Rishton ka sach: क्यों कोई हमें प्रिय लगता है और कैसे बनें ईश्वर के प्रिय? हम सभी अपने जीवन में किसी न किसी व्यक्ति से जुड़ाव महसूस करते हैं, उन्हें अपना प्रिय मानते हैं। परन्तु क्या हमने कभी गहराई से यह सोचा है कि इस “प्रियता” का वास्तविक आधार क्या है? अक्सर यह देखा गया है कि सांसारिक रिश्तों में यह प्रियता कुछ शर्तों और अपेक्षाओं पर टिकी होती है, जबकि ईश्वर के साथ हमारा संबंध इससे कहीं भिन्न और गहरा होता है।
सांसारिक प्रियता: स्वार्थ और अपेक्षाओं का ताना-बाना
जब हम कहते हैं कि कोई व्यक्ति हमें प्रिय है, तो इसके पीछे अनेक कारण हो सकते हैं:
- स्वार्थ: संभवतः उस व्यक्ति से हमारा कोई हित जुड़ा हो, कोई लाभ प्राप्त हो रहा हो। जब तक वह स्वार्थ सिद्ध होता रहता है, वह व्यक्ति हमें प्रिय लगता है।
- गुण: किसी का कोई विशेष गुण, जैसे सौंदर्य, बुद्धिमत्ता, गायन कला या कोई अन्य प्रतिभा, हमें अपनी ओर आकर्षित कर सकती है।
- कर्म या स्वभाव: किसी का अच्छा व्यवहार, दूसरों की सहायता करने की प्रवृत्ति, या शांत और मिलनसार स्वभाव हमें भा सकता है।
- मतलब या आवश्यकता: कभी-कभी कोई व्यक्ति इसलिए प्रिय होता है क्योंकि हमें उसकी आवश्यकता होती है, चाहे वह भावनात्मक सहारे के रूप में हो या किसी अन्य प्रकार की मदद के रूप में।
किन्तु यह सभी कारण और इन पर आधारित प्रियता क्षणभंगुर होती है। जैसे ही उस व्यक्ति का स्वभाव बदलता है, हमारा स्वार्थ पूरा हो जाता है, या उसके गुण हमें अब प्रभावित नहीं करते, वही प्रिय व्यक्ति हमें अप्रिय लगने लगता है। गहरे से गहरे मानवीय संबंध भी आपसी लेन-देन, पारस्परिक कर्म-क्रिया के आदान-प्रदान और सहयोग पर ही टिके होते हैं।
जब इस प्रक्रिया में यह आदान-प्रदान एकतरफा और एकांगी हो जाता है, अर्थात एक पक्ष केवल देता रहे और दूसरा पक्ष केवल लेता रहे, या अपेक्षाएँ पूरी न हों, तो संबंधों में उतार-चढ़ाव और तनाव आना स्वाभाविक है। फिर मधुर लगने वाले रिश्तों में भी कड़वाहट घुल जाती है, और जो कल तक हृदय के समीप था, वह आज आँखों में खटकने लगता है। वास्तव में, मनुष्यों के बीच यह प्रियता और अप्रियता का चक्र निरंतर बदलता रहता है, यह स्थायी नहीं होता।
ईश्वरीय प्रियता: एक निश्छल और स्थायी संबंध
इसके विपरीत, जब हम ईश्वर की प्रियता की बात करते हैं, तो इसका स्वरूप और आधार सर्वथा भिन्न होता है। माता-पिता, भाई-बहन, मित्रगण या संसार के अन्य व्यक्तियों के प्रिय तो हम उनके या अपने किन्हीं सांसारिक कारणों से बन ही जाते हैं, और उनका प्रिय बनना शायद उतना कठिन भी न हो। किंतु, ईश्वर का प्रिय हर कोई नहीं बन पाता। यह एक उच्चतर स्थिति है, एक साधना है।
इस महत्वपूर्ण विषय पर भगवान श्रीकृष्ण गीता में अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं कि कौन सा भक्त उन्हें प्रिय है। उनके अनुसार:
- अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च। निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी॥ (गीता १२.१३)
अर्थात, जो मनुष्य किसी भी प्राणी से द्वेष नहीं करता, सबसे मैत्रीपूर्ण व्यवहार करता है, दयालु है, ममता और अहंकार से रहित है, सुख-दुःख में समान भाव रखता है, और क्षमाशील है। - सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः। मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥ (गीता १२.१४)
अर्थात, जो भक्त सदैव संतुष्ट रहता है, योग में स्थित है, जिसने अपने मन और इंद्रियों सहित शरीर को वश में कर लिया है, जिसका निश्चय दृढ़ है, और जिसने अपना मन और बुद्धि मुझमें (ईश्वर में) अर्पित कर दी है, वह भक्त मुझे प्रिय है।
