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73. नग्न विषयक प्रश्न , देवताओं का पराजय , उनका भगवान्‌ की शरण में जाना और भगवान्का मायामोह को प्रकट करना

नग्न

नग्न का अर्थ और परिभाषा

 नपुंसक , अपविद्ध और रजस्वला आदिको तो मैं अच्छी तरह जानता हूँ [ किन्तु यह नहीं जानता कि ‘ नग्न ‘ किसको कहते हैं ] । अतः इस समय मैं नग्न के विषय में जानना चाहता हूँ ॥ नग्न कौन है ? और किस प्रकारके आचरणवाला पुरुष नग्न संज्ञा प्राप्त करता है ? हे धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ ! मैं आपके द्वारा नग्नके स्वरूपका यथावत् वर्णन सुनना चाहता हूँ ; क्योंकि आपको कोई भी बात अविदित नहीं है ॥

वेदत्रयी का महत्व

ऋक् , साम और यजुः यह वेदत्रयी वर्णों का आवरणस्वरूप है । जो पुरुष मोह से इसका त्याग कर देता है वह पापी ‘ नग्न ‘ कहलाता है ॥ हे ब्रह्मन् ! समस्त वर्णोंका संवरण ( ढँकनेवाला वस्त्र ) वेदत्रयी ही है ; इसलिये उसका त्याग कर देनेपर पुरुष ‘ नग्न ‘ हो जाता है , इसमें कोई सन्देह नहीं ॥ हमारे पितामह धर्मज्ञ वसिष्ठजी ने इस विषय में महात्मा भीष्मजी से जो कुछ कहा था वह श्रवण करो ॥

हे मैत्रेय ! तुमने जो मुझसे नग्न के विषय में पूछा है , इस सम्बन्ध में भीष्म के प्रति वर्णन करते समय मैंने भी महात्मा वसिष्ठजी का कथन सुना था ॥ पूर्वकाल में किसी समय सौ दिव्यवर्ष तक देवता और असुरों का परस्पर युद्ध हुआ । उसमें ह्राद प्रभृति दैत्यों द्वारा देवगण पराजित हुए ॥ अतः देवगण ने क्षीरसागर के उत्तरीय तटपर जाकर तपस्या की और भगवान् विष्णु की आराधना के लिये उस समय इस स्तव का गान किया ॥

भगवान विष्णु के विभिन्न रूपों की स्तुति

देवगण बोले- हम लोग लोकनाथ भगवान् विष्णु की आराधना के लिये जिस वाणी का उच्चारण करते हैं , उससे वे आद्य पुरुष श्रीविष्णुभगवान् प्रसन्न हों ॥ जिन परमात्मा से सम्पूर्ण भूत उत्पन्न हुए हैं और जिनमें वे सब अन्त में लीन हो जायँगे , संसार में उनकी स्तुति करने में कौन समर्थ है ? ॥ हे प्रभो ! यद्यपि आपका यथार्थ स्वरूप वाणी का विषय नहीं है तो भी शत्रुओं के हाथ से विध्वस्त होकर पराक्रम हीन हो जाने के कारण हम अभय प्राप्ति के लिये आपकी स्तुति करते हैं ॥

पृथिवी , जल , अग्नि , वायु , आकाश , अन्तःकरण , मूल – प्रकृति और प्रकृति से परे पुरुष – ये सब आप ही हैं ॥ हे सर्वभूतात्मन् ! ब्रह्मासे लेकर स्तम्बपर्यन्त स्थान और कालादि भेदयुक्त यह मूर्त्तामूर्त्त पदार्थमय सम्पूर्ण प्रपंच आपहीका शरीर है ॥ आपके नाभि – कमल से विश्व के उपकारार्थ प्रकट हुआ जो आपका प्रथम रूप है , हे ईश्वर ! उस ब्रह्मस्वरूप को नमस्कार है ॥ इन्द्र , सूर्य , रुद्र , वसु , अश्विनीकुमार , मरुद्गण और सोम आदि भेदयुक्त हमलोग देवरूप को भी आपहीका एक रूप हैं ; अत : आपके उस नमस्कार है ॥ हे गोविन्द ! जो दम्भमयी , अज्ञानमयी । तथा तितिक्षा और दम्भ से शून्य है , आपकी उस दैत्य मूर्ति को नमस्कार है ॥

विभिन्न गुण और रूप

जिस मन्दसत्त्व स्वरूप में हृदय की नाड़ियाँ अत्यन्त ज्ञानवाहिनी नहीं होतीं तथा जो शब्दादि विषयों का लोभी होता है , आपके उस यक्षरूप को नमस्कार है ॥ हे पुरुषोत्तम ! आपका जो क्रूरता और माया से युक्त घोर तमोमय रूप है , उस राक्षसस्वरूप को नमस्कार है ॥ हे जनार्दन ! जो स्वर्ग में रहने वाले धार्मिक जनोंके यागादि सद्धर्मों के फल ( सुखादि ) – की प्राप्ति करानेवाला आपका धर्म नामक रूप है उसे नमस्कार है ॥

