मनुवंश का वर्णन
भगवान् विष्णु और ब्रह्माजी
अनेकों यज्ञकर्ता , शूरवीर और धैर्यशाली भूपालों से सुशोभित इस मनुवंश का वर्णन सुनो जिसके आदिपुरुष श्रीब्रह्माजी हैं ॥ हे मैत्रेय ! अपने वंश के सम्पूर्ण पापोंको नष्ट करनेके लिये इस वंश – परम्पराकी कथाका क्रमशः श्रवण करो ॥ उसका विवरण इस प्रकार है – सकल संसारके आदिकारण भगवान् विष्णु हैं । वे अनादि तथा ऋक् यजु – सामः स्वरूप हैं । उन ब्रह्मस्वरूप भगवान् विष्णुके मूर्त्तरूप ब्रह्माण्डमय हिरण्यगर्भ भगवान् ब्रह्माजी सबसे पहले प्रकट हुए ॥
मनु की उत्पत्ति
ब्रह्माजी के दायें अँगूठे से दक्षप्रजापति हुए , दक्षसे अदिति हुई तथा अदिति से विवस्वान् और विवस्वान्से मनु का जन्म हुआ ॥
मनु के पुत्र
मनु के इक्ष्वाकु , नृग , धृष्ट , शर्याति , नरिष्यन्त , प्रांशु , नाभाग , दिष्ट , करूष और पृषध्र नामक दस पुत्र हुए ॥ मनुने पुत्रकी इच्छासे मित्रावरुण नामक दो देवताओंके यज्ञ का अनुष्ठान किया ॥ किन्तु होताके विपरीत संकल्प से यज्ञ में विपर्यय हो जानेसे उनके ‘ इला ‘ नामकी कन्या हुई ॥ मित्रावरुण की कृपा से वह इला ही मनुका ‘ सुद्युम्न ‘ नामक पुत्र हुई ॥ फिर महादेवजी के कोप ( कोपप्रयुक्त शाप ) से वह स्त्री होकर चन्द्रमाके पुत्र बुधके आश्रमके निकट घूमने लगी ॥
पुरूरवा की उत्पत्ति
बुध ने अनुरक्त होकर उस स्त्रीसे पुरूरवा नामक पुत्र उत्पन्न किया ॥ पुरूरवाके जन्मके अनन्तर भी परमर्षिगण ने सुद्युम्न को पुरुषत्वलाभ की आकांक्षाये क्रतुमय ऋग्यजु : सामाथर्वमय , सर्ववेदमय , मनोमय , ज्ञानमय , अन्नमय और परमार्थतः अकिंचिन्मय भगवान् यज्ञपुरुष का यथावत् यजन किया ।
सुद्युम्न के पुत्र
तब उनकी कृपा से इला फिर भी सुद्युम्न हो गयी ॥ उस ( सुद्युम्न ) – के भी उत्कल , गय और विनत नामक तीन पुत्र हुए ॥ पहले स्त्री होनेके कारण सुघुम्नको राज्याधिकार प्राप्त नहीं हुआ ॥ वसिष्ठजीके कहनेसे उनके पिताने उन्हें प्रतिष्ठान नामक नगर दे दिया था , वही उन्होंने पुरूरवाको दिया ॥ पुरूरवा की सन्तान सम्पूर्ण दिशाओंमें फैले हुए क्षत्रियगण हुए ।
मनुवंश के अन्य प्रमुख सदस्य
मनु का पृषध्र नामक पुत्र गुरु की गौका वध करने के कारण शूद्र हो गया ॥ मनुका पुत्र करूष था । करूषसे कारूष नामक महाबली और पराक्रमी क्षत्रियगण उत्पन्न हुए ॥ दिष्टका पुत्र नाभाग वैश्य हो गया था ; उससे बलन्धन नाम का पुत्र हुआ ॥
बलन्धन और उनकी संतान
बलन्धन से महान् कीर्तिमान् वत्सप्रीति , वत्सप्रीतिसे प्रांशु और प्रांशुसे प्रजापति नामक इकलौता पुत्र हुआ ॥ प्रजापतिसे खनित्र , खनित्रय चाक्षुष तथा चाक्षुषसे अति बल – पराक्रम – सम्पन्न विंश हुआ ॥
प्रजापति और उनके वंशज
विंश से विविंशक , विविंशक से खनिनेत्र , खनिनेत्र से अतिविभूति और अतिविभूति से अति बलवान् और शूरवीर करन्धम नामक पुत्र हुआ ॥ करन्धम से अविक्षित् हुआ और अविक्षित्के मरुत्त नामक अति बल – पराक्रमयुक्त पुत्र हुआ , जिसके विषयमें आजकल भी ये दो श्लोक गाये जाते हैं । ‘ मरुत्त का जैसा यज्ञ हुआ था वैसा इस पृथिवीपर और किसका हुआ है , जिसकी सभी याज्ञिक वस्तुए सुवर्णमय और अति सुन्दर थीं ॥
मरुत्त की कथा
