सत्यनारायण भगवान व्रत कथा

सत्यनारायण भगवान व्रत कथा वर्ष भर में जितनी भी पूर्णमासी (पूनम) होती हैं। इन सभी में सत्यनारायण का व्रत करें, कथा सुनें, प्रसाद ग्रहण करें और एक समय भोजन करें। कभी साल में १३ महीने भी हो जाते हैं। जिसे अधिक मास के नाम से जाना जाता है। इस व्रत को कम से कम एक वर्ष तक जरूर करना चाहिए। तब व्रत का समापन (उद्यापन) करें।

पूजा की सामग्री

केले के खम्भे, आम के पत्ते, पंच पल्लव, सोने की प्रतिमा, कलश, यज्ञोपवित, पंचरत्न, वस्त्र, चावल, कपूर, गुलाब का फूल, धूप, दीप, पुष्पों की माला, तुलसी दल, श्रीफल, पान, ऋतु फल, पंचामृत, दूध, दही, अंग-वस्त्र, घृत, शहद, शक्कर, नैवेद्य, केसर, कलावा, बंदनवार, चौकी।

विधि

सत्यनारायण भगवान का व्रत करने वाला पूर्णिमा व संक्रांति के दिन सायंकाल को स्नान आदि से निवृत्त होकर पूजा-स्थान में आसन पर बैठकर श्रद्धापूर्वक श्री गणेश, गौरी, वरुण आदि सब देवताओं का ध्यान करके पूजन करे और संकल्प करें कि मैं सत्यनारायण स्वामी का पूजन तथा श्रवण करूँगा। पुष्प हाथ में लेकर नारायण का ध्यान करे, यज्ञोपवित, पुष्प, धूप, नैवेद्य आदि से युक्त होकर स्तुति करे- “हे भगवान! मैंने श्रद्धापूर्वक फल, जल आदि सब सामग्री आपको अर्पण की है, इसे स्वीकार कीजिए। मेरा आपको बारम्बार नमस्कार है।” इसके बाद सत्यनारायण की कथा पढ़ें अथवा श्रवण करें।

पहला अध्याय : एक समय नैमिषारण्य

तीर्थ में शौनकादि अट्ठासी हजार ऋषियों ने श्री सूतजी से पूछा- “हे प्रभु! इस कलयुग में वेद- विद्या रहित मनुष्यों को प्रभु-भक्ति किस प्रकार मिलेगी तथा उनका उद्धार कैसे होगा? इसलिए हे मुनिश्रेष्ठ ! कोई ऐसा व्रत कहिए, जिससे थोड़े समय में पुण्य प्राप्त होवे तथा मनवांछित फल मिले, वह कथा सुनने की हमारी इच्छा है।” सर्वशास्त्र ज्ञाता सूतजी बोले-“हे वैष्णवों वे पूज्य! आप सबने सर्व प्राणियों के हित की बात पूछी है। अब मैं उस श्रेष्ठ व्रत को आप लोगो से कहूँगा, जिस व्रत को नारदजी ने लक्ष्मीनारायण से पूछा

एक समय योगीराज नारदजी दूसरों के हित की इच्छा से अनेक लोकों घूमते हुए मृत्युलोक में आ पहुँचे, वहाँ बहुत योनियों में जन्मे हुए प्रायः – सभी मनुष्यों को अपने कर्मों के द्वारा अनेकों दुःखों से पीड़ित देखकर सोचा किस यत्न के करने से निश्चय ही इनके दुःखों का नाश हो सकेगा। ऐसा -इन में सोचकर विष्णु लोक को गए। वहाँ श्वेत वर्ण और चार भुजाओं वाले देवों के ईश नारायण को जिनके हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म थे तथा इरमाला पहने हुए थे, देखकर स्तुति करने लगे- “हे भगवान! आप अत्यंत शक्ति से सम्पन्न हैं, मन तथा वाणी भी आपको नहीं पा सकती, आपका – आदि, मध्य और अंत नहीं है।

