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28. कुब्जा पर कृपा, धनुर्भंग, कुवलयापीड और चाणूरादि मल्लोंका नाश तथा कंस वध

कुब्जा

कुब्जा का उद्धार

श्रीकृष्णचन्द्रने  राजमार्गमें एक नवयौवना कुब्जा स्त्रीको अनुलेपनका पात्र लिये आती देखा ॥ तब श्रीकृष्णने उससे विलासपूर्वक कहा – ” अयि कमललोचने! तू सच- सच बता यह अनुलेपन किसके लिये ले जा रही है?”॥ भगवान् कृष्णके कामुक पुरुषकी भाँति इस प्रकार पूछनेपर अनुरागिणी कुब्जाने उनके दर्शनसे हठात् आकृष्टचित्त हो अति ललितभावसे इस प्रकार कहा—॥ “हे कान्त ! क्या आप मुझे नहीं जानते ? मैं अनेकवक्रा नामसे विख्यात हूँ, राजा कंसने मुझे अनुलेपन-कार्यमें नियुक्त किया है ॥  राजा कंसको मेरे अतिरिक्त और किसीका पीसा हुआ उबटन पसन्द नहीं है, अतः मैं उनकी अत्यन्त कृपापात्री हूँ”॥

श्रीकृष्णजी बोले- हे सुमुखि ! यह सुन्दर सुगन्धमय अनुलेपन तो राजाके ही योग्य है, हमारे शरीरके योग्य भी कोई अनुलेपन हो तो दो ॥ 

 यह सुनकर कुब्जाने कहा- ‘लीजिये’ और फिर उन दोनोंको आदरपूर्वक उनके शरीरयोग्य चन्दनादि दिये ॥  उस समय वे दोनों पुरुष श्रेष्ठ [ कपोल आदि अंगों में ] पत्ररचनाविधिसे यथावत् अनुलिप्त होकर इन्द्रधनुषयुक्त श्याम और श्वेत मेघके समान सुशोभित हुए ॥  तत्पश्चात् उल्लापन (सीधे करनेकी)-विधिके जाननेवाले भगवान् कृष्णचन्द्रने उसकी ठोड़ीमें अपनी आगेकी दो अँगुलियाँ लगा उसे उचकाकर हिलाया तथा उसके पैर अपने पैरोंसे दबा लिये। इस प्रकार श्रीकेशवने उसे ऋजुकाय (सीधे शरीरवाली) कर दी। तब सीधी हो जानेपर वह सम्पूर्ण स्त्रियोंमें सुन्दरी हो गयी ॥ 

तब वह श्रीगोविन्दका पल्ला पकड़कर अन्तर्गर्भित प्रेम-भारसे अलसायी हुई विलासललित वाणीमें बोली- ‘आप मेरे घर चलिये ‘ ॥ ११ ॥ उसके ऐसा कहनेपर श्रीकृष्णचन्द्रने उस कुब्जासे, जो पहले अनेक अंगोंसे टेढ़ी थी, परंतु अब सुन्दरी हो गयी थी, बलरामजीके मुखकी ओर देखकर हँसते हुए कहा- ॥  ‘हाँ, तुम्हारे घर भी आऊंगा’- ऐसा कहकर श्रीहरिने उसे मुसकाते हुए विदा किया और बलभद्रजीके मुखकी ओर देखते हुए जोर-जोर से हँसने लगे ॥ 

धनुष का तोड़ना

तदनन्तर पत्र – रचनादि विधिसे अनुलिप्त तथा चित्र- विचित्र मालाओंसे सुशोभित राम और कृष्ण क्रमशः नीलाम्बर और पीताम्बर धारण किये हुए यज्ञशालातक आये ॥  वहाँ पहुँचकर उन्होंने यज्ञरक्षकोंसे उस यज्ञ के उद्देश्य स्वरूप धनुष के विषय में पूछा और उनके बतलानेपर श्रीकृष्णचन्द्र ने उसे सहसा उठाकर प्रत्यंचा (डोरी) चढ़ा दी ॥ उसपर बलपूर्वक प्रत्यंचा चढ़ाते समय वह धनुष टूट गया, उस समय उसने ऐसा घोर शब्द किया कि उससे सम्पूर्ण मथुरापुरी गूँज उठी ॥  तब धनुष टूट जानेपर उसके रक्षकोंने उनपर आक्रमण किया, उस रक्षक सेनाका संहार कर वे दोनों बालक धनुश्शालासे बाहर आये ॥ 

