Site icon HINDU DHARMAS

72. मायामोह और असुरों का संवाद तथा राजा शतधनु की कथा

मायामोह

मायामोह का आगमन और असुरों का तपस्या

तदनन्तर मायामोह ने [ देवताओंके साथ ] जाकर देखा कि असुरगण नर्मदा के तटपर तपस्या में लगे हुए हैं ॥ तब उस मयूरपिच्छधारी दिगम्बर और मुण्डित केश मायामोह ने असुरों से अति मधुर वाणी में इस प्रकार कहा ॥

मायामोह का आगमन और संवाद

मायामोह बोला- हे दैत्यपतिगण ! कहिये , आपलोग किस उद्देश्य से तपस्या कर रहे हैं , आपको किसी लौकिक फल की इच्छा है या पारलौकिक की ? ॥ असुरगण बोले- हे महामते । हम लोगों ने पारलौकिक फल की कामना से तपस्या आरम्भ की है । इस विषय में तुमको हमसे क्या कहना है ? ॥ मायामोह बोला- यदि आपलोगों को मुक्ति की इच्छा है तो जैसा मैं कहता हूँ वैसा करो । आपलोग मुक्ति के खुले द्वाररूप इस धर्म का आदर कीजिये ॥ यह धर्म मुक्ति में परमोपयोगी है । इससे श्रेष्ठ अन्य कोई धर्म नहीं है । इसका अनुष्ठान करने से आपलोग स्वर्ग अथवा मुक्ति जिसकी कामना करेंगे प्राप्त कर लेंगे । आप सब लोग महाबलवान् हैं , अतः इस धर्म का आदर कीजिये ॥

श्रीपराशरजी बोले- इस प्रकार नाना प्रकार की युक्तियों से अतिरंजित वाक्यों  द्वारा मायामोह ने दैत्यगण को वैदिक मार्ग से भ्रष्ट कर दिया ॥ ‘ यह धर्मयुक्त है और यह धर्मविरुद्ध है , यह सत् है और यह असत् है , यह मुक्ति कारक है और इससे मुक्ति नहीं होती , यह आत्यन्तिक परमार्थ है और यह परमार्थ नहीं है , यह कर्तव्य है और यह अकर्तव्य है , यह ऐसा नहीं है और यह स्पष्ट ऐसा ही है , यह दिगम्बरों का धर्म है और यह साम्बरों का धर्म है’– हे द्विज ! ऐसे अनेक प्रकार के अनन्त वादोंको दिखलाकर मायामोह ने उन दैत्योंको स्वधर्म से च्युत कर दिया ॥ मायामोह ने दैत्यों से कहा था कि आपलोग इस महाधर्म को ‘ अर्हत ‘ अर्थात् इसका आदर कीजिये ।

अतः उस धर्मका अवलम्बन करनेसे वे ‘ आर्हत ‘ कहलाये ॥ मायामोह ने असुरगण को त्रयीधर्म से विमुख कर दिया और वे मोहग्रस्त हो गये ; तथा पीछे उन्होंने अन्य दैत्यों को भी इसी धर्म में प्रवृत्त किया ॥ उन्होंने दूसरे दैत्यों को , दूसरोंने तीसरों को , तीसरों ने चौथों को तथा उन्होंने औरों को इसी धर्म में प्रवृत्त किया । इस प्रकार थोड़े ही दिनों में दैत्यगण ने वेदत्रयीका प्रायः त्याग कर दिया ॥ तदनन्तर जितेन्द्रिय मायामोह ने रक्तवस्त्र धारणकर अन्यान्य असुरों के पास जा उनसे मृदु , अल्प और मधुर शब्दों में कहा— “ हे असुरगण ! यदि तुम लोगों को स्वर्ग अथवा मोक्षकी इच्छा है तो पशुहिंसा आदि दुष्टकर्मों को त्यागकर बोध प्राप्त करो ॥

