भगवान का मथुरा को प्रस्थान
यदुवंशी अक्रूरजी ने इस प्रकार चिन्तन करते श्रीगोविन्द के पास पहुँच कर उनके चरणोंमें सिर झुकाते हुए ‘मैं अक्रूर हूँ’ ऐसा कहकर प्रणाम किया ॥ भगवान ने भी अपने ध्वजा- वज्र-पद्मांकित करकमलों से उन्हें स्पर्शकर और प्रीतिपूर्वक अपनी ओर खींचकर गाढ़ आलिंगन किया ॥ तदनन्तर अक्रूरजी के यथायोग्य प्रणामादि कर चुकनेपर श्रीबलरामजी और कृष्णचन्द्र अति आनन्दित हो उन्हें साथ लेकर अपने घर आये ॥ फिर उनके द्वारा सत्कृत होकर यथायोग्य भोजनादि कर चुकने पर अक्रूर ने उनसे वह सम्पूर्ण वृत्तान्त कहना आरम्भ किया जैसे कि दुरात्मा दानव कंसने आनकदुन्दुभि वसुदेव और देवी देवकीको डाँटा था तथा जिस प्रकार वह दुरात्मा अपने पिता उग्रसेनसे दुर्व्यवहार कर रहा है और जिसलिये उसने उन्हें (अक्रूरजीको) वृन्दावन भेजा है ॥
भगवान देवकीनन्दनने यह सम्पूर्ण वृत्तान्त विस्तारपूर्वक सुनकर कहा—“हे दानपते ! ये सब बातें मुझे मालूम हो गयीं ॥ इस विषयमें मुझे जो उपयुक्त जान पड़ेगा वही करूँगा। अब तुम कंसको मेरे द्वारा मरा हुआ ही समझो, इसमें किसी और तरहका विचार न करो ॥ भैया बलराम और मैं दोनों ही कल तुम्हारे साथ मथुरा चलेंगे, हमारे साथ ही दूसरे बड़े-बूढ़े गोप भी बहुत- सा उपहार लेकर जायँगे ॥ हे वीर! आप यह रात्रि सुखपूर्वक बिताइये, किसी प्रकारकी चिन्ता न कीजिये । तीन रात्रिके भीतर मैं कंसको उसके अनुचरों सहित अवश्य मार डालूँगा” ॥
गोपियों की विरह-कथा
अक्रूरजी, श्रीकृष्णचन्द्र और बलराम जी सम्पूर्ण गोपोंको कंस की आज्ञा सुना नन्दगोप के घर सो गये ॥
दूसरे दिन निर्मल प्रभातकाल होते ही महातेजस्वी राम और कृष्ण को अक्रूरके साथ मथुरा चलनेकी तैयारी करते देख जिनकी भुजाओंके कंकण ढीले हो गये हैं वे गोपियाँ नेत्रोंमें आँसू भरकर तथा दुःखार्त्त होकर दीर्घ निश्श्वास छोड़ती हुई परस्पर कहने लगीं- ॥ “अब मथुरापुरी जाकर श्रीकृष्णचन्द्र फिर गोकुलमें क्यों आने लगे ? क्योंकि वहाँ तो ये अपने कानोंसे नगरनारियोंके मधुर आलापरूप मधु का ही पान करेंगे ॥
नगर की विदग्ध वनिताओं के विलासयुक्त वचनों के रसपान में आसक्त होकर फिर इनका चित्त गँवारी गोपियोंकी और क्यों जाने लगा ? ॥ आज निर्दयी दुरात्मा विधाताने समस्त व्रजके सारभूत (सर्वस्वस्वरूप) श्रीहरि को हरकर हम गोपनारियोंपर घोर आघात किया है ॥ नगरकी नारियोंमें भावपूर्ण मुसकानमयी बोली, विलासललित गति और कटाक्षपूर्ण चितवनकी स्वभावसे ही अधिकता होती है।
उनके विलास बन्धनों से बँधकर यह ग्राम्य हरि फिर किस युक्तिसे तुम्हारे [हमारे] पास आवेगा ? ॥ देखो, देखो, क्रूर एवं निर्दयी अक्रूरके बहकावे में आकर ये कृष्णचन्द्र रथपर चढ़े हुए मथुरा जा रहे हैं ॥ यह नृशंस अक्रूर क्या अनुरागीजनों के हृदयका भाव तनिक भी नहीं जानता? जो यह इस प्रकार हमारे नयनानन्द वर्धन नन्दनन्दन को अन्यत्र लिये जाता है ॥ देखो, यह अत्यन्त निष्ठुर गोविन्द रामके साथ रथपर चढ़कर जा रहे हैं: अरी! इन्हें रोकनेमें शीघ्रता करो”॥
