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95. चंद्रमा और ग्रहों का वर्णन

चंद्रमा

चंद्रमा और ग्रहों का वर्णन

1. चंद्रमा का रथ और उसके घोड़े

चन्द्रमा का रथ तीन पहियोंवाला है , उसके वाम तथा दक्षिण ओर कुन्द- कुसुम के समान श्वेतवर्ण दस घोड़े जुते हुए हैं । ध्रुव के आधार पर स्थित उस वेगशाली रथ से चन्द्रदेव भ्रमण करते हैं । और नागवीथि पर आश्रित अश्विनी आदि नक्षत्रोंका भोग करते हैं ।

2. चंद्रमा की किरणें और उनका पोषण

सूर्य के समान इनकी किरणों के भी घटने – बढ़नेका निश्चित क्रम है ॥ सूर्य के समान समुद्रगर्भ से उत्पन्न हुए उसके घोड़े भी एक बार जो दिये जानेपर एक कल्पपर्यन्त रथ खींचते रहते हैं ॥ सुरगण के पान करते रहने से क्षीण हुए कलामात्र चन्द्रमा का प्रकाशमय सूर्यदेव अपनी एक किरण से पुनः पोषण करते हैं ॥ 

3. देवताओं और पितृगण का तृप्तिक्रम

देवगण चन्द्रमा का पान करते हैं उसी क्रम से जलापहारी सूर्यदेव उन्हें शुक्ला प्रतिपदा से प्रतिदिन पुष्ट करते हैं ॥ हे मैत्रेय ! इस प्रकार आधे महीने में एकत्रित हुए चन्द्रमा के अमृत को देवगण फिर पीने लगते हैं क्योंकि देवताओंका आहार तो अमृत ही है ॥ तैंतीस हजार , तैंतीस सौ , तैंतीस ( ३६३३३ ) देवगण चन्द्रस्थ अमृत का पान करते हैं ॥

4. अमावस्या और पितृगण का पोषण

जिस समय दो कलामात्र रहा हुआ चन्द्रमा सूर्यमण्डल में प्रवेश करके उसकी अमा नामक किरणमें रहता है वह तिथि अमावास्या कहलाती है ॥ उस दिन रात्रि में वह पहले तो जलमें प्रवेश करता है , फिर वृक्ष – लता आदि में निवास करता है  तदनन्तर क्रम से सूर्य में  चला जाता है ॥ वृक्ष और लता आदि में चन्द्रमा की स्थिति के समय [ अमावास्याको ] जो उन्हें काटता है अथवा उनका एक पत्ता भी तोड़ता है उसे ब्रह्महत्या का पाप लगता है ॥ केवल पन्द्रहवीं कलारूप यत्किंचित् भाग के बच रहने पर उस क्षीण चन्द्रमा को पितृगण मध्याह्नोत्तर काल में चारों ओरसे घेर लेते हैं ॥

5. चंद्रमा की अंतिम कलाएँ और पितृगण

उस समय उस द्विकलाकार चन्द्रमा की बची हुई अमृतमयी एक कला का वे पितृगण पान करते हैं ॥अमावास्या के दिन चन्द्र – रश्मि से निकले हुए उस सुधामृत का पान करके अत्यन्त तृप्त हुए सौम्य , बर्हिषद् और अग्निष्वात्ता तीन प्रकार के पितृगण एक मासपर्यन्त सन्तुष्ट रहते हैं ।

6. चंद्रमा का समग्र पोषण

इस प्रकार चन्द्र देव शुक्लपक्ष में देवताओंकी और कृष्णपक्ष में पितृगण की पुष्टि करते हैं तथा अमृतमय शीतल जलकणों से लता वृक्षादि का और लता- ओषधि आदि उत्पन्न करके तथा अपनी चन्द्रिका द्वारा आह्लादित करके वे मनुष्य , पशु एवं कीट – पतंगादि सभी प्राणियों का पोषण करते हैं ॥

ग्रहों का वर्णन

1. बुध का रथ

चन्द्रमा के पुत्र बुध का रथ वायु और अग्निमय द्रव्य का बना हुआ है और उसमें वायु के समान वेगशाली आठ पिशंगवर्ण घोड़े जुते हैं ॥