दैत्यगण का वैदिक धर्म का त्याग

यह सम्पूर्ण जगत् विज्ञानमय है। इस विषय में बुधजनों का ऐसा ही मत है कि यह संसार अनाधार है , भ्रमजन्य पदार्थों की प्रतीति  पर ही स्थिर है तथा रागादि दोषों से दूषित है । इस संसार संकट में जीव अत्यन्त भटकता रहा है ॥ इस प्रकार ‘ बुध्यत ( जानो ) , बुध्यध्वं ( समझो ) , बुध्यत ( जानो ) ‘ आदि शब्दोंसे बुद्धधर्म का निर्देश कर मायामोह ने दैत्यों से उनका निजधर्म छुड़ा दिया ॥ मायामोह ने ऐसे नाना प्रकार के युक्तियुक्त वाक्य कहे जिससे उन दैत्यगणने त्रयीधर्म को त्याग दिया ॥

उन दैत्यगण ने अन्य दैत्यों से तथा उन्होंने अन्यान्य से ऐसे ही वाक्य कहे । इस प्रकार उन्होंने श्रुतिस्मृतिविहित अपने परम धर्म को त्याग दिया ॥ हे द्विज ! मोहकारी मायामोह ने और अनेकानेक दैत्यों को भिन्न – भिन्न प्रकार के विविध पाखण्डों से मोहित कर दिया ॥ इस प्रकार थोड़े ही समय में मायामोहके द्वारा मोहित होकर असुरगणने वैदिक धर्मकी बातचीत करना भी छोड़ दिया ॥

हे द्विज ! उनमें से कोई वेदों की , कोई देवताओं की , कोई याज्ञिक कर्म – कलापों की तथा कोई ब्राह्मणों की निन्दा करने लगे ॥ [ वे कहने लगे- ] ” हिंसा से भी धर्म होता है – यह बात किसी प्रकार युक्तिसंगत नहीं है । अग्नि में हवि जलाने से फल होगा – यह भी बच्चों की सी बात है ॥ अनेको यज्ञोंके द्वारा देवत्व लाभ करके यदि इन्द्र को शमी आदि काष्ठ का ही भोजन करना पड़ता है तो इससे तो पत्ते खानेवाला पशु ही अच्छा है ॥

यदि यज्ञ में बलि किये गये पशुको स्वर्ग की प्राप्ति होती है तो यजमान अपने पिता को ही क्यों नहीं मार डालता ? ॥ यदि किसी अन्य पुरुष के भोजन करने से भी किसी पुरुषकी तृप्ति हो सकती है तो विदेश की यात्रा के समय खाद्य पदार्थ ले जानेका परिश्रम करने की क्या आवश्यकता है ; पुत्रगण घर पर ही श्राद्ध कर दिया करें ॥

अतः यह समझकर कि ‘ यह ( श्राद्धादि कर्मकाण्ड ) लोगों की अन्ध – श्रद्धा ही है,इसके प्रति उपेक्षा करनी चाहिये और अपने श्रेयः साधन के लिये जो कुछ मैंने कहा है उसमें रुचि करनी चाहिये ॥ हे असुरगण ! श्रुति आदि आप्तवाक्य कुछ आकाशसे नहीं गिरा करते । हम , तुम और अन्य सबको भी युक्तियुक्त वाक्यों को ग्रहण कर लेना चाहिये।

इस प्रकार अनेक युक्तियों से मायामोह ने दैत्यों को विचलित कर दिया जिससे उनमें से किसी की भी वेदत्रयी में रुचि नहीं रही ॥ इस प्रकार दैत्यों के विपरीत मार्ग में प्रवृत्त हो जाने पर देवगण खूब तैयारी करके उनके पास युद्ध के लिये उपस्थित हुए । हे द्विज ! तब देवता और असुरों में पुनः संग्राम छिड़ा ।

उसमें सन्मार्गविरोधी दैत्यगण देवताओं द्वारा मारे गये ॥ हे द्विज ! पहले दैत्यों के पास जो स्वधर्मरूप कवच था उसीसे उनकी रक्षा हुई थी । अबकी बार उसके नष्ट हो जाने से वे भी नष्ट हो गये ॥ हे मैत्रेय । उस समयसे जो लोग मायामोह द्वारा प्रवर्तित मार्ग का अवलम्बन करने वाले हुए ; वे ‘ नग्न ‘ कहलाये क्योंकि उन्होंने वेदत्रयीरूप वस्त्र को त्याग दिया था ॥