मल्लयुद्ध

तदनन्तर अक्रूर के आनेका समाचार पाकर तथा उस महान् धनुष को भग्न हुआ सुनकर कंसने चाणूर और मुष्टिक से कहा ॥ 

कंस बोला – यहाँ दोनों गोपालबालक आ गये हैं। वे मेरा प्राण हरण करने वाले हैं, अतः तुम दोनों मल्लयुद्धसे उन्हें मेरे सामने मार डालो। यदि तुमलोग  मल्लयुद्धमें उन दोनों का विनाश करके मुझे सन्तुष्ट कर दोगे तो मैं तुम्हारी समस्त इच्छाएँ पूर्ण कर दूँगा; मेरे इस कथनको तुम मिथ्या न समझना। तुम न्यायसे अथवा अन्यायसे मेरे इन महाबलवान् अपकारियोंको अवश्य मार डालो। उनके मारे जानेपर यह सारा राज्य [ हमारा और ] तुम दोनोंका सामान्य होगा ॥ 

मल्लोंको इस प्रकार आज्ञा दे कंसने अपने महावतको बुलाया और उसे आज्ञा दी कि तू कुवलयापीड हाथीको मल्लोंकी रंगभूमिके द्वारपर खड़ा रख और जब वे गोपकुमार युद्धके लिये यहाँ आवें तो उन्हें इससे नष्ट करा दे ॥  इस प्रकार उसे आज्ञा देकर और समस्त सिंहासनोंको यथावत् रखे देखकर, जिसकी मृत्यु पास आ गयी है वह कंस सूर्योदयकी प्रतीक्षा करने लगा ॥ 

प्रात:काल होनेपर समस्त मंचोंपर नागरिक लोग और राजमंचोंपर अपने अनुचरोंके सहित राजालोग बैठे ॥  तदनन्तर रंगभूमिके मध्यभागके समीप कंसने युद्ध परीक्षकों को बैठाया और फिर स्वयं आप भी एक ऊँचे सिंहासनपर बैठा ॥ वहाँ अन्तःपुरकी स्त्रियोंके लिये पृथक् मचान बनाये गये थे तथा मुख्य-मुख्य वारांगनाओं और नगरकी महिलाओंके लिये भी अलग-अलग मंच थे ॥ 

कुछ अन्य मंचोंपर नन्दगोप आदि गोपगण बिठाये गये थे और उन मंचोंके पास ही अक्रूर और वसुदेवजी बैठे थे ॥  नगरकी नारियोंके बीचमें ‘चलो, अन्तकालमें ही पुत्रका मुख तो देख लूँगी’ ऐसा विचारकर पुत्रके लिये मंगलकामना करती हुई देवकीजी बैठी थीं ॥ 

कंस वध

तदनन्तर जिस समय तूर्य आदिके बजने तथा चाणूरके अत्यन्त उछलने और मुष्टिक के ताल ठोंकनेपर दर्शकगण हाहाकार कर रहे थे, गोपवेषधारी वीर बालक बलभद्र और कृष्ण कुछ हँसते हुए रंगभूमिके द्वारपर आये ॥  वहाँ आते ही महावतकी प्रेरणासे कुवलयापीड नामक हाथी उन दोनों गोपकुमारोंको मारनेके लिये बड़े वेगसे दौड़ा ॥ हे द्विजश्रेष्ठ ! उस समय रंगभूमिमें महान् हाहाकार मच गया तथा बलदेवजीने अपने अनुज कृष्णकी ओर देखकर कहा—“हे महाभाग ! इस हाथीको शत्रुने ही प्रेरित किया है; अतः इसे मार डालना चाहिये ॥ 