उस यज्ञम इन्द्र सोमरस से और ब्राह्मणगण दक्षिणासे परितृप्त हो गये थे , तथा उसमें मरुद्गण परोसनेवाले और देवगण सदस्य थे ‘ ॥ उस चक्रवर्ती मरुत्तके नरिष्यन्त नामक पुत्र हुआ तथा नरिष्यन्तके दम और दमके राजवर्द्धन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ ॥
राजवर्द्धन के वंशज
राजवर्द्धन से सुवृद्धि केवल और केवलसे सुधृति का जन्म हुआ ॥ सुधृतिसे नर , नरसे चन्द्र और चन्द्रसे केवल हुआ ॥ केवलसे बन्धुमान् बन्धुमानसे वेगवान् , वेगवान्से बुध , बुधसे तृणबिन्दु तथा तृणबिन्दुसे पहले तो इलविला नाम की एक कन्या हुई थी , किन्तु पीछे अलम्बुषा नामकी एक सुन्दरी अप्सरा उसपर अनुरक्त हो गयी । उससे तृणबिन्दु के विशाल नामक पुत्र हुआ , जिसने विशाला नामकी पुरी बसायी ॥
तृणबिन्दु और विशालवंश
विशाल का पुत्र हेमचन्द्र हुआ , हेमचन्द्रका चन्द्र , चन्द्रका धूम्राक्ष , धूम्राक्षका संजय , संजयका सहदेव और सहदेवका पुत्र कृशाश्व हुआ ॥ कृशाश्वके सोमदत्त नामक पुत्र हुआ , जिसने सौ अश्वमेध यज्ञ किये थे । उससे जनमेजय हुआ और जनमेजय सुमतिका जन्म हुआ । ये सब विशालवंशीय राजा हुए । इनके विषयमें यह श्लोक प्रसिद्ध है । ‘ तृणबिन्दुके प्रसादसे विशालवंशीय समस्त राजालोग दीर्घायु , महात्मा , वीर्यवान् और अति धर्मपरायण हुए ॥
शर्याति और उनकी सन्तान
मनुपुत्र शर्याति के सुकन्या नामवाली एक कन्या हुई , जिसका विवाह च्यवन ऋषिके साथ हुआ ॥ शर्याति के आनत नामक एक परम धार्मिक पुत्र हुआ ।
रेवत और ककुद्मी की कथा
आनर्त्त के रेवत नाम का पुत्र हुआ जिसने कुशस्थली नाम की पुरी में रहकर आनर्त्तदेश का राज्यभोग किया ॥ रेवतका भी रैवत ककुद्मी नामक एक अति धर्मात्मा पुत्र था , जो अपने सौ भाइयों में सबसे बड़ा था ॥ उसके रेवती नामकी एक कन्या हुई ॥ महाराज रैवत उसे अपने साथ लेकर ब्रह्माजीसे यह पूछनेके लिये कि ‘ यह कन्या किस वरके योग्य है ‘ ब्रह्मलोकको गये ॥ उस समय ब्रह्माजीके समीप हाहा और हूहू नामक दो गन्धर्व अतितान नामक दिव्य गान गा रहे थे ॥
वहाँ [ गान – सम्बन्धी चित्रा , दक्षिणा और धात्री नामक ] त्रिमार्गके परिवर्तनके साथ उनका विलक्षण गान सुनते हुए अनेकों युगोंके परिवर्तन – कालतक ठहरनेपर भी रैवतजी को केवल एक मुहूर्त ही बीता – सा मालूम हुआ ॥ गान समाप्त हो जानेपर रैवतने भगवान् कमलयोनिको प्रणाम वर कर उनसे अपनी कन्याके योग्य पूछा ॥ भगवान् ब्रह्माने कहा- तुम्हें जो वर अभिमत हों उन्हें बताओ ” ॥ तब उन्होंने भगवान् ब्रह्माजीको पुनः प्रणाम कर अपने समस्त अभिमत वरों का वर्णन किया और पूछा कि ‘ इनमेंसे आपको कौन वर पसन्द है जिसे मैं यह कन्या दूँ ? ‘ ॥
इस पर भगवान् कमलयोनि कुछ सिर झुकाकर मुसकाते हुए बोले – “ तुमको जो – जो वर अभिमत हैं उनमेंसे तो अब पृथिवीपर किसीके पुत्र पौत्रादिकी सन्तान भी नहीं है ॥ क्योंकि यहाँ गन्धर्वोंका गान सुनते हुए तुम्हें कई चतुर्युग बीत चुके हैं ॥ इस समय पृथिवीतलपर अट्ठाईसवें मनुका चतुर्युग प्रायः समाप्त हो चुका है ॥ तथा कलियुगका प्रारम्भ होनेवाला है ॥ अब तुम [ अपने समान ] अकेले ही रह गये हो , अतः यह कन्या – रत्न किसी और योग्य वरको दो । इतने समय में तुम्हारे पुत्र , मित्र , कलत्र , मन्त्रिवर्ग , भृत्यगण , बन्धुगण , सेना और कोशादिका भी सर्वथा अभाव हो चुका है ” ॥ तब तो राजा रैवतने अत्यन्त भयभीत हो भगवान् ब्रह्माजीको पुनः प्रणाम कर पूछा-