वैदिक धर्म का महत्व और पाखण्ड का दोष

वैदिक धर्म का महत्व

ब्रह्मचारी , गृहस्थ , वानप्रस्थ और संन्यासी- ये चार ही आश्रमी हैं । इनके अतिरिक्त पाँचवाँ आश्रमी और कोई नहीं है ॥ जो पुरुष गृहस्थाश्रम को छोड़ने के अनन्तर वानप्रस्थ या संन्यासी नहीं होता वह पापी ही है ॥ हे विप्र ! सामर्थ्य रहते हुए भी जो विहित कर्म नहीं करता वह उसी दिन पतित हो जाता है और उस एक दिन – रात में ही उसके सम्पूर्ण नित्यकर्मों का क्षय हो जाता है ॥ आपत्तिकाल को छोड़कर और किसी समय एक पक्ष तक नित्यकर्म का त्याग करनेवाला पुरुष महान् प्रायश्चित्त से ही शुद्ध हो सकता है ॥ जो पुरुष एक वर्ष तक नित्य – क्रिया नहीं करता उस पर दृष्टि पड़ जानेसे साधु पुरुष को सदा सूर्यका दर्शन करना चाहिये ॥

हे महामते ! ऐसे पुरुष का स्पर्श होनेपर वस्त्रसहित स्नान करने से शुद्धि हो सकती है और उस पापात्मा की शुद्धि तो किसी भी प्रकार नहीं हो सकती ॥ जिस मनुष्यके घर से देवगण , ऋषिगण , पितृगण और भूतगण बिना पूजित हुए निःश्वास छोड़ते अन्यत्र चले जाते हैं , लोक में उससे बढ़कर और कोई पापी नहीं है ॥

हे द्विज ! ऐसे पुरुष के साथ एक वर्षतक सम्भाषण , कुशलप्रश्न और उठने – बैठने से मनुष्य उसीके समान पापात्मा हो जाता है ॥ जिसका शरीर अथवा गृह देवता आदिके नि : श्वास से निहत है उसके साथ अपने गृह , आसन और वस्त्र आदिको न मिलावे ॥ जो पुरुष उसके घर में भोजन करता, उसका आसन ग्रहणकरता है अथवा उसके साथ एक ही शय्यापर शयन करता द है वह शीघ्र ही उसीके समान हो जाता है ॥

पाखण्ड का दोष

जो मनुष्य देवता , पितर , भूतगण और अतिथियों का पूजन किये बिना स्वयं भोजन करता है वह पापमय भोजन करता है ; उसकी शुभगति नहीं हो सकती ॥ जो ब्राह्मणादि वर्ण स्वधर्म को छोड़कर परथमो में प्रवृत्त होते हैं अथवा हीनवृत्ति का अवलम्बन करते हैं वे ‘ नग्न ‘ कहलाते हैं ॥ हे मैत्रेय ! जिस स्थान में चारों वर्णों का अत्यन्त मिश्रण हो उसमें रहने से पुरुष को साधु वृत्तियों  का क्षय हो जाता है ॥ जो पुरुष ऋषि , देव , पितृ , भूत और अतिथिगण का पूजन किये बिना भोजन करता है उससे सम्भाषण करने से भी लोग नरक में पड़ते हैं ॥ अतः वेदत्रयी के त्याग से दूषित इन नग्नॉके साथ प्राज्ञपुरुष सर्वदा सम्भाषण और स्पर्श आदिका भी त्याग कर दे ॥

