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32. केशि-वध

केशि

केशि दैत्य का आगमन

कंसके दूतद्वारा भेजा हुआ महाबली केशि भी कृष्णचन्द्र के वध की इच्छा से [ घोड़ेका रूप धारण कर] वृन्दावन में आया ॥  वह अपने खुरोंसे पृथिवीतलको खोदता, ग्रीवाके बालों से बादलों को छिन्न-भिन्न करता तथा वेग से चन्द्रमा और सूर्य के मार्ग को भी पार करता गोपोंकी ओर दौड़ा ॥  उस अश्वरूप दैत्यके हिनहिनाने के शब्द से भयभीत होकर समस्त गोप और गोपियाँ श्रीगोविन्द की शरण में आये ॥

श्रीकृष्ण का धैर्य और साहस 

तब उनके त्राहि-त्राहि शब्दको सुनकर भगवान् कृष्णचन्द्र सजल मेघ की गर्जना के समान गम्भीर वाणीसे बोले – ॥ ” हे गोपालगण! आपलोग केशी (केशधारी अश्व) – से न डरें, आप तो गोप-जातिके हैं, फिर इस प्रकार भयभीत होकर आप अपने वीरोचित पुरुषार्थका लोप क्यों करते हैं ? ॥ यह अल्पवीर्य, हिनहिनानेसे आतंक फैलानेवाला और नाचनेवाला दुष्ट अश्व जिसपर राक्षसगण बलपूर्वक चढ़ा करते हैं, आपलोगोंका क्या बिगाड़ सकता है ?” ॥ 

केशि और श्रीकृष्ण का युद्ध

[ इस प्रकार गोपोंको धैर्य बँधाकर वे केशि से कहने लगे- ] ” अरे दुष्ट! इधर आ, पिनाकधारी वीरभद्र ने जिस प्रकार पूषाके दाँत उखाड़े थे, उसी प्रकार मैं कृष्ण तेरे मुखसे सारे दाँत गिरा दूँगा “॥ ऐसा कहकर श्रीगोविन्द उछलकर केशि के सामने आये और वह अश्वरूपधारी दैत्य भी मुँह खोलकर उनकी ओर दौड़ा ॥ तब जनार्दन ने अपनी बाँह फैलाकर उस अश्वरूपधारी दुष्ट दैत्यके मुखमें डाल दी ॥  केशीके मुख में घुसी हुई भगवान् कृष्ण की बाहु से टकराकर उसके समस्त दाँत शुभ्र मेघखण्डों के समान टूटकर बाहर गिर पड़े ॥ 

 उत्पत्ति के समय से ही उपेक्षा की गयी व्याधि जिस प्रकार नाश करने के लिये बढ़ने लगती है, उसी प्रकार केशीके देहमें प्रविष्ट हुई कृष्णचन्द्र की भुजा बढ़ने लगी ॥ अन्त में ओठों के फट जाने से वह फेनसहित रुधिर वमन करने लगा और उसकी आँखें स्नायुबन्धन के ढीले हो जानेसे फूट गयीं ॥  तब वह मल-मूत्र छोड़ता हुआ पृथिवी पर पैर पटकने लगा, उसका शरीर पसीने से भरकर ठण्डा पड़ गया और वह निश्चेष्ट हो गया ॥ 

केशि का विनाश

इस प्रकार श्रीकृष्णचन्द्र की भुजा से जिसके मुख का विशाल रन्ध्र फैलाया गया है वह महान् असुर मरकर वज्रपातसे गिरे हुए वृक्षके समान दो खण्ड होकर पृथिवीपर गिर पड़ा ॥  केशीके शरीरके वे दोनों खण्ड दो पाँव, आधी पीठ, आधी मूँछ तथा एक-एक कान-आँख और नासिकारन्ध्र के सहित सुशोभित हुए ॥ 

इस प्रकार केशि को मारकर प्रसन्नचित्त ग्वालबालों से घिरे हुए श्रीकृष्णचन्द्र बिना श्रमके स्वस्थचित्तसे हँसते हुए वहीं खड़े रहे ॥  केशि के मारे जानेसे विस्मित हुए गोप और गोपियोंने अनुरागवश अत्यन्त मनोहर लगनेवाले कमलनयन श्रीश्यामसुन्दर की स्तुति की ॥ 

नारदजी का आगमन और स्तुति

 उसे मरा देख मेघपटल में छिपे हुए श्रीनारदजी हर्षितचित्तसे कहने लगे-  ” हे जगन्नाथ ! हे अच्युत ! ! आप धन्य हैं, धन्य हैं। अहा ! आपने देवताओंको दुःख देनेवाले इस केशीको लीलासे ही मार डाला ॥  मैं मनुष्य और अश्वके इस पहले और कहीं न होनेवाले युद्धको देखनेके लिये ही अत्यन्त उत्कण्ठित होकर स्वर्गसे यहाँ आया था ॥ हे मधुसूदन! आपने अपने इस अवतार में जो-जो कर्म किये हैं उनसे मेरा चित्त अत्यन्त विस्मित और सन्तुष्ट हो रहा है ॥

  हे कृष्ण ! जिस समय यह अश्व अपनी सटाओंको हिलाता और हींसता हुआ आकाश की ओर देखता था तो इससे सम्पूर्ण देवगण और इन्द्र भी डर जाते थे ॥  हे जनार्दन ! आपने इस दुष्टात्मा केशि को मारा है; इसलिये आप लोकमें ‘केशव’ नामसे विख्यात होंगे ॥  हे केशिनिषूदन ! आपका कल्याण हो, अब मैं जाता हूँ। परसों कंसके साथ आपका युद्ध होनेके समय मैं फिर आऊँगा ॥ 

श्रीकृष्ण का गोकुल में प्रवेश

हे पृथिवीधर ! अनुगामियों सहित उग्रसेन के पुत्र कंस के मारे जाने पर आप पृथिवी का भार उतार देंगे ॥  उस समय मैं अनेक राजाओंके साथ आप आयुष्मान् पुरुष के किये हुए अनेक प्रकार के युद्ध देखूँगा ॥  हे गोविन्द ! अब मैं जाना चाहता हूँ। आपने देवताओंका बहुत बड़ा कार्य किया है। आप सभी कुछ जानते हैं [ मैं अधिक क्या कहूँ?] आपका मंगल हो, मैं जाता हूँ”॥ 

तदनन्तर नारदजी के चले जाने पर गोपगण से सम्मानित गोपियों के नेत्रों के एकमात्र दृश्य श्रीकृष्णचन्द्र ने ग्वालबालों के साथ गोकुलमें प्रवेश किया ॥ 

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