निर्गुण स्वरूप सृष्टि के कारण भूत व भक्तों – के दुःखों को नष्ट करने वाले हो। आपको मेरा नमस्कार है।” नारदजी से इस प्रकार की स्तुति सुनकर विष्णु भगवान बोले कि- “हे मुनिश्रेष्ठ ! आपके मन में क्या है? आपका यहाँ किस काम के लिए आगमन हुआ है, निःसंकोच कहो।” तब नारद मुनि बोले- “मृत्युलोक में सब मनुष्य जो अनेक योनियों में पैदा हुए हैं, अपने-अपने कर्मों के द्वारा अनेक प्रकार के दुःखों से दुःखी हो रहे हैं।

हे नाथ! मुझ पर दया रखते हो तो बतलाइए कि उन मनुष्यों के सब दुःख थोड़े ही से प्रयत्न से कैसे दूर हो सकते हैं?” श्री भगवानजी बोले- “हे नारद! मनुष्यों की भलाई के लिए तुमने बहुत अच्छी बात पूछी है। जिस काम के करने से मनुष्य मोह से छूट जाता है, मैं वह कहता हूँ, सुनो-बहुत पुण्य देने वाला स्वर्ग तथा मनुष्य लोक दोनों में दुर्लभ एक उत्तम व्रत है। आज में प्रेमवश होकर तुमसे कहता हूँ। सत्यनारायण का यह व्रत अच्छी तरह विधानपूर्वक करके मनुष्य तुरंत ही यहाँ सुख भोगकर मरने पर मोक्ष को प्राप्त होता है।”

श्री भगवान के वचन सुनकर नारद मुनि बोले कि “उस व्रत का क्या फल है? क्या विधान है और किसने यह व्रत किया है और किस दिन यह व्रत करना चाहिए? विस्तार से कहो।”

भगवान बोले-“दुःख, शोक आदि को दूर करने वाला, धन-धान्य को वाने वाला, सौभाग्य तथा संतान को देने वाला यह व्रत सब स्थानों पर बढ़ानी करने वाला है। भक्ति और श्रद्धा के साथ किसी भी दिन मनुष्य श्री विजनारायण की शाम के समय ब्राह्मणों और बन्धुओं के साथ धर्मपरायण सत्य-पूजा करें। भक्तिभाव से नैवेद्य, केले का खम्ब, घी, दूध और गेहूँ का चूर्ण सवाया लेवे।

गेहूँ के अभाव में साठी का चूर्ण, शक्कर तथा गुड़ लें और सब भक्षण योग्य पदार्थ जमा करके भगवान को अर्पण कर देवें तथा बन्धुओं सहित ब्राह्मणों को भोजन करावें, पश्चात् स्वयं भोजन करें, नृत्य-गीत आदि का आचरण कर सत्यनारायण भगवान को स्मरण करते हुए समय व्यतीत करे, इस तरह व्रत करने पर मनुष्यों की इच्छा निश्चय ही पूरी होती है। विशेष कर कलि-काल में भूमि पर यही मोक्ष का सरल उपाय है।”

।। इति श्री सत्यनारायण व्रत कथायां प्रथम अध्याय समाप्तम्।।

दूसरा अध्याय

सूतजी बोले- “हे ऋषियों! जिसने पहले समय में इस व्रत को किया है, उसका वृतांत कहता हूँ, ध्यान से सुनो।” सुंदर काशीपुरी नगरी में एक अति निर्धन ब्राह्मण रहता था। वह भूख और प्यास से बेचैन हुआ नित्य ही पृथ्वी पर घूमता था। ब्राह्मणों से प्रेम करने वाले भगवान ने ब्राह्मण को दुःखी देखकर बूढ़े ब्राह्मण का रूप धर उसके पास जाकर आदर के साथ पूछा- “हे विप्र ! नित्य दुःखी हुआ पृथ्वी पर क्यों घूमते हो? हे श्रेष्ठ ब्राह्मण! यह सब मुझसे कहो। मैं सुनना चाहता हूँ।” ब्राह्मण बोला- “मैं बहुत निर्धन हूँ, भिक्षा के लिए पृथ्वी पर फिरता हूँ।

