भारत, पर्वों और त्योहारों का देश है, जहाँ हर उत्सव के पीछे एक गहरा आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक संदेश छिपा होता है। इन्हीं पर्वों में से एक है ओडिशा के पुरी में आयोजित होने वाली विश्व प्रसिद्ध Jagannath rath yatra यह केवल एक धार्मिक जुलूस नहीं, बल्कि आस्था, भक्ति, समानता और मानवीय एकता का एक जीवंत महाकाव्य है।
आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को होने वाली यह यात्रा, जिसमें भगवान जगन्नाथ अपने बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ विशाल रथों पर सवार होकर अपनी मौसी के घर, गुंडिचा मंदिर की ओर प्रस्थान करते हैं, दुनिया भर के लाखों श्रद्धालुओं के लिए एक अद्वितीय अनुभव होता है। इस यात्रा का हर पहलू, चाहे वह रथों का निर्माण हो, विग्रहों की कहानी हो या इससे जुड़ी रस्में, अपने आप में एक अद्भुत रहस्य और महत्व समेटे हुए है।
जगन्नाथ रथ यात्रा का पौराणिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
जगन्नाथ रथ यात्रा की जड़ें अत्यंत प्राचीन हैं और इसका उल्लेख स्कंद पुराण, ब्रह्म पुराण और पद्म पुराण जैसे कई पौराणिक ग्रंथों में मिलता है। इसकी उत्पत्ति को लेकर कई कथाएँ प्रचलित हैं, जो इसके महत्व को और भी बढ़ा देती हैं।
1. राजा इंद्रद्युम्न और दारु ब्रह्म की कथा
सबसे प्रसिद्ध कथा मालवा के राजा इंद्रद्युम्न से जुड़ी है, जो भगवान विष्णु के परम भक्त थे। एक रात उन्हें स्वप्न में भगवान ने दर्शन दिए और कहा कि वे पुरी के समुद्र तट पर एक विशेष लकड़ी के लट्ठे (दारु ब्रह्म) के रूप में मिलेंगे। राजा ने आज्ञानुसार उस दिव्य लट्ठे को ढूंढ निकाला। अब प्रश्न यह था कि इस पवित्र लकड़ी से मूर्तियों का निर्माण कौन करेगा।
तब स्वयं देवों के शिल्पी, विश्वकर्मा, एक बूढ़े बढ़ई का रूप धरकर राजा के पास आए। उन्होंने मूर्तियाँ बनाने के लिए एक शर्त रखी – “मैं इन मूर्तियों का निर्माण एक बंद कमरे में 21 दिनों तक करूँगा, और इस दौरान कोई भी उस कमरे का दरवाज़ा नहीं खोलेगा।” राजा ने शर्त मान ली। कई दिनों तक कमरे के अंदर से औजारों की आवाज़ आती रही, लेकिन कुछ दिनों बाद आवाज़ आनी बंद हो गई। राजा की पत्नी, रानी गुंडिचा, अधीर हो उठीं। उन्हें चिंता हुई कि कहीं उस बूढ़े बढ़ई को कुछ हो तो नहीं गया। उनके बार-बार आग्रह करने पर राजा इंद्रद्युम्न ने समय से पहले ही दरवाज़ा खोल दिया।
दरवाजा खुलते ही वे शिल्पी अंतर्धान हो गए और कमरे में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की अधूरी प्रतिमाएँ मिलीं। उनके हाथ और पैर नहीं बने थे। राजा को अपनी भूल पर बहुत पछतावा हुआ। तब एक दिव्य आकाशवाणी हुई, जिसमें कहा गया कि भगवान इसी रूप में स्थापित होना चाहते हैं। तभी से भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की प्रतिमाएँ इसी अद्वितीय और अपूर्ण रूप में पूजी जाती हैं। यह अपूर्णता इस बात का प्रतीक है कि ईश्वर मानवीय कल्पना और स्वरूपों से परे है।
2. सुभद्रा की इच्छा और यात्रा का आरंभ