भगवन् ! ऐसी बात है , तो अब मैं इसे किसको दूँ ? ‘ ॥ तब सर्वलोकगुरु भगवान् कमलयोनि कुछ सिर झुकाये हाथ जोड़कर बोले ॥ श्रीब्रह्माजीने कहा – जिस अजन्मा , सर्वमय , अन्त , स्वरूप , विधाता परमेश्वरका आदि , मध्य , स्वभाव और सार हम नहीं जान पाते ॥ कलामुहूर्तादिमय काल भी जिसकी विभूतिक परिणाम का कारण नहीं हो सकता , जिसका जन्म और मरण नहीं होता , जो सनातन और सर्वदा एकरूप है तथा जो नाम और रूपसे रहित है ॥ जिस अच्युत की कृपा से मैं प्रजा का उत्पत्तिकर्त्ता हूँ .. जिसके क्रोध से उत्पन्न हुआ रुद्र सृष्टि का अन्तकर्ता है तथा जिस परमात्मासे मध्यमें जगत्स्थितिकारी विष्णुरूप पुरुष का प्रादुर्भाव हुआ है ॥
रेवती और बलरामजी
जो अजन्मा मेरा रूप धारणकर संसार की रचना करता है , स्थिति के समय जो पुरुषरूप है तथा जो रुद्ररूप से सम्पूर्ण विश्व का ग्रास कर जाता है एवं अनन्तरूप से सम्पूर्ण जगत् को धारण करता है ॥ जो अव्ययात्मा पाक के लिये अग्निरूप हो जाता है , पृथिवीरूप से सम्पूर्ण लोकों को धारण करता है , इन्द्रादिरूप से विश्व का पालन करता है और सूर्य तथा चन्द्ररूप होकर सम्पूर्ण अन्धकारका नाश करता है ॥
जो श्वास – प्रश्वासरूप से जीवों में चेष्टा करता है , जल और अन्नरूप से लोक की तृप्ति करता है तथा विश्व की स्थिति में संलग्न रहकर जो आकाशरूप से सबको अवकाश देता है ॥ जो सृष्टिकर्ता होकर भी विश्वरूप से आप ही अपनी रचना करता जगत्का पालन करनेवाला होकर भी आप ही पालित होता है तथा संहारकारी होकर भी स्वयं ही संहृत होता है औरजो इन तीनोंसे पृथक् इनका अविनाशी आत्मा है ॥ जिसमें यह जगत् स्थित है , जो आदिपुरुष जगत् स्वरूप है और इस जगत्के ही आश्रित तथा स्वयम्भू है , हे नृपते ! सम्पूर्ण भूतों का उद्भवस्थान वह विष्णु धरातल में अपने अंश से अवतीर्ण हुआ है ॥
हे राजन् ! पूर्वकालमें तुम्हारी जो अमरावती समान कुशस्थली नामकी पुरी थी वह अब द्वारकापुरी हो गयी है । वहीं वे बलदेव नामक भगवान् विष्णु के अंश विराजमान हैं ॥ हे नरेन्द्र ! तुम यह कन्या उन मायामानव श्रीबलदेवजी को पत्नीरूप से दो । ये बलदेवजी संसार में अति प्रशंसनीय हैं और तुम्हारी कन्या भी स्त्रियोंमें रत्नस्वरूपा है , अतः इनका योग सर्वथा उपयुक्त है ॥ भगवान् ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर प्रजापति रैवत पृथिवीतलपर आये तो देखा कि सभी मनुष्य छोटे – छोटे , कुरूप , अल्पतेजोमय , अल्पवीर्य तथा विवेकहीन हो गये हैं ॥
अतुलबुद्धि महाराज रैवतने अपनी कुशस्थली नामकी पुरी और ही प्रकारकी देखी तथा स्फटिक पर्वतके समान जिनका वक्षःस्थल है उन भगवान् हलायुधको अपनी कन्या दे दी ॥ भगवान् बलदेवजीने उसे बहुत ऊँची देखकर अपने हलके अग्रभागसे दबाकर नीची कर ली । तब रेवती भी तत्कालीन अन्य स्त्रियांक तदनन्तर ( छोटे शरीरकी ) हो गयी ॥ बलरामजीने महाराज रैवतकी कन्या रेवतीसे विधिपूर्वक विवाह किया तथा भी कन्यादान करनेके अनन्तर एकाग्रचित्तसे तपस्या करनेके लिये हिमालय पर चले गये ॥