इसके अतिरिक्त, जो सत्य के मार्ग पर चलता है, असत्य को सहन नहीं करता, और झूठ से परे रहता है, ऐसा व्यक्ति भी भगवान को प्रिय होता है। इन गुणों को अपने जीवन में उतारना ही ईश्वर की प्रियता प्राप्त करने का मार्ग है। यह प्रियता किसी स्वार्थ या बाहरी आकर्षण पर आधारित नहीं होती, बल्कि व्यक्ति के आंतरिक गुणों और ईश्वर के प्रति उसकी निश्छल भक्ति पर निर्भर करती है।
सांसारिक प्रियता जहाँ परिवर्तनशील और शर्तों पर आधारित होती है, वहीं ईश्वरीय प्रियता शाश्वत और निस्वार्थ होती है। मानवीय रिश्तों की अपनी सीमाएँ हैं, लेकिन जब हम गीता में बताए गए गुणों को अपने जीवन में धारण करने का प्रयास करते हैं, तो न केवल हमारे सांसारिक संबंध सुधरते हैं, बल्कि हम ईश्वर के भी प्रिय बन जाते हैं। यह यात्रा स्वयं को परिष्कृत करने और उच्चतम प्रेम को अनुभव करने की यात्रा है।
READ ANOTHER POST –SANWARIYO HAI SETH BHAJAN LYRICS
FAQs
Log humein achhe kyun lagte hain, aur yeh pyaar kam kyun ho jaata hai?
(Why do we like people, and why does this affection fade?)
Aksar hum kisi ko unke guno (qualities), hamare swaarth (self-interest), ya unke achhe behaviour ki wajah se pasand karte hain. Jab yeh cheezein badal jaati hain ya hamara matlab poora ho jaata hai, toh woh pyaar kam ho sakta hai kyunki yeh sharton par based tha.
Duniya ki “priyata” aur Bhagwan ki “priyata” mein kya main difference hai?
(What is the main difference between worldly affection and God’s affection?)
Duniya ki priyata temporary hoti hai aur badalti rehti hai, yeh self-interest ya expectations par depend karti hai. Jabki Bhagwan ki priyata permanent hoti hai aur insaan ke achhe guno, jaise daya, kshama, aur swaarth-rahit hone par depend karti hai.
Kya rishton mein expectations rakhna galat hai?
(Is it wrong to have expectations in relationships?)
Expectations natural hain, lekin jab yeh one-sided ho jaati hain ya poori na hone par rishta tootne lagta hai, tab problem hoti hai. Balance zaroori hai. Article kehta hai ki aapsi len-den par rishte tikte hain.
Bhagwan Krishna Gita mein kin guno wale vyakti ko apna priya batate hain?
(Which qualities does Lord Krishna in the Gita describe for a person dear to Him?)
Gita ke anusaar, Bhagwan ko woh vyakti priya hai jo:
* Kisi se dvesh (hatred) na kare.
* Sabse pyaar kare aur dayalu ho.
* Ego-less (ahankar-mukt) ho.
* Sukh-dukh mein same (samaan) rahe.
* Doosron ko maaf (kshama) kare.
* Sach ke raaste par chale.
* Apne mann aur indriyon (senses) ko control mein rakhe.
* Hamesha santusht (content) rahe.
Agar humein Bhagwan ka priya banna hai, toh kya karna chahiye?
(If we want to become dear to God, what should we do?)
Humein Gita mein bataye gaye guno ko apni life mein laane ki koshish karni chahiye. Jaise, sabse prem karna, ego chhodna, sach bolna, doosron ki help karna, aur apne mann ko shaant aur control mein rakhna.
Kya duniya ka pyaar aur Bhagwan ka pyaar ek saath ho sakta hai?
(Can worldly love and divine love coexist?)
Haan, bilkul. Jab hum Bhagwan ke bataye guno ko apnate hain, toh hamare worldly rishte bhi behtar hote hain. Aur Bhagwan se pyaar karna humein aur compassionate banata hai, jisse hum duniya mein bhi behtar insaan bante hain.