115. दुर्वसाजी के शापसे इन्द्र की पराजय

दुर्वासाजी ऋषि का विचरण

 एक बार शंकरके अंशावतार श्री दुर्वसाजी पृथिवीतलमें विचर रहे थे । घूमते – घूमते उन्होंने एक विद्याधरीके हाथमें सन्तानक पुष्पोंकी एक दिव्य माला देखी । उसकी गन्धसे सुवासित होकर वह वन वनवासियोंके लिये अति सेवनीय हो रहा था । तब उन उन्मत्तवृत्तिवाले विप्रवरने वह सुन्दर माला देखकर उसे उस विद्याधर सुन्दरीसे माँगा । उनके माँगनेपर उस बड़े – बड़े नेत्रोंवाली कृशांगी विद्याधरीने उन्हें आदरपूर्वक प्रणाम कर वह माला दे दी ।  उन उन्मत्तवेषधारी विप्रवरने उसे लेकर अपने मस्तकपर डाल लिया और पृथिवीपर विचरने लगे।

इन्द्र से भेंट और माला का अपमान

इसी समय उन्होंने उन्मत्त ऐरावतपर चढ़कर देवताओंके साथ आते हुए त्रैलोक्याधिपति शचीपति इन्द्रको देखा |उन्हें देखकर मुनिवर दुर्वासाने उन्मत्तके समान वह मतवाले भौंरोंसे गुंजायमान माला अपने सिरपरसे उतारकर देवराज इन्द्रके ऊपर फेंक दी। देवराजने उसे लेकर ऐरावतके मस्तकपर डाल दी ; उस समय वह ऐसी सुशोभित हुई मानो कैलास पर्वतके शिखरपर श्रीगंगाजी विराजमान हों । उस मदोन्मत्त हाथीने भी उसकी गन्धसे आकर्षित हो उसे सूँडसे सूँघकर पृथिवीपर फेंक दिया । यह देखकर मुनिश्रेष्ठ भगवान् दुर्वासाजी अति क्रोधित हुए और देवराज इन्द्रसे इस प्रकार बोले ।

दुर्वासा का क्रोध और शाप

दुर्वासाजीने कहा- अरे ऐश्वर्यके मदसे दूषितचित्त इन्द्र ! तू बड़ा ढीठ है , तूने मेरी दी हुई सम्पूर्ण शोभाकी धाम मालाका कुछ भी आदर नहीं किया । अरे ! तूने न तो प्रणाम करके ‘ बड़ी कृपा की ‘ ऐसा ही कहा और न हर्षसे प्रसन्नवदन होकर उसे अपने सिरपर ही रखा । रे मूढ़ ! तूने मेरी दी हुई मालाका कुछ भी मूल्य नहीं किया , इसलिये तेरा त्रिलोकीका वैभव नष्ट हो जायगा ।मैं क्षमा नहीं कर सकता ।

शाप का प्रभाव

 इस प्रकार कह वे विप्रवर वहाँसे चल दिये और इन्द्र भी ऐरावतपर चढ़कर अमरावतीको चले गये ।  तभीसे इन्द्रके सहित तीनों लोक वृक्ष – लता आदिके क्षीण हो जानेसे श्रीहीन और नष्ट – भ्रष्ट होने लगे । तबसे यज्ञोंका होना बन्द हो गया , तपस्वियोंने तप करना छोड़ दिया तथा लोगोंका दान आदि धर्मोंमें चित्त नहीं रहा ।  सम्पूर्ण लोक लोभादिके वशीभूत हो जानेसे सत्त्वशून्य ( सामर्थ्यहीन ) हो गये और तुच्छ वस्तुओंके लिये भी लालायित रहने लगे ।

सत्त्व और लक्ष्मी का अभाव

जहाँ सत्त्व होता है वहीं लक्ष्मी रहती है और सत्त्व भी लक्ष्मीका ही साथी है । श्रीहीनों में भला सत्त्व कहाँ ? और बिना सत्त्वके गुण कैसे ठहर सकते हैं ? बिना गुणोंके पुरुषमें बल , शौर्य आदि सभीका अभाव हो जाता है और निर्बल तथा अशक्त पुरुष सभीसे अपमानित होता है ।अपमानित होनेपर प्रतिष्ठित पुरुषकी बुद्धि बिगड़ जाती है ।

देवताओं की पराजय

इस प्रकार त्रिलोकीके श्रीहीन और सत्त्वरहित हो जानेपर दैत्य और दानवोंने देवताओंपर चढ़ाई कर दी । सत्त्व और वैभवसे शून्य होनेपर भी दैत्योंने लोभवश निःसत्त्व और श्रीहीन देवताओंसे घोर युद्ध ठाना । अन्तमें दैत्योंद्वारा देवतालोग परास्त हुए ।

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