हे भगवान! यदि आप इसका उपाय जानते हों, तो कृपा कर कहो।” वृद्ध ब्राह्मण बोला कि – “सत्यनारायण भगवान मनवांछित फल को देने वाले हैं। इसलिए हे ब्राह्मण! तू उनका पूजन कर, जिसके करने से मनुष्य सब दुःखों से मुक्त होता है।” ब्राह्मण को व्रत का सारा विधान बतलाकर बूढ़े ब्राह्मण का रूप धारण करने वाले सत्यनारायण भगवान अन्तर्ध्यान हो गए। जिस व्रत को वृद्ध ब्राह्मण ने बतलाया है, मैं उसको करूँगा यह निश्चय करने पर उस ब्राह्मण को नींद भी नहीं आई।

वह सबेरे ही उठ, सत्यनारायण के व्रत का निश्चय कर भिक्षा के लिए चला। उस दिन उसको भिक्षा में बहुत धन मिला, जिससे बन्धु-बाँधवों के साथ उसने सत्यनारायण का व्रत किया। उसके करने से वह ब्राह्मण सब दुःखों से छुटकर अनेक प्रकार की सम्पत्तियों से युक्त हुआ। उस समय से वह ब्राह्मण हर मास व्रत करने लगा। इस तरह नारदजी ने सत्यनारायण का कहा हुआ यह व्रत तुमसे कहा। हे विप्र ! अब मैं और क्या कहूँ।

ऋषि बोले- “हे मुनिश्वर। संसार में इस ब्राह्मण से सुनकर किस-किस ने इस व्रत को किया, हम वह सब सुनना चाहते हैं। इसके लिए हमारे मन मे श्रद्धा है।” सूतजी बोले- “हे मुनियों। जिस जिसने इस व्रत को किया है, वह सब सुनो।” एक समय वह ब्राह्मण धन और ऐश्वर्य के अनुसार बन्धु- बांधवों के साथ व्रत करने को तैयार हुआ, उसी समय एक लकड़ी बेचने वाला बूढ़ा आदमी आया और बाहर लकड़ियों को रखकर ब्राह्मण के मकान में गया। प्यास से दुःखी लकड़हारा उनको व्रत करते देख ब्राह्मण को नमस्कार करके कहने लगा कि- “आप यह क्या कर रहे हैं और इसके करने से क्या फल मिलता है? कृपा करके मुझसे कहो।”

ब्राह्मण ने कहा- “सब मनोकामनाओं को पूरा करने वाला यह सत्यनारायण भगवान का व्रत है, इसकी ही कृपा से मेरे यहाँ धन-धान्य आदि की वृद्धि हुई है।” ब्राह्मण से व्रत के बारे में जानकर लकड़हारा बहुत प्रसन्न हुआ। चरणामृत लेकर, प्रसाद खाने के बाद अपने घर को आया।

लकड़हारे ने मन में इस प्रकार का संकल्प किया कि आज गाँव में लकड़ी बेचने से जो धन मिलेगा, उसी से सत्यनारायण देव का उत्तम व्रत करूँगा। यह मन में विचार कर वह बूढ़ा लकड़हारा, लकड़ियाँ अपने सिर पर रखकर जिस नगर में धनवान लोग रहते थे, ऐसे सुंदर नगर में गया। उस रोज वहाँ पर बूढ़े को उन लकड़ियों का दाम पहले दिनों से चौगुना मिला।

तब वह बूढ़ा लकड़हारा दाम ले और अति प्रसन्न होकर पक्के केले की फली, शक्कर, घी, दुग्ध, दही, गेहूँ का चूर्ण इत्यादि सत्यनारायण भगवान के व्रत की कुल सामग्रियों को लेकर अपने घर गया। फिर उसने अपने भाइयों को बुलाकर विधि के साथ भगवानजी का पूजन और व्रत किया। उस व्रत के प्रभाव से बूढ़ा लकड़हारा धन, धान्य आदि से युक्त हुआ और संसार के समस्त सुख भोगकर बैकुण्ठ को चला गया।