एक अन्य लोकप्रिय कथा के अनुसार, एक बार देवी सुभद्रा ने अपने मायके (गुंडिचा मंदिर, जो उनकी मौसी का घर माना जाता है) जाने की इच्छा व्यक्त की। उनकी इस इच्छा का सम्मान करते हुए, उनके दोनों भाई, भगवान जगन्नाथ और बलभद्र, उन्हें एक भव्य रथ में बिठाकर गुंडिचा मंदिर ले गए। यह यात्रा इतनी भव्य और आनंदमयी थी कि इसे हर वर्ष मनाने की परंपरा शुरू हो गई। यही कारण है कि रथ यात्रा को एक पारिवारिक यात्रा के रूप में भी देखा जाता है, जहाँ भाई अपनी बहन को घुमाने ले जाते हैं।
3. भगवान कृष्ण से संबंध
जगन्नाथ को भगवान विष्णु का, विशेष रूप से भगवान कृष्ण का ही स्वरूप माना जाता है। एक कथा के अनुसार, जब द्वारका में भगवान कृष्ण का देहांत हुआ, तो उनके अंतिम संस्कार के दौरान उनका हृदय (पिंड) अग्नि में नहीं जला। उसे समुद्र में प्रवाहित कर दिया गया, जो एक लट्ठे का रूप लेकर पुरी के तट पर आ लगा। यही वह ‘दारु ब्रह्म’ था, जिससे राजा इंद्रद्युम्न ने मूर्तियों का निर्माण कराया। यह कथा जगन्नाथ को सीधे कृष्ण से जोड़ती है और यात्रा को और भी भावनात्मक बना देती है।
रथ यात्रा का आध्यात्मिक और सामाजिक महत्व
जगन्नाथ रथ यात्रा का महत्व केवल पौराणिक कथाओं तक सीमित नहीं है। इसका आध्यात्मिक और सामाजिक प्रभाव बहुत गहरा है।
आध्यात्मिक महत्व:
- ईश्वर का भक्तों तक आना: हिंदू धर्म में सामान्यतः भक्त मंदिर में ईश्वर के दर्शन करने जाते हैं, लेकिन रथ यात्रा एक ऐसा अनूठा अवसर है जब स्वयं भगवान मंदिर के गर्भगृह से बाहर निकलकर अपने भक्तों को दर्शन देने आते हैं। यह ईश्वर की करुणा और अपने भक्तों के प्रति उनके प्रेम का प्रतीक है।
- समानता का संदेश: मंदिर के अंदर जहाँ कुछ प्रतिबंध हो सकते हैं, वहीं रथ यात्रा के दौरान भगवान सड़क पर होते हैं, जहाँ किसी भी जाति, धर्म या पंथ का व्यक्ति बिना किसी भेदभाव के उनके दर्शन कर सकता है। यह सामाजिक समानता और सार्वभौमिक भाईचारे का सबसे बड़ा उदाहरण है।
- मोक्ष का मार्ग: ऐसी मान्यता है कि जो व्यक्ति सच्चे मन से रथ के रस्से को खींचता है, उसे सौ यज्ञों के बराबर पुण्य मिलता है और वह जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। रथ पर विराजमान भगवान के दर्शन मात्र को ही मोक्षदायक माना गया है।
सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व:
- कला और शिल्प का संगम: रथ यात्रा की तैयारी महीनों पहले शुरू हो जाती है। अक्षय तृतीया के दिन से रथों का निर्माण शुरू होता है। इन रथों को बनाने वाले कारीगरों की पीढ़ियाँ इसी काम में लगी हुई हैं। यह ओडिशा की काष्ठकला, चित्रकला और इंजीनियरिंग का एक उत्कृष्ट नमूना है।
- सामुदायिक एकता: यह यात्रा लाखों लोगों को एक साथ लाती है। लोग मिलकर रथ खींचते हैं, भजन-कीर्तन करते हैं और प्रसाद बांटते हैं। यह सामुदायिक भावना को मजबूत करता है और लोगों को एक-दूसरे के करीब लाता है।
- ‘छेरा पहंरा’ की रस्म: यात्रा की सबसे महत्वपूर्ण रस्मों में से एक है ‘छेरा पहंरा’। इसमें पुरी के गजपति महाराजा सोने की झाड़ू से रथों के आगे के मार्ग को साफ करते हैं। यह इस बात का प्रतीक है कि भगवान के सामने राजा और रंक सब बराबर हैं। यह सेवा और विनम्रता का एक शक्तिशाली संदेश है।
रथों का विस्तृत विवरण: आस्था के चलते-फिरते मंदिर