हे द्विज ! ज्येष्ठ भ्राता बलरामजीके ऐसा कहनेपर शत्रुसूदन श्रीश्यामसुन्दरने बड़े जोरसे सिंहनाद किया ॥ फिर केशिनिषूदन भगवान् श्रीकृष्ण ने बल में ऐरावत के समान उस महाबली हाथी की सूँड अपने हाथसे पकड़कर उसे घुमाया ॥ 

भगवान् कृष्ण यद्यपि सम्पूर्ण जगत्के स्वामी हैं तथापि उन्होंने बहुत देरतक उस हाथी के दाँत और चरणों के बीच में खेलते-खेलते अपने दाएँ हाथसे उसका बायाँ दाँत उखाड़कर उससे महावतपर प्रहार किया। इससे उसके सिरके सैकड़ों टुकड़े हो गये । उसी समय बलभद्रजीने भी क्रोधपूर्वक उसका दायाँ दाँत उखाड़कर उससे आस- पास खड़े हुए महावतोंको मार डाला ॥  तदनन्तर  महाबली रोहिणीनन्दन ने रोषपूर्वक अति वेगसे उछलकर उस हाथी के मस्तक पर अपनी बायीं लात मारी ॥  इस प्रकार वह हाथी बलभद्र जी द्वारा लीलापूर्वक मारा जाकर इन्द्र-वज्र से आहत पर्वत के समान गिर पड़ा ।

तब महावतसे प्रेरित कुवलयापीडको मारकर उसके मद और रक्तसे लथपथ राम और कृष्ण उसके दाँतोंको लिये हुए गर्वयुक्त लीलामयी चितवनसे निहारते उस महान् रंगभूमि में इस प्रकार आये जैसे मृगसमूहके बीचमें सिंह चला जाता है ॥  उस समय महान् रंगभूमिमें बड़ा कोलाहल होने लगा और सब लोगोंमें ‘ये ये बलभद्र हैं’ ऐसा विस्मय छा गया ॥  कृष्ण हैं, [ वे कहने लगे- ]” जिसने बाल घातिनी घोर राक्षसी पूतनाको मारा था, शकट को उलट दिया था और यमलार्जुनको उखाड़ डाला था वह यही है।

जिस बालकने कालियनाग के ऊपर चढ़कर उसका मान मर्दन किया था और सात रात्रितक महापर्वत गोवर्द्धनको अपने हाथपर धारण किया था वह यही है॥ जिस महात्माने अरिष्टासुर, धेनुकासुर और केशी आदि दुष्टोंको लीलासे ही मार डाला था; देखो, वह अच्युत यही हैं ॥  ये इनके आगे इनके बड़े भाई महाबाहु बलभद्रजी हैं जो बड़े लीलापूर्वक चल रहे हैं। ये स्त्रियोंके मन और नयनोंको बड़ा ही आनन्द देनेवाले हैं ? ॥  पुराणार्थवेत्ता विद्वान् लोग कहते हैं कि ये गोपालजी डूबे हुए यदुवंशका उद्धार करेंगे ॥  ये सर्वलोकमय और सर्वकारण भगवान् विष्णुके ही अंश हैं, इन्होंने पृथिवीका भार उतारनेके लिये ही भूमि पर अवतार लिया है” ॥ 

राम और कृष्ण के विषयमें पुरवासियों के इस प्रकार कहते समय देवकी के स्तनोंसे स्नेह के कारण दूध बहने लगा और उनके हृदय में बड़ा अनुताप हुआ ॥  पुत्रोंका मुख देखनेसे अत्यन्त उल्लास-सा प्राप्त होनेके कारण वसुदेवजी भी मानो आयी हुई जराको छोड़कर फिरसे नवयुवक से हो गये ॥ 

राजाके अन्तःपुरकी स्त्रियाँ तथा नगर निवासिनी महिलाएँ भी उन्हें एकटक देखते-देखते उपराम न हुईं ॥ [वे परस्पर कहने लगीं- ] “अरी सखियो ! अरुणनयनसे युक्त श्रीकृष्णचन्द्रका अति सुन्दर मुख तो देखो, जो कुवलयापीडके साथ युद्ध करनेके परिश्रमसे स्वेद बिन्दुपूर्ण होकर हिम-कण-सिंचित शरत्कालीन प्रफुल्ल कमलको लज्जित कर रहा है। अरी! इसका दर्शन करके अपने नेत्रोंका होना सफल कर लो” ।। 