।। इति श्री सत्यनारायण कथायां दूसरा अध्याय समाप्तम्।।

तीसरा अध्याय

सूतजी बोले-“हे श्रेष्ठ मुनियों! कहता हूँ सुनो।” पहले समय में उल्कामुख नाम का एक बुद्धिमान राजा था। है मुनियों अब आगे की कथा कहता हूं वह सत्यवक्ता और जितेन्द्रिय था। प्रतिदिन देव स्थानों में जाता तथा गरीबों को धन देकर उनके कष्ट दूर करता था। उसकी पत्नी कमल के समान मुल काली और सती साध्वी थी। भद्रशीला नदी के तट पर उन दोनों के बाली नारायण देव का व्रत किया। उस समय में वहाँ एक साधु वैश्य आया।

उसके पास व्यापार के लिए बहुत-सा धन था। वह नाव को किनारे पर ठहराकर राजा के पास गया और राजा को व्रत करते हुए देख विनय के साथ पूछने लगा-“हे राजन! भक्तियुक्त चित्त से यह आप क्या कर रहे हैं? मेरी सुनने की इच्छा है। सो यह आप मुझे बताइए।” राजा बोला- “हे साबु अपने बन्धुओं के साथ पुत्रादि की प्राप्ति के लिए यह महाशक्तिमान सत्यनारायण भगवान का व्रत व पूजन किया जा रहा है।” राजा के वचन सुनकर माघ आदर के साथ बोला- “हे राजन! मुझसे इसका सब विधान कहो, मैं भी आपके कथनानुसार इस व्रत को करूँगा।

मेरे भी कोई संतान नहीं है और इससे निश्चय होगी।” राजा से सब विधान सुन व्यापार से निवृत्त हो वह आनंद के साथ घर गया। साधु ने अपनी स्त्री को संतान देने वाले उस व्रत का समाचार सुनाया और कहा कि- “जब मेरे संतान होगी, तब मैं इस व्रत को करूँगा।” एक दिन उसकी स्त्री लीलावती पति के साथ आनंदित हो सांसारिक धर्म में प्रवृत्त होकर सत्यनारायण भगवान की कृपा से गर्भवती हो गई तथा दसवें महीने में उसने एक सुंदर कन्या को जन्म दिया। दिनों-दिन वह इस तरह बढ़ने लगी, जैसे शुक्ल पक्ष का चंद्रमा बढ़ता है।

कन्या का नाम कलावती रखा गया। तब लीलावती ने मीठे शब्दों में अपने पति से कहा कि- “आपने जो संकल्प किया था, भगवान का व्रत करूँगा, अब आप उसे पूर्ण करिए।” साधु बोले- “हे प्रिये! अब उसे इसके विवाह पर करूँगा।” इस प्रकार अपनी पत्नी को आश्वासन दे वह नगर को गया। कलावती पितृ गृह में वृद्धि को प्राप्त हो गई। साधु ने जब नगर में सखियों के साथ अपनी पुत्री कलावती को देखा तो तुरंत ही दूतों को बुलाकर कहा कि- “पुत्री के वास्ते कोई सुयोग्य वर देखकर लाओ।” साधु की आज्ञा पाकर दूत कंचन नगर पहुँचा और वहाँ पर बड़ी खोज और देखभाल कर लड़की के लिए सुयोग्य वणिक पुत्र को ले आया।

उस सुयोग्य लड़के को देखकर साधु ने अपने बन्धु-बांधवों सहित प्रसन्नचित्त अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर दिया, किन्तु दुर्भाग्य से विवाह के समय भी उस व्रत को करना भूल गया। तब श्री भगवान क्रोधित हो गए और श्राप दिया कि “तुम्हें दारुण-दुःख प्राप्त होगा।” अपने कार्य में कुशल साधु बनिया अपने जामाता सहित समुद्र के समीप स्थित रत्नपुर नगर में आया और वहाँ दोनों समुर-जमाई चंद्रकेतु राजा के नगर में व्यापार करने लगे।

एक रोज भगवान सत्यनारायण की माया से प्रेरित कोई चोर राजा का धन चुराकर भागा जा रहा था, किन्तु पीछे से राजा के दूतों को आता देखकर चोर ने घबराकर भागते हुए राजा के धन को वहीं चुपचाप रख दिया, जहाँ वे दोनो ससुर जमाई ठहरे हुए थे। जब दूतों ने साधु वैश्य के पास राजा के धन को रखा देखा, तो दोनों को बाँधकर ले गए और प्रसन्नता से दौड़ते हुए राजा के समीप जाकर बोले-“यह दो चोर हम पकड़ लाए हैं, देखकर आज्ञा दे।”