रथ यात्रा के केंद्र में तीन विशाल और भव्य रथ होते हैं, जिन्हें हर साल नई लकड़ी से बनाया जाता है। ये रथ केवल वाहन नहीं, बल्कि चलते-फिरते मंदिर माने जाते हैं।
1. नंदीघोष (भगवान जगन्नाथ का रथ):
- रंग: लाल और पीले रंग के कपड़ों से ढका होता है।
- ऊँचाई: लगभग 45 फीट।
- पहिये: इसमें 16 पहिये होते हैं।
- सारथी: दारुक।
- ध्वज: त्रैलोक्यमोहिनी (तीनों लोकों को मोहने वाला)।
- रक्षक: गरुड़।
- यह रथ तीनों में सबसे बड़ा होता है।
2. तालध्वज (भगवान बलभद्र का रथ):
- रंग: लाल और हरे रंग के कपड़ों से ढका होता है।
- ऊँचाई: लगभग 44 फीट।
- पहिये: इसमें 14 पहिये होते हैं।
- सारथी: मातलि।
- ध्वज: उन्नानी।
- रक्षक: वासुदेव।
3. दर्पदलन (देवी सुभद्रा का रथ):
- नाम का अर्थ: दर्प या अहंकार का नाश करने वाला। इसे ‘देवदलन’ भी कहते हैं।
- रंग: लाल और काले रंग के कपड़ों से ढका होता है।
- ऊँचाई: लगभग 43 फीट।
- पहिये: इसमें 12 पहिये होते हैं।
- सारथी: अर्जुन।
- ध्वज: नदंबिका।
- रक्षक: जयदुर्गा।
इन रथों का निर्माण नीम और धौसा जैसी पवित्र लकड़ियों से किया जाता है, जिन्हें ‘दारु’ कहा जाता है।
रथ यात्रा के प्रमुख अनुष्ठान और प्रक्रिया
रथ यात्रा एक दिन का पर्व नहीं, बल्कि कई दिनों तक चलने वाले अनुष्ठानों की एक श्रृंखला है।
- स्नान यात्रा: ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा को 108 घड़ों के पवित्र जल से स्नान कराया जाता है। माना जाता है कि इस स्नान के बाद भगवान बीमार पड़ जाते हैं।
- अनसर (अनवसर): स्नान के बाद 15 दिनों के लिए भगवान को एक गुप्त कक्ष में रखा जाता है, जिसे ‘अनसर घर’ कहते हैं। इस दौरान वे सार्वजनिक दर्शन नहीं देते और उनकी विशेष जड़ी-बूटियों से सेवा की जाती है।
- पहांडी विजय: रथ यात्रा के दिन, ढोल-नगाड़ों और शंखध्वनि के बीच मूर्तियों को झूमते-झुलाते हुए मंदिर से बाहर लाकर रथों पर स्थापित किया जाता है। इस भव्य शोभायात्रा को ‘पहांडी विजय’ कहते हैं।
- रथ खींचना: ‘छेरा पहंरा’ के बाद, लाखों श्रद्धालु इन विशाल रथों को रस्सों से खींचकर गुंडिचा मंदिर की ओर ले जाते हैं, जो मुख्य मंदिर से लगभग 3 किलोमीटर दूर है।
- हेरा पंचमी: यात्रा के पांचवें दिन, देवी लक्ष्मी अपने पति भगवान जगन्नाथ को खोजने के लिए गुंडिचा मंदिर जाती हैं। पति को न पाकर वे क्रोधित हो जाती हैं और उनके रथ ‘नंदीघोष’ का एक हिस्सा तोड़कर वापस लौट आती हैं। यह एक बहुत ही रोचक और मानवीय अनुष्ठान है।
- बहुड़ा यात्रा: नौ दिनों तक गुंडिचा मंदिर में रहने के बाद, भगवान अपने भाई-बहन के साथ वापस मुख्य मंदिर की ओर प्रस्थान करते हैं। इस वापसी यात्रा को ‘बहुड़ा यात्रा’ कहते हैं।
- सुना बेशा: एकादशी के दिन, जब रथ मुख्य मंदिर के द्वार पर पहुँचते हैं, तो तीनों विग्रहों को सोने के आभूषणों से सजाया जाता है। इस भव्य रूप को ‘सुना बेशा’ कहते हैं। इसे देखने के लिए लाखों की भीड़ उमड़ती है।
- नीलाद्रि बिजे: अंत में, भगवान को वापस मंदिर के गर्भगृह में उनके रत्न सिंहासन पर स्थापित कर दिया जाता है, और इसी के साथ रथ यात्रा का समापन होता है।
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FAQs
Jagannath Rath Yatra kya hai?