यदि इनकी दृष्टि पड़ जाय तो श्रद्धावान् पुरुषों का यत्नपूर्वक किया हुआ श्राद्ध देवता अथवा पितृ – पितामहगण की तृप्ति नहीं करता ॥ सुना जाता है , पूर्वकाल में पृथिवीतल पर शतधनु नाम से विख्यात एक राजा था । उसकी पत्नी शैव्या अत्यन्त धर्मपरायणा थी ॥ वह महाभागा पतिव्रता सत्य , शौच और दया से युक्त तथा विनय और नीति आदि सम्पूर्ण सुलक्षणों से सम्पन्ना थी ॥ उस महारानी के साथ राजा शतधनु ने परम समाधि द्वारा सर्वव्यापक , देवदेव श्रीजनार्दन की आराधना की ॥

वे प्रतिदिन तन्मय होकर अनन्यभाव से होम , जप , दान , सर्वव्यापक , देवदेव श्रीजनार्दन की आराधना की ॥ उपवास और पूजन आदि द्वारा भगवान्‌ की भक्ति पूर्वक आराधना करने लगे ॥ हे द्विज ! एक दिन कार्तिकी पूर्णिमा को उपवास कर उन दोनों पति – पत्नियों ने श्रीगंगाजी में एक साथ ही स्नान करनेके अनन्तर बाहर आनेपर एक पाखण्डी को सामने आता देखा ॥ यह ब्राह्मण उस महात्मा राजा के धनुर्वेदाचार्य का मित्र था ; अतः आचार्यके गौरव वश राजा ने भी उससे मित्रवत् व्यवहार किया ॥

किन्तु उसकी पतिव्रता पत्नी ने उसका कुछ भी आदर नहीं किया ; वह मौन रही और यह सोचकर कि मैं उपोषिता ( उपवासयुक्त ) हूँ उसे देखकर सूर्य का दर्शन किया ॥ हे द्विजोत्तम ! फिर उन स्त्री – पुरुषों ने यथारीति आकर भगवान् विष्णु के पूज आदिक सम्पूर्ण कर्म विधिपूर्वक किये ॥ कालान्तरमें वह शत्रुजित् राजा मर गया । तब देवी शैव्या ने भी चितारूढ़ महाराज का अनुगमन किया ॥

शतधनु राजा और शैव्या की कथा

राजा शतधनु ने उपवास अवस्था में पाखण्डी से वार्तालाप किया था । अतः उस पाप के कारण उसने कुत्तेका जन्म लिया ॥ तथा वह शुभलक्षणा काशीनरेश की कन्या हुई , जो सब प्रकार के विज्ञान से युक्त , सर्वलक्षणसम्पन्ना और जातिस्मरा ( पूर्वजन्मका वृत्तान्त जाननेवाली ) थी ॥ राजाने उसे किसी वरको देनेकी इच्छा की , किन्तु उस सुन्दरी के ही रोक देने पर वह उसके विवाहादि से उपरत हो गये ॥ तब उसने दिव्य दृष्टि से अपने पति को श्वान हुआ जान विदिशा नामक नगर में जाकर उसे वहाँ कुत्तेकी अवस्था में देखा ॥ अपने महाभाग पति को श्वानरूप में देखकर उस सुन्दरी ने उसे सत्कारपूर्वक अति उत्तम भोजन कराया ॥

शैव्या द्वारा राजा का उद्धार

उसके दिये हुए उस अति मधुर और इच्छित अन्न को खाकर वह अपनी जाति के अनुकूल नाना प्रकार की चाटुता प्रदर्शित करने लगा ॥ उसके चाटुता करने से अत्यन्त संकुचित हो उस बालिका ने कुत्सित योनिमें उत्पन्न हुए उस अपने प्रियतम को प्रणाम कर उससे इस प्रकार कहा- ॥ ” महाराज ! आप अपनी उस उदारता का स्मरण कीजिये जिसके कारण आज आप श्वान – योनि को प्राप्त होकर मेरे चाटुकार हुए हैं ॥ हे प्रभो ! क्या आपको यह स्मरण नहीं है कि तीर्थस्नानके अनन्तर पाखण्डी से वार्तालाप करने के कारण ही आपको यह कुत्सित योनि मिली है ? ” इस प्रकार स्मरण कराये जाने पर उसने बहुत देरतक अपने पूर्वजन्म का चिन्तन किया । तब उसे अति दुर्लभ निर्वेद प्राप्त हुआ ॥