2. शुक्र का रथ

वरूथ ‘ , अनुकर्ष , उपासंग और पताका तथा पृथिवी से उत्पन्न हुए घोड़ों के सहित शुक्र का रथ भी अति महान् है ॥ 

3. मंगल का रथ

मंगल का अति शोभायमान सुवर्ण निर्मित महान् रथ भी अग्नि से उत्पन्न हुए , पद्मराग मणिक समान , अरुणवर्ण , आठ घोड़ोंसे युक्त है ॥

4. बृहस्पति का रथ

जो आठ पाण्डुरवर्ण घोड़ोंसे युक्त सुवर्णका रथ है । उसमें वर्ष के अन्त में प्रत्येक राशि में बृहस्पतिजी विराजमान होते हैं ॥

5. शनैश्चर का रथ

आकाश से उत्पन्न हुए विचित्रवर्ण घोड़ोंसे युक्त रथमें आरूढ़ होकर मन्दगामी शनैश्चरजी धीरे धीरे चलते हैं ॥

6. राहु का रथ

राहु का रथ धूसर ( मटियाले ) वर्ण का है , उसमें भ्रमर के समान कृष्णवर्ण आठ घोड़े जुते हुए हैं । हे मैत्रेय ! एक बार जोत दिये जाने पर वे घोड़े निरन्तर चलते रहते हैं ॥ चन्द्रपर्वों ( पूर्णिमा ) – पर यह राहु सूर्यसे निकलकर चन्द्रमा के पास आता है तथा सौरपवा ( अमावास्या ) पर यह चन्द्रमासे निकलकर सूर्यके निकट जाता है ॥

7. केतु का रथ

केतु के रथ के वायुवेगशाली आठ घोड़े भी पुआलके धएँकी – सी आभावाले तथा लाखके समान लाल रंगके हैं ॥ हे महाभाग ! मैंने तुमसे यह नवों ग्रहोंके रथोंका वर्णन किया ; ये सभी वायुमयी डोरी से ध्रुव के साथ बँधे हुए हैं ॥

समस्त ग्रहों का ध्रुव से संबंध

समस्त ग्रह , नक्षत्र और तारामण्डल वायुमयी रज्जुसे ध्रुवके साथ बँधे हुए यथोचित प्रकारसे घूमते रहते हैं ॥ जितने तारागण हैं उतनी ही वायुमयी डोरियाँ हैं । उनसे बँधकर वे सब स्वयं घूमते तथा ध्रुव को घुमाते रहते हैं ॥ जिस प्रकार तेली लोग स्वयं घूमते हुए कोल्हूको भी घुमाते रहते हैं उसी प्रकार समस्त ग्रहगण वायुसे बँधकर घूमते रहते हैं ॥ क्योंकि इस वायुचक्र से प्रेरित होकर समस्त ग्रहगण अलातचक्र ( बनैती ) के समान घूमा करते हैं , इसलिये यह ‘ प्रवह ‘ कहलाता है ॥

जिस शिशुमारचक्र का पहले वर्णन कर चुके हैं , तथा जहाँ ध्रुव स्थित है , अब तुम उसकी स्थिति का वर्णन सुनो ॥ रात्रिके समय उनका दर्शन करनेसे मनुष्य दिनमें जो कुछ पापकर्म करता है उनसे मुक्त हो जाता है तथा आकाशमण्डल में जितने तारे इसके आश्रित हैं उतने ही अधिक वर्ष वह जीवित रहता है ॥

शिशुमारचक्र का वर्णन

उत्तानपाद उसकी ऊपर की हनु ( ठोड़ी ) है और यज्ञ नीचेकी तथा धर्मने उसके मस्तकपर अधिकार कर रखा है ॥ उसके हृदय देशमें नारायण हैं , दोनों चरणोंमें अश्विनीकुमार हैं तथा जंघाओंमें वरुण और अर्यमा हैं ॥ संवत्सर उसका शिश्न है , मित्रने उसके अपान देशको आश्रित कर रखा है , तथा अग्नि , महेन्द्र , कश्यप और ध्रुव पुच्छभागमें स्थित हैं । शिशुमारके पुच्छभागमें स्थित ये अग्नि आदि चार तारे कभी अस्त नहीं होते ॥