[इसपर गुरुजनोंके सामने ऐसा करनेमें असमर्थता प्रकट करनेवाली किसी गोपीको लक्ष्य करके उसने फिर कहा-] “अरी! तू क्या कह रही है कि अपने गुरुजनोंके सामने हम ऐसा नहीं कर सकतीं ?” भला अब विरहाग्निसे भस्मीभूत हुई हमलोगोंका गुरुजन क्या करेंगे ? ॥ देखो, यह नन्दगोप आदि गोपगण भी उन्हीं के साथ जानेकी तैयारी कर रहे हैं। इनमेंसे भी कोई गोविन्द को लौटाने का प्रयत्न नहीं करता ॥ आजकी रात्रि मथुरावासिनी स्त्रियोंके लिये सुन्दर प्रभातवाली हुई है; क्योंकि आज उनके नयन-भृंग श्रीअच्युतके मुखारविन्दका मकरन्द पान करेंगे ॥
जो लोग इधरसे बिना रोक-टोक श्रीकृष्णचन्द्रका अनुगमन कर रहे हैं वे धन्य हैं, क्योंकि वे उनका दर्शन करते हुए अपने रोमांचयुक्त शरीरका वहन करेंगे ॥ ‘आज श्रीगोविन्दके अंग-प्रत्यंगों को देखकर मथुरावासियों के नेत्रों को अत्यन्त महोत्सव होगा ।आज न जाने उन भाग्यशालिनियोंने ऐसा कौन शुभ स्वप्न देखा है जो वे कान्तिमय विशाल नयनोंवाली (मथुरापुरीकी स्त्रियाँ) स्वच्छन्दतापूर्वक श्रीअधोक्षजको निहारेंगी ? ॥ अहो ! निष्ठुर विधाताने गोपियोंको महानिधि दिखलाकर आज उनके नेत्र निकाल लिये ॥ देखो! हमारे प्रति श्रीहरिके अनुरागमें शिथिलता आ जानेसे हमारे हाथों के कंकण भी तुरंत ही ढीले पड़ गये हैं ॥
भला हम-जैसी दुःखिनी अबलाओंपर किसे दया न आवेगी ? परन्तु देखो, यह क्रूर-हृदय अक्रूर तो बड़ी शीघ्रतासे घोड़ोंको हाँक रहा है ! ॥ देखो, यह कृष्णचन्द्र के रथ की धूलि दिखलायी दे रही है; किन्तु हा! अब तो श्रीहरि इतनी दूर चले गये कि वह धूलि भी नहीं दीखती’ ॥
इस प्रकार गोपियों के अति अनुराग सहित देखते-देखते श्रीकृष्णचन्द्रने बलरामजी के सहित व्रजभूमि को त्याग दिया ॥ तब वे राम, कृष्ण और अक्रूर शीघ्रगामी घोड़ोंवाले रथसे चलते- चलते मध्याह्नके समय यमुनातटपर आ गये ॥ वहाँ पहुँचनेपर अक्रूरने श्रीकृष्णचन्द्रसे कहा- “जबतक मैं यमुनाजल में मध्याह्नकालीन उपासना से निवृत्त होऊँ तब तक आप दोनों यहीं विराजें ॥ तब भगवान्के ‘बहुत अच्छा’ कहनेपर महामति अक्रूरजी यमुनाजल में घुसकर स्नान और आचमन आदि के अनन्तर परब्रह्म का ध्यान करने लगे ॥
उस समय उन्होंने देखा कि बलभद्रजी सहस्रफणावलिसे सुशोभित हैं, उनका शरीर कुन्दमालाओंके समान [शुभ्रवर्ण] है तथा नेत्र प्रफुल्ल कमलदलके समान विशाल हैं ॥ वे वासुकि और रम्भ आदि महासर्पोंसे घिरकर उनसे प्रशंसित हो रहे हैं तथा अत्यन्त सुगन्धित वनमालाओंसे विभूषित हैं ॥ वे दो श्याम वस्त्र धारण किये, सुन्दर → कर्णभूषण पहने तथा मनोहर कुण्डली (गँडुली) मारे जल के भीतर विराजमान हैं ॥
उनकी गोद में उन्होंने आनन्दमय कमलभूषण श्रीकृष्णचन्द्रको देखा, जो मेघके समान श्यामवर्ण, कुछ लाल-लाल विशाल नयनोंवाले, चतुर्भुज, मनोहर अंगोपांगोंवाले तथा शंख-चक्रादि आयुधों से सुशोभित हैं; जो पीताम्बर पहने हुए हैं और विचित्र वनमालासे विभूषित हैं, तथा [उनके कारण ] इन्द्रधनुष और विद्युन्मालामण्डित सजल मेघके समान जान पड़ते हैं तथा जिनके वक्षःस्थलमें श्रीवत्सचिह्न और कानोंमें देदीप्यमान मकराकृत कुण्डल विराजमान हैं ॥ [ अक्रूरजीने यह भी देखा कि] सनकादि मुनिजन और निष्पाप सिद्ध तथा योगिजन उस जलमें ही स्थित होकर नासिकाग्र दृष्टिसे उन (श्रीकृष्णचन्द्र) – का ही चिन्तन कर रहे हैं ॥