[ एक स्त्री बोली- ] ” हे भामिनि ! इस बालकका यह लक्ष्मी आदिका आश्रयभूत श्रीवत्सांकयुक्त वक्षःस्थल तथा शत्रुओंको पराजित करनेवाली इसकी दोनों भुजाएँ तो देखो !” ॥ 

[ दूसरी० – ] “अरी ! क्या तुम नीलाम्बर धारण किये इन दुग्ध, चन्द्र अथवा कमलनालके समान शुभ्रवर्ण बलदेवजीको आते हुए नहीं देखती हो ?” ॥ 

[ तीसरी० – ] “अरी सखियो ! [अखाड़ेमें] चक्कर देकर घूमनेवाले चाणूर और मुष्टिकके साथ क्रीडा करते हुए बलभद्र तथा कृष्णका हँसना देख लो। ” ॥ 

[ चौथी० – ] “हाय ! सखियो ! देखो तो चाणूरसे लड़नेके लिये ये हरि आगे बढ़ रहे हैं; क्या इन्हें छुड़ानेवाले कोई भी बड़े-बूढ़े यहाँ नहीं हैं ?” ॥  ‘कहाँ तो यौवनमें प्रवेश करनेवाले सुकुमार-शरीर श्याम और कहाँ वज्रके समान कठोर शरीरवाला यह महान् असुर !’ ॥  ये दोनों नवयुवक तो बड़े ही सुकुमार शरीरवाले हैं, [किंतु इनके प्रतिपक्षी] ये चाणूर आदि दैत्य मल्ल अत्यन्त दारुण हैं ॥ 

मल्लयुद्ध के परीक्षकगणोंका यह बहुत बड़ा अन्याय है जो वे मध्यस्थ होकर भी इन बालक और बलवान् मल्लोंके बीच युद्ध करा रहे हैं ॥ 

 नगरकी स्त्रियोंके इस प्रकार वार्तालाप करते समय भगवान् कृष्णचन्द्र अपनी कमर कसकर उन समस्त दर्शकोंके बीचमें पृथिवीको कम्पायमान करते हुए रंगभूमिमें कूद पड़े ॥  श्रीबलभद्रजी भी अपने भुजदण्डोंको ठोंकते हुए अति मनोहरभावसे उछलने लगे। उस समय उनके पद- पदपर पृथिवी नहीं फटी, यही बड़ा आश्चर्य है ॥  तदनन्तर अमित-विक्रम कृष्णचन्द्र चाणूरके साथ और द्वन्द्वयुद्धकुशल राक्षस मुष्टिक बलभद्रके साथ युद्ध करने लगे ॥  कृष्णचन्द्र चाणूरके साथ परस्पर भिड़कर, नीचे गिराकर, उछालकर, घूंसे और वज्रके समान कोहनी मारकर, पैरोंसे ठोकर मारकर तथा एक दूसरेके अंगोंको रगड़कर लड़ने लगे। उस समय उनमें महान् युद्ध होने लगा ।। 

इस प्रकार उस समाजोत्सवके समीप केवल बल और प्राणशक्तिसे ही सम्पन्न होनेवाला उनका अति भयंकर और दारुण शस्त्रहीन युद्ध हुआ ।।  चाणूर जैसे-जैसे भगवान् से भिड़ता गया वैसे ही वैसे उसकी प्राणशक्ति थोड़ी-थोड़ी करके अत्यन्त क्षीण होती गयी ॥  जगन्मय भगवान् कृष्ण भी, श्रम और कोपके कारण अपने पुष्पमय शिरोभूषणोंमें लगे हुए केशरको हिलानेवाले उस चाणूर से लीलापूर्वक लड़ने लगे ॥ 