उसने अति उदास चित्तसे नगर के बाहर आ प्राण त्याग दिये और फिर शृगाल – योनिमें जन्म लिया ॥ तब काशिराजकन्या दिव्य दृष्टि से उसे दूसरे जन्म में शृगाल हुआ जान उसे देखनेके लिये कोलाहल पर्वतपर गयी ॥ वहाँ भी अपने पतिको शृगाल – योनिमें उत्पन्न हुआ देख वह सुन्दरी राजकन्या उससे बोली- ॥ ” हे राजेन्द्र ! श्वान – योनि में जन्म लेनेपर मैंने आपसे जो पाखण्डी से वार्तालाप विषयक पूर्वजन्म का वृत्तान्त कहा था क्या वह आपको स्मरण है ? ” तब सत्यनिष्ठों में श्रेष्ठ राजा शतधनु ने उसके इस प्रकार कहने पर सारा सत्य वृत्तान्त जानकर निराहार रह वन में अपना शरीर छोड़ दिया ॥

फिर वह एक भेड़िया हुआ ; उस समय भी अनिन्दिता । राजकन्या ने उस निर्जन वन में जाकर अपने पतिको । उसके पूर्वजन्म का वृत्तान्त स्मरण कराया ॥ [ उसने कहा- ] ” हे महाभाग ! तुम भेड़िया नहीं हो , तुम राजा शतधनु हो । तुम [ अपने पूर्वजन्मोंमें ] क्रमशः कुक्कुर और शृगाल होकर अब भेड़िया हुए हो ” ॥ इस प्रकार उसके स्मरण करानेपर राजाने जब भेड़िये के शरीर को छोड़ा तो गृध्र – योनि में जन्म लिया । उस समय भी उसकी निष्पाप भार्याने उसे फिर बोध कराया ॥

‘ हे नरेन्द्र ! तुम अपने स्वरूप का स्मरण करो ; इन गृध्र- चेष्टाओंको छोड़ो । पाखण्डीके साथ वार्तालाप करनेके दोषसे ही तुम गृध्र हुए हो ‘ ॥ फिर दूसरे जन्म में काक – योनि को प्राप्त होनेपर भी अपने पतिको योगबलसे पाकर उस सुन्दरीने कहा- ॥ ” हे प्रभो ! जिनके वशीभूत होकर सम्पूर्ण सामन्तगण नाना प्रकारकी वस्तुएँ भेंट करते थे वही आप आज काक – योनि को प्राप्त होकर बलिभोजी हुए हैं ” ॥ इसी प्रकार काक योनि में भी पूर्वजन्म का स्मरण कराये जाने पर राजाने अपने । प्राण छोड़ दिये और फिर मयूर – योनि में जन्म लिया ॥

अश्वमेध यज्ञ और पाखण्ड का दोष

मयूरावस्था में भी काशिराज की कन्या उसे क्षण – क्षणमं अति सुन्दर मयूरोचित आहार देती हुई उसकी टहल करने लगी ॥ उस समय राजा जनक ने अश्वमेध नामक महायज्ञ का अनुष्ठान किया ; उस यज्ञ में अवभृथ – स्नान के समय उस मयूर को स्नान कराया ॥ तब उस सुन्दरीने स्वयं भी स्नान कर राजा को यह स्मरण कराया कि किस प्रकार उसने श्वान और शृगाल आदि योनियाँ ग्रहण की थीं ॥ अपनी जन्म – परम्पराका स्मरण होनेपर उसने अपना शरीर त्याग दिया और फिर महात्मा जनकजी के यहाँ ही पुत्ररूप से जन्म लिया ॥