जो जल – अग्नि आदि गमनीय स्थानों में जाकर भी सर्वदा निर्लिप्त और प्रसन्नतामय रहता है वह सिद्ध नामक रूप आपहीका है ; ऐसे सिद्धस्वरूप आपको नमस्कार है ॥ हे हरे ! जो अक्षमाका आश्रय अत्यन्त क्रूर और कामोपभोग में समर्थ आपका द्विजिह्व ( दो जीभवाला ) रूप है , उन नागस्वरूप आपको नमस्कार है ॥ हे विष्णो ! जो ज्ञानमय , शान्त , दोषरहित और कल्मषहीन है , उस आपके मुनिमय स्वरूप को नमस्कार है ॥ जो कल्पान्तमें अनिवार्यरूप से समस्त भूतों का भक्षण कर जाता है , हे पुण्डरीकाक्ष ! आपके उस काल स्वरूप को नमस्कार है ॥

अन्य महत्वपूर्ण रूप

जो प्रलयकाल में देवता आदि समस्त प्राणियों को सामान्य भावसे भक्षण करके नृत्य करता है आपके उस रुद्रस्वरूप को नमस्कार है ॥ रजोगुण की प्रवृत्ति के कारण जो कर्मों का करणरूप है , हे जनार्दन ! आपके उस मनुष्यात्मक स्वरूप को नमस्कार है ॥ हे सर्वात्मन् ! जो अट्ठाईस वध – युक्त तमोमय और उन्मार्गगामी है आपके उस पशुरूपको नमस्कार है ॥ जो जगत्की स्थितिका साधन और यज्ञका अंगभूत है तथा वृक्ष , लता , गुल्म , वीरुध , तृण और गिरि – इन छः भेदोंसे युक्त हैं उन मुख्य ( उद्भिद् ) -रूप आपको नमस्कार है ॥ तिर्यक् मनुष्य तथा देवता आदि प्राणी , आकाशादि पंचभूत और शब्दादि उनके गुण ये सब , सबके आदिभूत आपहीके रूप हैं ; अतः आप सर्वात्माको नमस्कार है ॥

हे परमात्मन् ! प्रधान और महत्तत्त्वादिरूप इस सम्पूर्ण जगत्से जो परे है , सबका आदि कारण है तथा जिसके समान कोई अन्य रूप नहीं है , आपके उस प्रकृति आदि कारणोंके भी कारण रूपको नमस्कार है ॥ हे भगवन् ! जो शुक्लादि रूपसे , दीर्घता आदि परिमाणसे तथा घनता आदि गुणोंसे रहित है , इस प्रकार जो समस्त विशेषणोंका अविषय है , तथा परमर्षियोंका दर्शनीय एवं शुद्धातिशुद्ध है , आपके उस स्वरूपको हम नमस्कार करते हैं ॥

जो हमारे शरीरोंमें , अन्य प्राणियोंके शरीरों में तथा समस्त वस्तुओंमें वर्तमान अजन्मा और अविनाशी है तथा जिससे अतिरिक्त और कोई भी नहीं है , उस ब्रह्मस्वरूपको हम नमस्कार करते हैं ॥ परम पद ब्रह्म ही जिनका आत्मा है ऐसे जिस सनातन और अजन्मा भगवान्का यह सकल प्रपंच रूप है , उस सबके बीजभूत , अविनाशी और निर्मल प्रभु वासुदेवको हम नमस्कार करते हैं ॥ 

उन्हें देखकर समस्त देवताओंने प्रणाम करनेके अनन्तर उनसे कहा- ” हे नाथ ! प्रसन्न होइये और हम शरणागतोंकी दैत्योंसे रक्षा कीजिये ॥ है परमेश्वर ! ह्राद प्रभृति दैत्यगणने ब्रह्माजीकी आज्ञाका भी उल्लंघन कर हमारे और त्रिलोकीके यज्ञभागों का अपहरण कर लिया है ॥ यद्यपि हम और वे सर्वभूत आपहीके अंशज हैं तथापि अविद्यावश हम जगत्को परस्पर भिन्न – भिन्न देखते हैं ॥हमारे शत्रुगण अपने वर्णधर्मका पालन करनेवाले , वेदमार्गावलम्बी और तपोनिष्ठ हैं , अतः वे हमसे नहीं मारे जा सकते ॥

अतः हे सर्वात्मन् ! जिससे हम उन असुरोंका वध करनेमें समर्थ हों ऐसा कोई उपाय आप हमें बतलाइये ” ॥ उनके ऐसा कहनेपर भगवान् विष्णुने अपने शरीरसे मायामोहको उत्पन्न किया और देवताओंको देकर कहा— “ यह मायामोह उन सम्पूर्ण दैत्यगणको मोहित कर देगा , तब वे वेदमार्गका उल्लंघन करनेसे तुमलोगोंसे मारे । जा सकेंगे ॥ हे देवगण ! जो कोई देवता अथवा दैत्य ब्रह्माजी के कार्य में बाधा डालते हैं वे सष्टिकी रक्षामें तत्पर मेरे वध्य होते हैं ॥

अतः हे देवगण ! अब तुम जाओ , डरो मत । यह मायामोह आगे से जाकर तुम्हारा उपकार करेगा ” ॥भगवान्की ऐसी आज्ञा होने पर देवगण उन्हें प्रणाम कर जहाँसे आये थे वहाँ चले गये , तथा उनके साथ मायामोह भी जहाँ असुरगण थे वहाँ गया ॥

 

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