इस प्रकार मैंने तुमसे पृथिवी , ग्रहगण , द्वीप , समुद्र , पर्वत , वर्ष और नदियोंका तथा जो – जो उनमें बसते हैं उन सभीके स्वरूपका वर्णन कर दिया । अब इसे संक्षेपसे फिर सुनो ॥ हे विप्र ! भगवान् विष्णुका जो मूर्तरूप जल है उससे पर्वत और समुद्रादिके सहित कमलके आकारवाली पृथिवी उत्पन्न हुई ॥ हे विप्रवर्य । तारागण , त्रिभुवन , वन , पर्वत , दिशाएँ , नदियाँ और समुद्र सभी भगवान् विष्णु ही हैं तथा और भी जो कुछ है अथवा नहीं है वह सब भी एकमात्र वे ही हैं ॥ क्योंकि भगवान् विष्णु ज्ञानस्वरूप हैं इसलिये वे सर्वमय हैं , परिच्छिन्न पदार्थाकार नहीं हैं । 

समस्त भौतिक वस्तुओं का विष्णु से संबंध

पर्वत , समुद्र और पृथिवी आदि भेदोंको तुम एकमात्र विज्ञानका ही विलास जानो ॥ जिस समय जीव आत्मज्ञानके द्वारा दोषरहित होकर सम्पूर्ण कर्मों का क्षय हो जाने से अपने शुद्ध – स्वरूप में स्थित हो जाता है उस समय आत्मवस्तुम् संकल्पवृक्षके फलरूप पदार्थ – भेदोंकी प्रतीति नहीं होती ॥ हे द्विज ! कोई भी घटादि वस्तु है ही कहाँ ? आदि , मध्य और अन्तसे रहित नित्य एकरूप चित् ही तो सर्वत्र व्याप्त है ।

जो वस्तु पुनः – पुनः बदलती रहती है , पूर्ववत् नहीं रहती , उसमें वास्तविकता ही क्या है ? देखो , मृत्तिका ही घटरूप हो जाती है और फिर वही घटसे कपाल , कपालसे चूर्णरज और रजसे अणुरूप हो जाती है । तो फिर बताओ अपने कर्मोंके वशीभूत हुए मनुष्य आत्मस्वरूप को भूलकर इसमें कौन – सी सत्य वस्तु देखते हैं ॥

ज्ञानमार्ग और कर्ममार्ग का वर्णन

विज्ञान से अतिरिक्त कभी कहीं कोई पदार्थादि नहीं हैं । अपने – अपने कर्मों के भेद से भिन्न – भिन्न चित्तों द्वारा एक ही विज्ञान नाना प्रकार से मान लिया गया है ॥ वह विज्ञान अति विशुद्ध , निर्मल , निःशोक और लोभादि समस्त दोषोंसे रहित है । वही एक सत्स्वरूप परम परमेश्वर वासुदेव है , जिससे पृथक् और कोई पदार्थ नहीं है ॥ इस प्रकार मैंने तुमसे यह परमार्थ का वर्णन किया है , केवल एक ज्ञान ही सत्य है , उससे भिन्न और सब असत्य है ।

इसके अतिरिक्त जो केवल व्यवहारमात्र है उस त्रिभुवन के विषय में भी मैं तुमसे कह चुका ॥ [ इस ज्ञान – मार्गके अतिरिक्त ] मैंने कर्म – मार्ग – सम्बन्धी यज्ञ , पशु , वहिन , समस्त ऋत्विक् , सोम , सुरगण तथा स्वर्गमय कामना आदिका भी दिग्दर्शन करा दिया । भूर्लोकादिके सम्पूर्ण भोग इन कर्म – कलापों के ही फल हैं ॥ ४६ यह जो मैंने तुमसे त्रिभुवनगत लोकों का वर्णन किया है इन्हीं में जीव कर्मवश घूमा करता है , ऐसा जानकर इससे विरक्त हो मनुष्यको वही करना चाहिये जिससे ध्रुव , अचल एवं सदा एकरूप भगवान् वासुदेवमें लीन हो जाय ॥

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