तब राजा की आज्ञा से उनको कठिन कारावास में डाल दिया और उनका धन छीन लिया गया। सत्यनारायण भगवान के श्राप द्वारा उनकी पत्नी भी घर पर बहुत दुःखी हुई और घर पर जो धन रखा था, चोर चुराकर ले गए। शारीरिक व मानसिक पीड़ा तथा भूख प्यास से अति दुःखित हो अन्न की चिंता में कलावती एक ब्राह्मण के घर गई। वहाँ उसने सत्यनारायण भगवान का व्रत होते देखा, फिर कथा सुनी तथा प्रसाद ग्रहण कर रात को घर आई। माता ने कलावती से कहा- “हे पुत्री! अब तक कहाँ रही व तेरे मन में क्या है?”

कलावती बोली- “हे माता! मैंने एक ब्राह्मण के घर श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत देखा है।” कन्या के वचन सुनकर लीलावती, सत्यनारायण भगवान के पूजन की तैयारी करने लगी। लीलावती ने अपने परिवार और बन्धुओं सहित श्री सत्यनारायण भगवान का पूजन किया और यह वर माँगा क- “मेरे पति और दामाद शीघ्र ही आ जावे। साथ ही प्रार्थना की कि हम सबका अपराध क्षमा करो।”

श्री सत्यनारायण भगवान इस व्रत से संतुष्ट हो गए और राजा चंद्रकेतु को स्वप्न में दिखाई दिए और कहा- “हे राजन! दोनो वेश्यों को प्रातः ही छोड़ दो और उनका सब धन जो तुमने ग्रहण किया है दे दो, नहीं तो तुम्हारा धन, राज्य, पुत्रादि सब नष्ट कर दूँगा।” राजा से ऐसा वचन कहकर भगवान अन्तर्ध्यान हो गए। प्रातःकाल राजा चंद्रकेतु ने समा में अपना स्वप्न सुनाया, फिर दोनों वणिक पुत्रों को कैद से मुक्त कर सभा में बुलाया।

दोनों ने आते ही राजा को नमस्कार किया। राजा मीठे वचन से बोला-“हे महानुभावों! भावोवश ही ऐसा कठिन दुःख प्राप्त हुआ है, अब तुम्हें कोई भय नहीं।” ऐसा कहकर राजा ने उनको नए-नए वस्त्राभूषण पहनवाए तथा उनका जितना धन लिया, उससे दुगुना धन देकर आत सहित विदा किया। दोनों वैश्य अपने घर को चल दिए।

।। इति श्री सत्यनारायण व्रत कथायां तृतीय अध्याय समाप्तम्।।

चौथा अध्याय

सूतजी बोले-वैश्य ने मंगलाचार करके यात्रा आरमम की और अपने नगर को चला। उनके थोड़ी दूर निकलने पर दण्डी वेशधार सत्यनारायण ने उनसे पूछा- “हे साधु! तेरी नाव में क्या है?” अभिमान वणिक हँसता हुआ बोला- “हे दण्डी! आप क्यों पूछते हो? क्या धन लेन की इच्छा है? मेरी नाव में तो बेल तथा पत्ते आदि भरे हैं।” वैश्य का कटोर वचन सुनकर भगवान ने कहा- “तुम्हारा वचन सत्य हो।”

दण्डी ऐस कहकर वहाँ से चले गए और कुछ दूर जाकर समुद्र के किनारे बैठ गए दण्डी के जाने के बाद वैश्य ने नित्य क्रिया करने के बाद नाव को ऊँची उटी देखकर अचम्भा किया तथा नाव में बेल तथा पत्ते देखकर मूच्छित हो जमीन पर गिर पड़ा। फिर मूर्च्छा खुलने पर अत्यंत शोक करने लगा। तब उसका दामाद बोला कि – “आप शोक न करे, यह दण्डी का श्राप है। अतः उनकी शरण में चलना चाहिए, तभी हमारी मनोकामना पूरी होगी।”

