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संत और असंत

संत

संतों के मिलने के समान जगत् में सुख नहीं है। मन, वचन और शरीर से परोपकार करना, यह संतों का सहज स्वभाव है। संत दूसरों की भूलाई के लिए दुःख सहते हैं और असंत दूसरों को दुःख पहुँचाने के लिए हैं।

दुष्टों का स्वभाव और उनके कार्य

कृपालु संत वृक्ष के समान दूसरो के हितु के लिए भारी विपत्ति सहते हैं । किन्तु दुष्ट लोग सनकी भाँति दूसरों को बाँधते हैं और (उन्हें बाँधने के लिए) अपनी खाल खिंचवाकर विपत्ति सहकर मर जाते हैं। दृष्ट बिना किसी स्वार्थ के साँप और चूहे के समान अकारण ही दूसरों का अपकार करते हैं। वे परायी सम्पत्ति का नाश करके स्वयं नष्ट हो जाते हैं, जैसे खेती का नाश करके ओले नष्ट हो जाते है।

दुष्टों और संतों का अभ्युदय

दुष्ट का अभ्युदय(उन्नति) प्रसिद्ध अधम गृह केतु के उदय की भाँति जगत् के दुःख के लिए ही होता है और संतों का अभ्युदय सदा ही सुख कर होता हैं, जैसे चन्द्रमा और सूर्य का उदय विश्वभर के लिए सुखदायक है।

वेदों की दृष्टि में संत और दुष्ट

वेदों में अहिंसा को परम धर्म माना है और परनिन्दा को भारी पाप माना है। संत सदैव दूसरों का परोपकार करने की ही सोचते हैं, उनके मन में दूसरों का बुरा करने की लेशमात्र भी सोच नहीं हैं। वे सहज व सरल स्वभाव के होते हैं।और ऐसे ही संत ईश्वर को प्रिय हैं।

FAQs

संतों का महत्त्व क्या है?

संतों का महत्त्व इस बात में है कि वे सच्चे परोपकारी होते हैं। वे मन, वचन, और कर्म से सदैव दूसरों की भलाई करते हैं। उनका जीवन दूसरों के कल्याण के लिए समर्पित होता है और वे सहजता से विपत्तियों का सामना करते हैं ताकि दूसरों को सुख मिले।

संत और दुष्टों के स्वभाव में क्या अंतर होता है?

संतों का स्वभाव परोपकार और दूसरों की भलाई करना होता है, जबकि दुष्ट दूसरों को नुकसान पहुँचाने और उन्हें दुःख देने के लिए कार्य करते हैं। संत वृक्ष के समान दूसरों को फल देते हैं, जबकि दुष्ट अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए दूसरों का नुकसान करते हैं।

संत विपत्तियों को कैसे सहन करते हैं?

संत वृक्ष की तरह होते हैं, जो दूसरों के हित के लिए भारी विपत्तियाँ सहते हैं। वे दूसरों के लाभ के लिए अपने व्यक्तिगत कष्टों की परवाह नहीं करते, और कठिनाइयों के बावजूद सदा दूसरों का भला सोचते हैं।

दुष्टों का स्वभाव क्या होता है?

दुष्टों का स्वभाव बिना किसी कारण दूसरों को कष्ट देना और अपकार करना होता है। वे साँप और चूहे की तरह अकारण दूसरों को हानि पहुँचाते हैं और अंततः खुद भी नष्ट हो जाते हैं, जैसे ओले खेती का नाश कर खुद भी नष्ट हो जाते हैं।

वेदों में संतों और दुष्टों के बारे में क्या कहा गया है?

वेदों में अहिंसा को परम धर्म और परनिन्दा को भारी पाप माना गया है। संत सदैव दूसरों का भला सोचते हैं और उनकी मदद करने का प्रयास करते हैं। वे सच्चे, सरल और परोपकारी होते हैं, और इसलिए ईश्वर के प्रिय होते हैं।

संतों और दुष्टों का अभ्युदय कैसे भिन्न होता है?

संतों का अभ्युदय (उन्नति) हमेशा समाज के लिए सुखदायी होता है, जैसे चन्द्रमा और सूर्य का उदय पूरी दुनिया को प्रकाश और आनंद देता है। जबकि दुष्टों की उन्नति समाज के लिए दुःख और कष्ट का कारण बनती है, जैसे अधम गृह केतु का उदय।

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