तब उस सुन्दरीने अपने पिताको विवाहके लिये प्रेरित किया । उसकी प्रेरणासे राजाने उसके स्वयंवर का आयोजन किया ॥ स्वयंवर होनेपर उस राजकन्याने स्वयंवरमें आये हुए अपने उस पतिको फिर पतिभावसे वरण कर लिया ॥ उस राजकुमार ने काशिराजसुताके साथ नाना प्रकारके भोग भोगे और फिर पिता के परलोकवासी होनेपर विदेहनगरका राज्य किया ॥ उसने बहुत – से यज्ञ किये , याचकों को नाना प्रकारसे दान दिये , बहुत – से पुत्र उत्पन्न किये और शत्रुओंके साथ अनेकों युद्ध किये ॥ इस प्रकार उस राजा ने पृथिवी का न्यायानुकूल पालन करते हुए राज्य – भोग किया और अन्त में अपने प्रिय प्राणों को धर्मयुद्ध में छोड़ा ॥

वैदिक धर्म का पालन और पाखण्डियों से बचाव

तब उस सुलोचना ने पहले के समान फिर अपने चितारूढ पति का विधिपूर्वक प्रसन्न – मन से अनुगमन किया ॥ इससे वह राजा उस राजकन्या के सहित इन्द्रलोक से भी उत्कृष्ट अक्षय लोकों को प्राप्त हुआ । हे द्विजश्रेष्ठ ! इस प्रकार शुद्ध हो जानेपर उसने अतुलनीय अक्षय स्वर्ग , अति दुर्लभ दाम्पत्य और अपने पूर्वार्जित पुण्य का फल प्राप्त कर लिया ॥ हे द्विज ! इस प्रकार मैंने तुम से पाखण्डी से सम्भाषण करने का दोष और अश्वमेध यज्ञ में स्नान करनेका माहात्म्य वर्णन कर दिया ॥ इसलिये पाखण्डी और पापाचारियों से कभी वार्तालाप और स्पर्श न करे , विशेषतः नित्य – नैमित्तिक कर्मोंके समय और जो यज्ञादि क्रियाओं के लिये दीक्षित हो उसे तो उनका संसर्ग त्यागना अत्यन्त आवश्यक है ॥

जिसके घरमें एक मासतक नित्यकर्मों का अनुष्ठान न हुआ हो उसको देख लेने पर बुद्धिमान् मनुष्य सूर्यका दर्शन करे ॥ फिर जिन्होंने वेदत्रयी का सर्वथा त्याग कर दिया है तथा जो पाखण्डियों का अन्न खाते और वैदिक मतका विरोध करते हैं उन पापात्माओं के दर्शनादि करनेपर तो कहना ही क्या है ? ॥ इन दुराचारी पाखण्डियोंके साथ वार्तालाप करने , सम्पर्क रखने और उठने – बैठने में महान् पाप होता है ; इसलिये इन सब बातोंका त्याग करे ॥ पाखण्डी , विकर्मी , विडाल – व्रतवाले , दुष्ट , स्वार्थी और बगुला भक्त लोगोंका वाणी से भी आदर न करे ॥ इन पाखण्डी , दुराचारी और अति पापियोंका संसर्ग दूरही से त्यागने योग्य है ।

इसलिये इनका सर्वदा त्याग करे ॥ इस प्रकार मैंने तुमसे नग्नों की व्याख्या की , जिनके दर्शनमात्र से श्राद्ध नष्ट हो जाता है और जिनके साथ सम्भाषण करनेसे मनुष्यका एक दिनका पुण्य क्षीण हो जाता है ॥ ये पाखण्डी बड़े पापी होते हैं , बुद्धिमान् पुरुष इनसे कभी सम्भाषण न करे । इनके साथ सम्भाषण करनेसे उस दिनका पुण्य नष्ट हो जाता है ॥ जो बिना कारण ही जटा धारण करते अथवा मूँड़ मुड़ाते हैं , देवता , अतिथि आदिको भोजन कराये बिना स्वयं ही भोजन कर लेते हैं , सब प्रकारसे शौचहीन हैं तथा जल दान और पितृ – पिण्ड आदिसे भी बहिष्कृत हैं , उन लोगोंसे वार्तालाप करनेसे भी लोग नरकमें जाते हैं ।

Exit mobile version