Jagannath Rath Yatra ek bahut bada Hindu festival hai jo har saal Odisha ke Puri sheher mein manaya jaata hai. Ismein Lord Jagannath, unke bade bhai Lord Balabhadra aur unki behen Devi Subhadra ko teen bade-bade rathon (chariots) par bithakar Jagannath Temple se Gundicha Temple tak le jaaya jaata hai. Yeh unki mausi ka ghar maana jaata hai.
Jagannath Rath Yatra kyun manayi jaati hai?
Iske peeche kai kahaniyan hain. Ek famous story ke mutabik, Devi Subhadra ne apne maayke (Gundicha Temple) jaane ki ichha jatayi thi. Unki is wish ko poora karne ke liye unke dono bhai, Jagannath aur Balabhadra, unhe rath par baithakar le gaye. Tab se yeh tradition chala aa raha hai.
Lord Jagannath ki moortiyan adhoori (incomplete) kyun hain?
Ek purani katha ke anusaar, jab Raja Indradyumna moortiyan banwa rahe the, to unhone shart todkar kamre ka darwaza time se pehle khol diya tha. Isse moortiyan banane wale vishwakarma gayab ho gaye aur moortiyan adhoori reh gayin, jinke haath aur pair nahi the. Maana jaata hai ki Bhagwan isi roop mein pooje jaana chahte the.
Jagannath Rath Yatra kab hoti hai?
Yeh har saal Hindu calendar ke Ashadha mahine mein, Shukla Paksha ki Dwitiya tithi (doosre din) ko hoti hai. Yeh aam taur par June ya July mein padti hai.
Kya koi bhi Jagannath Rath Yatra ka rath kheench sakta hai?
Haan, bilkul! Rath Yatra ki sabse khaas baat yahi hai ki ismein jaati, dharm ya ling ka koi bhedbhav nahi hota. Koi bhi vyakti rath ki rassi ko kheench kar punya kama sakta hai. Yeh equality aur unity ka symbol hai.
Teeno rathon ke naam kya hain?
Lord Jagannath ka rath: Nandighosha
Lord Balabhadra ka rath: Taladhwaja
Devi Subhadra ka rath: Darpadalana (ya Devadalana)
‘Chhera Panhara’ rasam kya hoti hai?
Yeh ek bahut important rasam hai. Ismein Puri ke Gajapati Raja (king) sone ki jhaadu (golden broom) se rathon ke aage raasta saaf karte hain. Iska matlab yeh hai ki Bhagwan ke saamne raja aur praja, sabhi ek samaan sevak hain.
‘Bahuda Yatra’ kya hai?
Gundicha Temple mein 9 din rehne ke baad, jab Bhagwan Jagannath, Balabhadra aur Subhadra apne mukhya mandir (main temple) wapas aate hain, to is return journey ko ‘Bahuda Yatra’ kehte hain.
Purane rathon ka kya hota hai?
Har saal rath yatra ke liye naye rath banaye jaate hain. Yatra ke baad, purane rathon ko tod diya jaata hai aur unki lakdi ko mandir ki rasoi mein prasad banane ke liye indhan (fuel) ke taur par istemaal kiya jaata hai. Kuch lakdi bhakton mein bhi baanti jaati hai.
Suna Besha kya hota hai?
Bahuda Yatra ke baad, jab rath mandir ke paas khade hote hain, tab teeno devi-devtaon ko sone (gold) ke bhari aabhushanon se sajaya jaata hai. Is grand roop ko ‘Suna Besha’ ya ‘Golden Attire’ kehte hain. Ise dekhne ke liye laakhon logon ki bheed umadti hai.