व्यास रूप और वेदों का विभाग
प्रत्येक द्वापरयुगमें भगवान् विष्णु व्यासरूप में अवतीर्ण होते हैं और संसारके कल्याणके लिये एक वेदके अनेक भेद कर देते हैं ॥ मनुष्योंके बल वीर्य और तेजको अल्प जानकर वे समस्त प्राणियोंके हितके लिये वेदोंका विभाग करते हैं ॥ जिस शरीरके द्वारा वे प्रभु एक वेदके अनेक विभाग करते हैं भगवान् मधुसूदनकी उस मूर्तिका नाम वेदव्यास है ॥
वेदों के व्यासों का वर्णन
जिस – जिस मन्वन्तरमें जो – जो व्यास होते हैं और वे जिस – जिस प्रकार शाखाओंका विभाग करते हैं — वह मुझसे सुनो ॥ इस वैवस्वत मन्वन्तरके प्रत्येक द्वापरयुगमें व्यास महर्षियोंने अबतक पुनः पुनः अट्ठाईस बार वेदोंके विभाग किये हैं ॥ जिन्होंने पुनः पुनः द्वापरयुगमें वेदोंके चार – चार विभाग किये हैं उन अट्ठाईस व्यासोंका विवरण सुनो- ॥ पहले द्वापरमें स्वयं भगवान् ब्रह्माजीने वेदोंका विभाग किया था । दूसरे द्वापरके वेदव्यास प्रजापति हुए ॥
तीसरे द्वापरमें शुक्राचार्यजी और चौथेमें बृहस्पतिजी व्यास हुए तथा पाँचवेंमें सूर्य और छठेमें भगवान् मृत्यु व्यास कहलाये ॥ सातवें द्वापरके वेदव्यास इन्द्र , आठवेंके वसिष्ठ , नर्वेके सारस्वत और दसवेंके त्रिधामा कहे जाते हैं ॥ ग्यारहवेंमें त्रिशिख , बारहवेंमें भरद्वाज , तेरहवेंमें अन्तरिक्ष और चौदहवेंमें वर्णी नामक व्यास हुए ॥ पन्द्रहवेंमें त्रय्यारुण , सोलहवेंमें धनंजय , सत्रहवेंमें ऋतुंजय और तदनन्तर अठारहवेंमें जय नामक व्यास हुए ॥
फिर उन्नीसवें व्यास भरद्वाज हुए , भरद्वाजके पीछे गौतम हुए और गौतमके पीछे जो व्यास हुए वे हर्यात्मा कहे जाते हैं ॥ हर्यात्माके अनन्तर वाजश्रवामुनि हुए तथा उनके पश्चात् सोमशुष्मवंशी तृणबिन्दु ( तेईसवें ) वेदव्यास कहलाये ॥ उनके पीछे भृगुवंशी ऋक्ष व्यास हुए जो वाल्मीकि कहलाये , तदनन्तर हमारे पिता शक्ति हुए और फिर मैं हुआ ॥ मेरे अनन्तर जातुकर्ण व्यास हुए और ८ फिर कृष्णद्वैपायन- इस प्रकार ये अट्ठाईस व्यास प्राचीन हैं । इन्होंने द्वापरादि युगोंमें एक ही वेदके चार – चार विभाग किये हैं । मेरे पुत्र कृष्णद्वैपायनके अनन्तर आगामी द्वापरयुगमें द्रोण पुत्र अश्वत्थामा वेदव्यास होंगे ॥
ओंकाररूप ब्रह्म
ॐ यह अविनाशी एकाक्षर ही ब्रह्म है । यह बृहत् और व्यापक है ; इसलिये ‘ ब्रह्म ‘ कहलाता है ॥ भूर्लोक , भुवर्लोक और स्वर्लोक- ये तीनों प्रणवरूप ब्रह्ममें ही स्थित हैं तथा प्रणव ही ऋक् , यजुः , साम और अथर्वरूप है ; अतः उस ओंकाररूप ब्रह्मको नमस्कार है ॥
जो संसारके उत्पत्ति और प्रलयका कारण कहलाता है तथा महत्तत्त्वसे भी परम गुह्य ( सूक्ष्म ) है उस ओंकाररूप ब्रह्मको नमस्कार है ॥ जो अगाध , अपार और अक्षय है , संसारको मोहित करनेवाले तमोगुणका आश्रय है , तथा प्रकाशमय सत्त्वगुण और प्रवृत्तिरूप रजोगुणके द्वारा पुरुषोंके भोग और मोक्षरूप परमपुरुषार्थका हेतु है ॥ जो सांख्यज्ञानियोंकी परमनिष्ठा है , शम – दमशालियोंका गन्तव्य स्थान है , जो अव्यक्त और अविनाशी है तथा जो सक्रिय ब्रह्म होकर भी सदा रहनेवाला है ॥
परब्रह्म के गुण
जो स्वयम्भू , प्रधान और अन्तर्यामी कहलाता है तथा जो अविभाग , दीप्तिमान् , अक्षय और अनेक रूप है ॥ और जो परमात्मस्वरूप भगवान् वासुदेवका ही रूप ( प्रतीक ) है , उस ओंकाररूप परब्रह्मको सर्वदा बारम्बार नमस्कार है ॥ यह ओंकाररूप ब्रह्म अभिन्न होकर भी [ अकार , उकार और मकाररूपसे ] तीन भेदोंवाला है । यह समस्त भेदोंमें अभिन्नरूपसे स्थित है तथापि भेदबुद्धिसे भिन्न – भिन्न प्रतीत होता है ॥ वह सर्वात्मा ऋङ्मय , साममय और यजुर्मय है तथा ऋग्यजुः सामका साररूप वह ओंकार ही सब शरीरधारियोंका आत्मा है ॥ वह वेदमय है , वही ऋग्वेदादिरूपसे भिन्न हो । जाता है और वही अपने वेदरूपको नाना शाखाओं में विभक्त करता है तथा वह असंग भगवान् ही समस्त शाखाओंका रचयिता और उनका ज्ञानस्वरूप है ॥