उस समय चाणूरके बलका क्षय और कृष्णचन्द्रके बलका उदय देख कंसने खीझकर तूर्य आदि बाजे बन्द करा दिये ॥  रंगभूमिमें मृदंग और तूर्य आदिके बन्द हो जानेपर आकाशमें अनेक दिव्य तूर्य एक साथ बजने लगे ॥ और देवगण अत्यन्त हर्षित होकर अलक्षितभावसे कहने लगे- ” हे गोविन्द ! आपकी जय हो। हे केशव ! आप शीघ्र ही इस चाणूर दानवको मार डालिये। ” ॥ 

भगवान् मधुसूदन बहुत देर तक चाणूर के साथ खेल करते रहे, फिर उसका वध करनेके लिये उद्यत होकर उसे उठाकर घुमाया ॥  शत्रुविजयी श्रीकृष्णचन्द्रने उस दैत्य मल्लको सैकड़ों बार घुमाकर आकाशमें ही निर्जीव हो जानेपर पृथिवीपर पटक दिया ॥  भगवान्‌के द्वारा पृथिवीपर गिराये जाते ही चाणूरके शरीरके सैकड़ों टुकड़े हो गये और उस समय उसने रक्तस्रावसे पृथिवीको अत्यन्त कीचड़मय कर दिया ॥  इधर, जिस प्रकार भगवान् कृष्ण चाणूरसे लड़ रहे थे, उसी प्रकार महाबली बलभद्रजी भी उस समय दैत्य मल्ल मुष्टिकसे भिड़े हुए थे ॥  बलरामजीने उसके मस्तकपर घूँसोंसे तथा वक्षःस्थलमें जानुसे प्रहार किया और उस गतायु दैत्यको पृथिवीपर पटककर रौंद डाला ॥ 

तदनन्तर श्रीकृष्णचन्द्रने महाबली मल्लराज तोशलको बायें हाथसे घूँसा मारकर पृथिवीपर गिरा दिया ॥ ७९ ॥ मल्ल श्रेष्ठ चाणूर और मुष्टिकके मारे जानेपर तथा मल्लराज तोशलके नष्ट होनेपर समस्त मल्लगण भाग गये ॥  तब कृष्ण और संकर्षण अपने समवयस्क गोपोंको बलपूर्वक खींचकर [आलिंगन करते हुए ] हर्षसे रंगभूमिमें उछलने लगे ॥ 

तदनन्तर कंसने क्रोधसे नेत्र लाल करके वहाँ एकत्रित हुए पुरुषोंसे कहा-“अरे! इस समाजसे इन ग्वालबालोंको बलपूर्वक निकाल दो ॥  पापी नन्दको लोहेकी श्रृंखलामें बाँधकर पकड़ लो तथा वृद्ध पुरुषोंके अयोग्य दण्ड देकर वसुदेवको भी मार डालो ॥  मेरे सामने कृष्णके साथ ये जितने गोपबालक उछल रहे हैं इन सबको भी मार डालो तथा इनकी गौएँ और जो कुछ अन्य धन हो वह सब छीन लो ” ॥

जिस समय कंस इस प्रकार आज्ञा दे रहा था, उसी समय श्रीमधुसूदन हँसते-हँसते उछलकर मंचपर चढ़ गये और शीघ्रतासे उसे पकड़ लिया ॥  भगवान् कृष्णने उसके केशोंको खींचकर उसे पृथिवीपर पटक दिया तथा उसके ऊपर आप भी कूद पड़े, इस समय उसका मुकुट सिरसे खिसककर अलग जा पड़ा ॥  सम्पूर्ण जगत्के आधार भगवान् कृष्णके ऊपर गिरते ही उग्रसेनात्मज राजा कंसने अपने प्राण छोड़ दिये ॥  तब महाबली कृष्णचन्द्रने मृतक कंसके केश पकड़कर उसके देहको रंगभूमिमें घसीटा ॥  कंसका देह बहुत भारी था, इसलिये उसे घसीटनेसे जलके महान् वेगसे हुई दरारके समान पृथिवीपर परिघा बन गयी ॥ 

