग नहीं है।।9।।