दामाद के वचन सुन वह दण्डी के पास पहुँचा और अत्यंत भक्तिभाव से नमस्कार करके बोला- “मैंने जो आपसे असत्य वचन कहे थे, उनको क्षमा करो।” ऐसा कहकर महान शोकातुर हो रोने लगा, तब दण्डी भगवान बोले- “हे वणिक पुत्र ! मेरी आज्ञा से बार-बार तुम्हें दुःख प्राप्त हुआ है, तू मेरी पूजा से विमुख हुआ है।” साधु बोला- “हे भगवान! आपकी माया से मोहित ब्रह्मा आदि भी आपके गुण रूप को नहीं जानते, तब मैं अज्ञानी कैसे जान सकता हूँ।

आप प्रसन्न होइए, मैं सामर्थ्य के अनुसार आपकी पूजा करूँगा, मेरी रक्षा करो और पहले के समान नौका में धन भर दो।” उसके भक्तियुक्त वचन सुनकर भगवान प्रसन्न हुए, उसकी इच्छानुसार वर देकर अन्तर्ध्यान हो गए। तब उन्होंने नाव पर आकर देखा कि नाव धन से परिपूर्ण है। फिर वह भगवान सत्यनारायण का पूजन कर साथियों सहित अपने नगर को चला। जब अपने नगर के निकट पहुँचा, तब दूत को घर भेजा। दूतों ने साधु के घर जा उसकी स्त्री को नमस्कार कर कहा कि “साधु अपने दामाद सहित इस तासकी समीप आ गए हैं।”

ऐसा सुनकर साधु की स्त्री ने हर्ष के साथ सत्यनारायण का पुत्री से कहा- “मैं अपने पति के दर्शन को जाती हूँ। तू कार्य पूर्ण कालन काय आ।” माता के ऐसे वचन सुनकर कलावती प्रसाद छोड़ पति के पास आ गई। प्रसाद अवज्ञा के कारण सत्यदेव ने रूष्ट हो, उसके पति को नाव सहित पानी में डुबा दिया। कलावती अपने पति को न देख रोती हुई जमीन पर गिर गई।

इस तरह नौका को डुबा हुआ तथा कन्या को रोती देख साधु दुःखित हो बोला- “हे प्रभु! मुझसे या मेरे परिवार से जो भूल हुई है, उस क्षमा करो।” उसके दीन-वचन सुनकर सत्यदेव प्रसन्न हो गए और आकाशवाणी हुई- “हे साधु ! तेरी कन्या मेरे प्रसाद को छोड़कर आई है, इसलिए इसका पति अदृश्य हुआ है। यदि वह जाकर प्रसाद खाकर लौटे, तो इसे इसका पति अवश्य मिलेगा।” ऐसी आकाशवाणी सुनकर कलावती ने घर पहुँचकर प्रसाद खाया, फिर उसने आकर पति के दर्शन किए। फिर साधु ने बन्धु- बांधवों सहित सत्यदेव का विधिपूर्वक पूजन किया। उस दिन से वह हर पूर्णिमा को सत्यनारायण भगवान का पूजन करने लगा, फिर इस लोक का सुख भोगकर अन्त में स्वर्गलोक को गया।

।। इति श्री सत्यनारायण व्रत कथायां चतुर्थ अध्याय समाप्तम्।।

पाँचवाँ अध्याय

सूतजी बोले- “हे ऋषियो! मैं और भी कथा कहता हूँ, सुनो।” प्रजा पालन में लीन तुंगध्वज नाम का एक राजा था। उनसे भी भगवान का प्रसाद त्यागकर बहुत दुःख पाया। एस समय वन में जाकर वन्य पशुओं को मार बड़ के पेड़ के नीचे आया, वहाँ उसने ग्वालों को भक्ति भाव से बाँधवों सहित सत्यनारायणजी का पूजन करते देखा। राजा देखकर भी अभिमानवश वहाँ नहीं गया और न नमस्कार ही किया।

तब ग्वालों ने भगवान का प्रसाद उसके सामने रखा, तो वह प्रसाद का त्याग कर अपनी सुन्दर नगरी को चला गया। वहाँ उसने अपना सब कुछ नष्ट पाया, तो वह जान गया कि यह सब कुछ भगवान ने किया है। तब वह विश्वास कर ग्वालों के समीप गया और विधिपूर्वक पूजन कर प्रसाद खाया तो सत्यदेव की कृपा से पहले जैसा था, वैसा फिर हो गया।