इस प्रकार वहाँ राम और कृष्णको पहचानकर अक्रूरजी बड़े ही विस्मित हुए और सोचने लगे कि ये यहाँ इतनी शीघ्रतासे रथसे कैसे आ गये ? ॥ जब उन्होंने कुछ कहना चाहा तो भगवान्ने उनकी वाणी रोक दी। तब वे जलसे निकलकर रथके पास आये और देखा कि वहाँ भी राम और कृष्ण दोनों ही मनुष्य शरीरसे पूर्ववत् रथपर बैठे हुए हैं । तदनन्तर, उन्होंने जलमें घुसकर उन्हें फिर गन्धर्व, सिद्ध, मुनि और नागादिकोंसे स्तुति किये जाते देखा ॥ तब तो दानपति अक्रूरजी वास्तविक रहस्य जानकर उन सर्वविज्ञानमय अच्युत भगवान्की स्तुति करने लगे ॥
अक्रूर जी का मोह
अक्रूरजी बोले- जो सन्मात्रस्वरूप, अचिन्त्यमहिम, सर्वव्यापक तथा [ कार्यरूपसे] अनेक और [ कारणरूपसे ] एक रूप हैं उन परमात्माको नमस्कार है, नमस्कार है ॥ हे अचिन्तनीय प्रभो! आप सर्वरूप एवं हविः स्वरूप परमेश्वरको नमस्कार है। आप बुद्धिसे अतीत और प्रकृतिसे परे हैं, आपको बारम्बार नमस्कार है ॥ आप भूतस्वरूप, इन्द्रियस्वरूप और प्रधानस्वरूप हैं तथा आप ही जीवात्मा और परमात्मा हैं। इस प्रकार आप अकेले ही पाँच प्रकारसे स्थित हैं ॥ हे सर्व! हे सर्वात्मन्! हे क्षराक्षरमय ईश्वर ! आप प्रसन्न होइये। एक आप ही ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि कल्पनाओंसे वर्णन किये जाते हैं ॥ हे परमेश्वर ! आपके स्वरूप, प्रयोजन और नाम आदि सभी अनिर्वचनीय हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥
हे नाथ! जहाँ नाम और जाति आदि कल्पनाओंका सर्वथा अभाव है आप वही नित्य अविकारी और अजन्मा परब्रह्म हैं ॥ क्योंकि कल्पनाके बिना किसी भी पदार्थका ज्ञान नहीं होता इसीलिये आपका कृष्ण, अच्युत, अनन्त और विष्णु आदि नामोंसे स्तवन किया जाता है [ वास्तवमें तो आपका किसी भी नामसे निर्देश नहीं किया जा सकता] ॥
हे अज! जिन देवता आदि कल्पनामय पदार्थोंसे अनन्त विश्वकी उत्पत्ति हुई है वे समस्त पदार्थ आप ही हैं तथा आप ही विकारहीन आत्मवस्तु हैं, अतः आप विश्वरूप हैं। हे प्रभो ! इन सम्पूर्ण पदार्थोंमें आपसे भिन्न और कुछ भी नहीं है ॥ आप ही ब्रह्मा, महादेव, अर्यमा, विधाता, धाता, इन्द्र, वायु, अग्नि, वरुण, कुबेर और यम हैं। इस प्रकार एक आप ही भिन्न-भिन्न कार्यवाले अपनी शक्तियोंके भेदसे इस सम्पूर्ण जगत्की रक्षा कर रहे हैं ।
हे विश्वेश! सूर्यकी किरणरूप होकर आप ही [वृष्टिद्वारा ] विश्वकी रचना करते हैं, अतः यह गुणमय प्रपंच आपका ही रूप है। ‘सत्’ पद [‘ॐ तत्, सत्’ इस रूपसे] जिसका वाचक है वह ‘ॐ’ अक्षर आपका परम स्वरूप है, आपके उस ज्ञानात्मा सदसत्स्वरूपको नमस्कार है ॥ हे प्रभो ! वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्धस्वरूप आपको बारम्बार नमस्कार है॥