श्रीकृष्णचन्द्रद्वारा कंसके पकड़ लिये जानेपर उसके भाई सुमालीने क्रोधपूर्वक आक्रमण किया। उसे बलरामजीने लीलासे ही मार डाला ॥  इस प्रकार मथुरापति कंसको कृष्णचन्द्रद्वारा अवज्ञापूर्वक मरा हुआ देखकर रंगभूमिमें उपस्थित सम्पूर्ण जनता हाहाकार करने लगी ॥ 

उसी समय महाबाहु कृष्णचन्द्र बलदेवजी-सहित वसुदेव और देवकीके चरण पकड़ लिये ॥  तब वसुदेव और देवकीको पूर्वजन्ममें कहे हुए भगवद्वाक्योंका स्मरण हो। -आया और उन्होंने श्रीजनार्दनको पृथिवीपरसे उठा लिया तथा उनके सामने प्रणतभावसे खड़े हो गये ॥ 

श्रीवसुदेवजी बोले- हे प्रभो! अब आप हमपर प्रसन्न होइये । हे केशव ! आपने आर्त्त देवगणोंको जो वर दिया था, वह हम दोनोंपर अनुग्रह करके पूर्ण कर दिया ॥  भगवन्! आपने जो मेरी आराधनासे दुष्टजनोंके नाशके लिये मेरे घरमें जन्म लिया, उससे हमारे कुलको पवित्र कर दिया है ॥  आप सर्वभूतमय हैं और समस्त भूतोंके भीतर स्थित हैं। हे समस्तात्मन्! भूत और भविष्यत् आपहीसे प्रवृत्त होते हैं ॥ 

हे अचिन्त्य ! हे सर्वदेवमय! हे अच्युत ! समस्त यज्ञोंसे आपहीका यजन किया जाता है तथा हे परमेश्वर । आप ही यज्ञ करनेवालोंके यष्टा और यज्ञस्वरूप हैं॥  हे जनार्दन ! आप तो सम्पूर्ण जगत्के उत्पत्ति- स्थान हैं, आपके प्रति पुत्रवात्सल्यके कारण जो मेरा और देवकीका चित्त भ्रान्तियुक्त हो रहा है यह बड़ी ही हँसीकी बात है ॥  आप आदि और अन्तसे रहित हैं तथा समस्त प्राणियोंके उत्पत्तिकर्त्ता हैं, ऐसा कौन मनुष्य है जिसकी जिह्वा आपको ‘पुत्र’ कहकर सम्बोधन करेगी ? ॥ 

हे जगन्नाथ ! जिन आपसे यह सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न हुआ है वही आप बिना मायाशक्तिके और किस प्रकार हमसे उत्पन्न हो सकते हैं ॥  जिसमें सम्पूर्ण स्थावर-जंगम जगत् स्थित है वह प्रभु कुक्षि (कोख) और गोदमें शयन करनेवाला मनुष्य कैसे हो सकता है ? ॥ 

हे परमेश्वर ! वही आप हमपर प्रसन्न होइये और अपने अंशावतारसे विश्वकी रक्षा कीजिये। आप मेरे पुत्र नहीं हैं। हे ईश ! ब्रह्मासे लेकर वृक्षादिपर्यन्त यह सम्पूर्ण जगत् आपहीसे उत्पन्न हुआ है, फिर हे पुरुषोत्तम ! आप हमें क्यों मोहित कर रहे हैं ? ॥  हे निर्भय! ‘आप मेरे पुत्र हैं’ इस मायासे मोहित होकर मैंने कंससे अत्यन्त भय माना था और उस शत्रुके भयसे ही मैं आपको गोकुल ले गया था।

हे ईश! आप वहीं रहकर इतने बड़े हुए हैं, इसलिये अब आपमें मेरी ममता नहीं रही है ॥  अबतक मैंने आपके ऐसे अनेक कर्म देखे हैं जो रुद्र, मरुद्गण, अश्विनीकुमार और इन्द्रके लिये भी साध्य नहीं हैं। अब मेरा मोह दूर हो गया है। हे ईश! [मैंने निश्चयपूर्वक जान लिया है कि] आप साक्षात् श्रीविष्णु भगवान् ही जगत्के उपकार के लिये प्रकट हुए हैं ॥ 

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