दीर्घकाल तक सुख भोगकर मरने पर स्वर्ग लोक को गया। जो मनुष्य इस परम दुर्लभ व्रत को करेगा, भगवान की कृपा से उसे धन-धान्य की प्राप्ति होगी। निर्धन धनी और बंदी बंधन से मुक्त होकर निर्भय हो जाएगा। संतानहीनों को संतान प्राप्त होती है तथा सब मनोरथ पूर्ण होकर अंत में बैकुण्ठ धाम जाता है।

जिन्होंने पहले इस व्रत को किया है, उनके दूसरे जन्म की कथा कहता हूँ। वृद्ध शतानन्द ब्राह्मण ने सुदामा का जन्म लेकर मोक्ष पाया। उल्कामुख नाम का राजा दशरथ होकर बैकुण्ठ को प्राप्त हुआ। साधु नाम के वैश्य ने मोरध्वज बनकर अपने पुत्र को आरे से चीरकर मोक्ष को प्राप्त किया। महाराज तुंगध्वज ने स्वयंभू होकर भगवान में भक्तियुक्त हो कर्म कर मोक्ष प्राप्त किया।

।। इति श्री सत्यनारायण व्रत कथायां पंचमो अध्याय समाप्तम् ।।

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FAQs-

1. सत्यनारायण व्रत का महत्व क्या है?

सत्यनारायण व्रत भगवान विष्णु के सत्यनारायण स्वरूप को समर्पित है। यह व्रत शांति, समृद्धि और खुशहाली लाने में सहायक होता है। इसे करने से मनोकामनाएं पूरी होती हैं और जीवन की बाधाएं दूर होती हैं।

2. सत्यनारायण व्रत किस दिन करना चाहिए?

यह व्रत आमतौर पर पूर्णिमा (पौर्णिमा) या संक्रांति के दिन किया जाता है। इसे जन्मदिन, वर्षगांठ, या नए कार्य की शुरुआत जैसे विशेष अवसरों पर भी किया जा सकता है।

3. सत्यनारायण पूजा के लिए आवश्यक सामग्री क्या है?

पूजा के लिए निम्नलिखित सामग्री की आवश्यकता होती है:
केले का तना और पत्ते
आम के पत्ते
तुलसी के पत्ते
चावल, घी, शहद, दूध, दही और चीनी (पंचामृत के लिए)
फल और मिठाई
अगरबत्ती, दीया, कपूर और फूल
एक कलश (पवित्र घड़ा)
लकड़ी की चौकी (वेदी)
लाल या पीला कपड़ा

4. सत्यनारायण पूजा में कितना समय लगता है?

पूजा में तैयारी, कथा वाचन और आरती सहित लगभग 1.5 से 2 घंटे का समय लगता है।

5. क्या महिलाएं सत्यनारायण व्रत कर सकती हैं?

हां, महिलाएं सत्यनारायण व्रत कर सकती हैं। यह व्रत हर व्यक्ति के लिए उपयुक्त है, चाहे वे विवाहित हों या अविवाहित।

6. क्या व्रत के दौरान व्रती को उपवास रखना अनिवार्य है?

उपवास रखना अनिवार्य नहीं है, लेकिन इसे रखने से व्रत का पुण्य बढ़ता है। उपवास के दौरान फलाहार या हल्का भोजन किया जा सकता है।

7. सत्यनारायण कथा क्यों सुनाई जाती है?

सत्यनारायण कथा व्रत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसे सुनने से भक्त को भगवान की लीलाओं और उनके आशीर्वाद की महिमा का ज्ञान होता है।

8. सत्यनारायण व्रत कौन कर सकता है?

यह व्रत कोई भी कर सकता है, चाहे वह किसी भी जाति, धर्म या उम्र का हो। यह व्रत सभी के लिए शुभ माना जाता है।

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Deepika patidar is a dedicated blogger who explores Hindu mythology through ancient texts, bringing timeless stories and spiritual wisdom to life with passion and authenticity.

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